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रंग साक्षी: रंगमंच के इतिहास पर एक जरूरी किताब

हिंदी रंगमंच की आधी शती को कवर करती यह किताब नाटक की आलोचना पर केंद्रित न होकर मंच प्रस्तुति पर आधारित है.

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रंग साक्षी
लेखक: जयदेव तनेजा
प्रकाशकः तक्षशिला प्रकाशन
मूल्यः 1,995 रु.


पुस्तक सार
हिंदी रंगमंच की आधी शती को कवर करती यह किताब नाटक की आलोचना पर केंद्रित न होकर मंच प्रस्तुति पर आधारित है
.

जयदेव तनेजा दिल्ली में रहते हए 1960 से आज तक यहां मंचित होने वाले लगभग हर नाटक के दर्शक, प्रेक्षक और समीक्षक रहे हैं. नाटक और रंगमंच की दुनिया से इस लगाव का ही नतीजा है रंग साक्षी. सही अर्थों में यह नाटक की आलोचना पर केंद्रित न होकर मंच प्रस्तुति पर आधारित है. नाटक जैसी विधा पर विचार-विमर्श का शायद यही सही रास्ता है. अगर हम मात्र नाटक के आलेख पर भी बात करें तो उसमें रंगमंचीय तत्वों और संभावनाओं की उपस्थिति को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता.

चार खंडों की किताब में भारतीय विशेषतः हिंदी रंगमंच की लगभग आधी शती को शामिल किया गया है. इस दृष्टि से रंगमंच के शोधार्थियों के साथ-साथ सामान्य दर्शकों के लिए भी यह स्रोत सामग्री अत्यंत महत्व की है. इसके माध्यम से हम 1974 से 2007 के बीच दिल्ली रंगमंच पर मंचित हर नाटक के बारे में जरूरी सूचनाएं जुटा सकते हैं. अच्छा होता, लेखक ने इसे 1962 से शुरू किया होता जिसे उन्होंने आषाढ़ का एक दिन वाले लेख से रेखांकित भी किया है. बहरहाल, कुल 1,000 प्रस्तुतियों की रिपोर्ट सचमुच सराहनीय प्रयास है.

पहले खंड में पांच नाटकों पर विस्तृत लेख हैं जो उनकी प्रस्तुतियों के बहाने लिखे गए हैं. ये नाटक हैः आषाढ़ का एक दिन, आधे अधूरे, तुगलक, अंधा युग और चरणदास चोर. इन नाटकों की प्रस्तुति हिंदी रंगमंच की उल्लेखनीय घटना रही है. चरणदास चोर प्रस्तुति के रूप में भले चर्चित हुआ लेकिन उसके आलेख पर ज्यादा विमर्श नहीं हुआ. इस सूची में अगर एक-एक नाटक विजय तेंडुलकर और बादल सरकार का होता तो भारतीय रंगमंच की यह तस्वीर पूरी हो जाती.

दूसरा खंड उस इतिहास की दृष्टि से सबसे महत्वपूर्ण है जिसके तहत 1974 से 2007 तक की लगभग हर नाट्य प्रस्तुति की रपट और आलोचना साथ-साथ मिल जाती है. ऐसी रपटों के लिए लेखक ने वीक्षा शब्द का प्रयोग किया है, जिसका नोटिस लिया जाना जरूरी है. यों शब्द की अवधारणा से ज्यादा इस खंड में उपलब्ध सामग्री के दस्तावेजी महत्व को ध्यान में रखा जाना चाहिए. पिछले बीस-पच्चीस वर्षों में भारतीय रंगमंच में नाट्य समारोहों की बाढ़-सी आ गई है. अब हर नाट्य मंडली समारोह के लिए ही नाटक तैयार करती है. वह दौर तो दुर्लभ ही हो गया है, जब कोई नाट्य दल अपनी इच्छा, अपने संसाधनों और अपने कार्यक्रम के अनुसार नाटक का मंचन करे. कुल मिलाकर 75 नाट्योत्सवों के विवरण से उपर्युक्त स्थापना की ही पुष्टि होती है.

किताब के अंतिम खंड में अठारह रंग वर्षों का वार्षिक आकलन है. साहित्य की दूसरी विधाओं की तरह रंगमंचीय वार्षिक रिपोर्ट और आकलन बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके माध्यम से हमारा वर्ष दर वर्ष चलते रंगमंच के मुहावरे और तेवर से साक्षात्कार होता है. किताब के पीछे के लेखक के परिश्रम, लगन और जिजीविषा को देखकर आश्चर्य होता है. पर कुछ गलतियों की ओर भी ध्यान दिलाना जरूरी है. पहले खंड में तुगलक की जिस प्रस्तुति को आधार बनाया गया है, वह 1973 में नहीं 1972 में पहली बार मंचित हुई थी. मैं स्वयं उसमें बतौर अभिनेता शामिल था. दोहराने की जरूरत नहीं कि इस पुस्तक का महत्व हमेशा अक्षुण्ण रहेगा.

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