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रवीश कुमार की किताब 'इश्क में शहर होना': फेसबुकिया 'लप्रेक' या 'हेडेक'

एक जैसे भाषाई करतब, एक ही तरह के कथ्य और भाव, 'इश्क में शहर' होना में यही बात उकताहट पैदा करती है.

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इश्क में शहर होना
इश्क में शहर होना

अब डायरी के पन्नों की जगह फेसबुक ने ले ली है. इंटरनेट के तीव्र विस्तार ने चर्चा के लिए फेसबुक जैसे सोशल प्लेटफॉर्म उपलब्ध करा दिए हैं. यह उतना ही सुलभ, कनेक्टिव और दोतरफा संवाद है, जितना कि हिंदी साहित्य की दुनिया बंद होती थी. जाहिर है सोशल मीडिया पर अपनी अभिव्यक्ति युवाओं का आधुनिक शगल है. तभी तो 2014 में भारत में फेसबुक के एक्टिव यूजर्स की संख्या 10 करोड़ पार कर गई. आखिर इस युवा जमात तक हिंदी के प्रकाशक पहुंचे कैसे? उनके दिल और मिजाज को लुभाएं कैसे?

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सोशल मीडिया ने अपने सेलिब्रेटी भी गढ़े हैं. सेलिब्रेटीज तक उनके फैन्स की पहुंच भी आसान की है. शायद हिंदी प्रकाशक इसी राह से पाठकों की नई जमात को जोड़ने की उम्मीद रखते हैं. हिंदी में साहित्य के सामंतों का दौर रहा है. अब सेलिब्रेटी दौर के आगाज की कोशिश की जा रही है. कुछ ऐसी ही कोशिश नजर आती है रवीश की 'इश्क में शहर होना' में. किताब में कथित तौर पर लघु प्रेम कथाएं हैं, जिन्हें लेखक-प्रकाशक शॉर्ट में लप्रेक कह रहे हैं. किताब में लेखक का परिचय भी काफी कुछ कह देता है, रवीश की रिपोर्ट वाले रवीश कुमार.

यह आसान राह है, लेकिन टिकाऊ नहीं. नए पाठकों को लुभाने वाली है पर प्रभावी और अच्छे कथ्य नहीं. एक जैसे भाषाई करतब, एक ही तरह के कथ्य और भाव, 'इश्क में शहर' होना में यही बात उकताहट पैदा करती है. किताब में छह खंडों में लघु प्रेम कथाएं हैं. शुरुआत एक दुनिया शहर-सी खंड से होती है, जिसमें उन्होंने दिल्ली को अपने प्रेम और नजरिए से देखा है. फ्लाइओवर, बस, मेट्रो से शुरू होता उनका प्रेम और उनसे जुड़ी संवेदनाएं दिल्ली का फील कराती है. दिल्ली के नक्शे में मानो रवीश दौड़ रहे होते हैं, लेकिन बहुत यंत्रवत-सी लगती है. लव एग्जाम नोट्स घूमीफिरी, उफ़्फ!

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खंड में कॉलेज लाइफ के प्रेम प्रसंग हैं. वह कहीं खाप, कहीं आंबेडकर से लेकर लक्ष्मणपुर बाथे तक का नाम लेते हैं, लेकिन क्योंकर, क्या इस डर से कि रवीश की रिपोर्ट का फील भी कहीं मिले तो सही. तो जोर लगा के जिंदगी में रवीश 2011 के अन्ना के लोकपाल आंदोलन में भी प्रेमी जोड़ों को खोज लेते हैं. किताब की बस खासियत यही है कि लेखक ने दिनचर्या और आम चीजों से प्रेम को उकेरने की कोशिश की है.

पूरी किताब में एक ही तरह की पंक्तियां, भाव और कथ्य भरे पड़े हैं. ऐसा लगता है मानो एक ही चीज हम बार-बार पढ़ रहे हैं और कोफ्त होने लगती है. यह डायरी लेखन जैसा है जो फेसबुक से होते हुए किताब में आ गए हैं. शायद ये फेसबुक तक सीमित रहते तो अच्छा रहता. फेसबुक में रिपीटेशन का अहसास नहीं होता क्योंकि हम एक बार में एक या दो-तीन पोस्ट ही पढ़ रहे होते हैं और पिछले का भाव और कथ्य भूल चुके होते हैं, लेकिन उन्हें एक साथ किताब की शक्ल में पढ़ना ही रिपीटेशन और बोरियत की वजह है. किताब में लप्रेक से बेहतर तो रवीश की भूमिका है. हां, विक्रम नायक का चित्रांकन बेहतर है.

एक और पहलू, जनवरी में किताब का लोकार्पण जयपुर साहित्य सम्मेलन में हुआ. फरवरी में बुक फेयर में इसे एक लाख रुपये का राजकमल सृजनात्मक गद्य पुरस्कार 2014-15 भी मिल गया. गौरतलब कि साहित्य के सामंत कहे जाने वाले वरिष्ठ साहित्यकार नामवर सिंह की ओर से गठित निर्णायक मंडल ने इसका चयन किया है. यानी सेलिब्रिटी गढ़ना, उसे लेखक बनाना, बेच लेना और फिर पुरस्कृत करना, यही है इश्क में शहर होना.

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