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स्याह दुनिया का सच 'गुलाम मंडी'

यह उपन्यास थर्ड जेंडर यानी हिजड़ों और जिस्मफरोशों की स्याह दुनिया में झंकता है. 'दुनिया में ऐसा होता है और सच में होता है' की तर्ज पर लिखा गया उपन्यास रचनाकार के मूल सरोकारों से सीधे जुड़ा है, जो इंसानों को इंसान माने जाने की वकालत करता है.

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'गुलाम मंडी' का कवर पेज
'गुलाम मंडी' का कवर पेज

किताब का नाम: गुलाम मंडी
लेखकः निर्मला भुराड़ि‍या
प्रकाशकः सामयिक प्रकाशन
कीमतः 395 रुपये

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यह उपन्यास थर्ड जेंडर यानी हिजड़ों और जिस्मफरोशों की स्याह दुनिया में झंकता है. 'दुनिया में ऐसा होता है और सच में होता है' की तर्ज पर लिखा गया उपन्यास रचनाकार के मूल सरोकारों से सीधे जुड़ा है, जो इंसानों को इंसान माने जाने की वकालत करता है. फिर चाहे वह मजबूर स्त्री हो या समाज का तिरस्कार झेलने को मजबूर हिजड़े. इसमें निर्मला ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चल रही ह्यूमन ट्रैफिकिंग को भी गहराई से रेखांकित किया है.

जिन लोगों को प्रकृति ने कोई तयशुदा जेंडर नहीं दिया, उन्हें लेकर साहित्य में बहुत कम काम हुआ है. लेखिका ने 'गुलाम मंडी' के जरिए उन लोगों के प्रति समाज के तिरस्कार से जुड़े कई सवालों के जवाब तलाशने की कोशिश की है, जिनके जवाब में हिजड़े खुद अपनी व्यथा कहते हैं, 'हम ना, तुम्हारे जो शादी-ब्याह हों तो नाचेंगी-गाएंगी, शगुन पाएंगी मगर यूं जो रास्ते में आ पड़े ना हम, तो हिजड़ा कहकर धिक्कारोगी.'

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हिजड़ों की समस्याएं, रहन-सहन और उनके अतीत को जानने के लिए निर्मला ने अच्छी-खासी रिसर्च की है, वहीं जिस्मफरोशी की निर्मोही और दलदली दुनिया को समझने के लिए उन्होंने विदेश में स्ट्रिपटीज बार का माहौल भी देखा. लेखिका ने उपन्यास की प्रमुख पात्र कल्याणी और जानकी के बहाने कई तरह की दुनियाएं, कई तरह के मनोविज्ञान, खूबसूरती का अभिमान और इर्ष्या जैसे भावों का खूबसूरत अंकन किया है. लंतरानी, मोहन, गौतम, हरियालीराम, लक्ष्मी, और घुंघरू के किरदारों के जरिए हिंदुस्तानी समाज में फैली जात-पांत, रूढ़िवाद, कर्मकांड दिखता है तो ब्यूटी क्वीन के बूढ़े होने का डर, दलित युवती के साथ सवर्ण परिवार का अछूत-सा व्यवहार और युवती के मन में बैठे कई डर भी सामने आते हैं.

'एक दिन जानकी ने चैके से दाल का डोंगा उठा लिया था. उस दिन ताई जी ने खाना नहीं खाया. ताई जी की यह मान्यता थी कि नीच लोगों का खून ही अलग होता है, सो छोटी जात में विवाह करने से अपना खून भी खराब हो जाता है और यह भी कि जो सवर्ण नहीं हैं, वो भेजे से भोट होते हैं.' उपन्यास शुरू से आखिर तक अपने साथ बहाता ले जाता है. यह सोचने पर मजबूर करता है तो समाज के दोगलेपन पर धिक्कार भी पैदा करता है. यही बात इसे खास बनाती है.

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