किताब का नाम: तलाश भोजपुरी भाषायी अस्मिता की
लेखक: अजीत दुबे
प्रकाशक: इंडिका इन्फोमीडिया
मूल्य: 400 रुपये
17 मई 2012 को तत्कालीन गृह मंत्री पी चिदंबरम ने संसद में कहा था, 'हम रउआ सब के भावना समझ तानी'. तमिल भाषी और हाई क्लास की अंग्रेजी बोलने वाले चिदंबरम के मुंह से भोजपुरी के ये चंद शब्द सुनकर समूचा देश हैरान रह गया था. दरअसल, भोजपुरी भाषा को आठवीं अनुसूची में शामिल करने के संबंध में 15वीं लोकसभा में लाए गए ध्यानाकर्षण प्रस्ताव पर चिदंबरम ने यह भरोसा दिया था कि संसद के आगामी सत्र में इस बिल को पेश कर दिया जाएगा. लेकिन अब 16वीं लोकसभा का शीतकालीन सत्र चल रहा है और इस बिल का कोई अता-पता तक नहीं है.
भोजपुरी समाज के अध्यक्ष अजीत दुबे की किताब 'तलाश भोजपुरी भाषायी अस्मिता की' भोजपुरी की संवैधानिक मान्यता के लिए देश-विदेश में किए गए प्रयासों पर केंद्रित है. भोजपुरी भाषा-अस्मिता की लड़ाई के 'सिपाही' दुबे ने अपनी इस किताब में अंग्रेजीमुखी हो चुके सत्ता प्रतिष्ठान से संघर्ष का ब्योरा पेश किया है. यानी भोजपुरी को संवैधानिक मान्यता दिलाने की दिशा में अब तक जितने भी काम हुए हैं उनमें यह एक बेहद खास किताब है. इस किताब में न केवल अब तक हुए संपूर्ण भोजपुरी भाषा की लड़ाई का इतिहास मिल जाएगा बल्कि उससे जुड़ी समस्याओं का लेखा-जोखा भी मिलेगा.
करीब हजार वर्षों का इतिहास समेटे दुनियाभर के 16 देशों में 20 करोड़ से भी ज्यादा लोगों द्वारा बोली जाने वाली भोजपुरी भाषा आज भी संवैधानिक मान्यता पाने की राह देख रही है. यह किताब भोजपुरी भाषा, साहित्य, समाज, संस्कृति और परंपरा की पृष्ठभूमि में इस भाषा को संवैधानिक दर्जा दिलवानों के लिए हुए और हो रहे संघर्षों का लेखा-जोखा पेश करती है. किताब में इस क्षेत्र में सामाजिक प्रयासों के अलावा संसद में किए गए प्रयासों, सरकार की तरफ से मिले कोरे आश्वासनों, संवैधानिक मान्यता की राह में आने वाली अड़चनों और इन बाधाओं के समाधान के उपाय भी सुझाए गए हैं.
किसी भाषा के आठवीं अनुसूची में शामिल होने का मतलब क्या है? ऐसा होने से उस भाषा को क्या फायदे होते हैं? सरकार ने अगर आज तक 22 भारतीय भाषाओं को 8वीं अनुसूची में शामिल किया तो भोजपुरी को यह सम्मान देने में सरकार हिचकिचा क्यों रही है? इस मुद्दे पर सरकार की तरफ से क्या पहल की गई है? ये ऐसे तमाम सवाल हैं जो एक भोजपुरिया माटी के लाल के मन में उठते हैं. इन तमाम सवालों के जवाब इस किताब में दिए गए हैं.
मैथिली, बोडो, कोंकणी, डोगरी जैसी तमाम भाषाओं संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल किया गया है लेकिन यह जानकार आपको हैरानी हो सकती है कि इन भाषाओं को बोलने वाले लोग केवल लाखों की तादाद में हैं जबकि भोजपुरी भाषा इनसे ज्यादा बड़े पैमाने पर बोली जाती है. भोजपुरी को संविधान में जगह दिलाने को लेकर हमारे कुछ सांसदों ने संसद में लगातार आवाज बुलंद की है जिससे इस मामले पर जागरुकता बढ़ी है और यह मुद्दा जीवंत बना हुआ है. लेकिन अफसोस की बात यह है कि उनकी तमाम कोशिशें भोजपुरी को इससे ज्यादा कुछ नहीं दे पाईं और इसे इसके अंजाम तक नहीं पहुंचा पाई.
अजीत दुबे की यह किताब भोजपुरी भाषा-भाषियों की भाषायी अस्मिता के लिए चली आ रही लंबी लड़ाई का दस्तावेज है. किताब में भोजपुरी भाषा, साहित्य, संस्कृति, सिनेमा की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर भी प्रकाश डाला गया है. इस किताब का एक-एक लेख भाषा के साम्राज्यवादियों के सिर पर तनी हुई लाठी है और इसके शब्द लोक-देवता के सिर से झड़ते हुए फूल के समान हैं. हालांकि, भोजपुरी की बात करने वाली यह किताब हिंदी में लिखी हुई है. मेरे हिसाब से अगर यह किताब भोजपुरी में लिखी गई होती तो शायद इस भाषा के साथ बेहतर न्याय होता.