किताब: सच्चा झूठ
लेखक: विनोद भारद्वाज
प्रकाशक: वाणी प्रकाशन
कवर: पेपरबैक
कीमत: 250 रुपये
पेज: 110
कुछ भी पूरी तरह स्याह या सफेद नहीं होता. इन दोनों के बीच रंगों की कई परतें होती हैं और उन परतों के बीच सच और झूठ के कई आयाम होते हैं. विनोद भारद्वाज की किताब 'सच्चा झूठ' भी इसी परिपाटी पर गढ़ी कहानी लगती है. किताब के किरदार आम आदमी की जिंदगी से उठाए हुए महसूस होते हैं. कहानी पढ़ते हुए लगता है कि ये किरदार हमारे आसपास ही घूम रहे हैं. यूं तो कहानी चार दशक पहले शुरू होती है, लेकिन इसमें उठाए मुद्दे आज के दौर में भी सही लगते हैं.
बाबादीन का खौफ
बाबादीन एक व्यक्ति का नाम नहीं है. यह नाम एक खौफ का है, जो लेखक से ही जुड़ा हुआ है. बाबादीन लेखक के जीवन का ही एक हिस्सा बन गया है. उम्र के हर पड़ाव
पर बाबादीन की याद उसके साथ रहती है. लेखक के मन में बाबादीन के प्रति भावनाओं का पूरा कॉकटेल है. कुंठा, क्रोध और भय के बीच चाह भी है. बाबादीन से एक बार
मिलने की. कठिन से कठिन हालात में विनोद बाबादीन को याद जरूर करते हैं.
बाबादीन वास्तव में एक घिनौना व्यक्ति था. वह छोटे लड़कों का यौन शोषण किया करता था. लेखक खुद स्कूल के दिनों में इस घिनौनेपन का शिकार रहा है और वह भयावह याद ताउम्र उसका साथ नहीं छोड़ती. उस हादसे ने उसे कुंठा और अपमान के जिस दलदल में डाल दिया था वह उससे निकल ही नहीं पाता. उसे लगता है कि जैसे वह पल उसके बदन से कहीं चिपक गया है. या कहें कि उसके वजूद का एक हिस्सा सा बन गया है.
कहानी यह सोचने पर मजबूर करती है कि बच्चों के यौन शोषण के मामले कोई नए नहीं हैं. बल्कि हम आज की तरह पहले के जमाने में इन मुद्दों पर इतने मुखर नहीं थे. बाल यौन शोषण के मामले आज भी देखने को मिल जाते हैं. खासतौर पर लड़कों के साथ हो रहे यौन अपराधों को पीड़ित का परिवार समाज के डर से उठाते भी नहीं हैं. कहानी का मुख्य पात्र भी किसी से अपने साथ हुए इस हादसे का जिक्र नहीं कर पाता.
कहानी का एक दूसरा पहलू पत्रकारिता
कहानी में पत्रकारिता क्षेत्र से जुड़े कई रोमांचक किस्से हैं. किताब पत्रकारिता से जुड़ी अनियामितताओं को बयां करती है. एक पत्रकार की मानसिक स्थिति और बंजारेपन को बताती है ये कहानी. किताबों की दुनिया और निजी जीवन के बीच की लड़ाइयों को बखूबी दर्शाती है 'सच्चा झूठ'.
महिलाओं का बखूबी चरित्र चित्रण
'सच्चा झूठ' हर तरह की महिलाओं के किरदार को जीता है. कहानी की महिला पात्र दबी कुचली नहीं हैं. वे सशक्त हैं. फिर चाहे वह हाई-प्रोफाइल महिला सोनाक्षी हो या कलकत्ता की अंधेरी गलियों में देह व्यापार करती बाईजी या फिर इमरजेंसी वाइफ सुधा. इस कहानी का मुख्य पात्र सुधीर इन महिलाओं के संपर्क में आता है और ये सभी किरदार उसके जीवन में अपना एक रंग छोड़ जाते हैं. रिश्तों का अजीब सा तानाबाना बुनती है ये कहानी.
ताजगी भरा लेखन
कहानी में नदियों सी रवानगी है. और साथ ही नदी की तरह इसके सफर में कई रोमांच भी हैं. कहानी अंत तक अपनी रफ्तार कायम रखती है. विनोद भारद्वाज ने अपनी लेखनकला से रोमांचित किया है. सच्चा झूठ मजेदार कहानियों का पुलिंदा है. कहानी में बोलचाल की भाषा का इस्तेमाल किया गया है. इसलिए इसकी भाषा बोझिल नहीं लगती है. सच्चा झूठ बाबादीन के खौफ के साथ ही पत्रकारिता के क्षेत्र से जुड़ी अनियमितताओं और जिन्दगी से जुड़े बेबाक परिस्थितियों की दास्तां है इस किताब को पढ़ते हुए जिंदगी को बेहतर तरीके से समझने में मदद मिलेगी. किताब की कहानी को इस तरह से पेश किया गया है कि यह आपको आखिर तक बांधे रखेगी.