किताब का नाम: द फर्स्ट नक्सल
लेखक: बप्पादित्य पॉल
पब्लिशर: सेज पब्लिकेशन
पृष्ठ: 249
कीमत: 413 रुपये
बीते कई वर्षों से हम सब नक्सल और माओवाद की बात करते आ रहे हैं. इन दो विचारधाराओं ने हमारे देश की आंतरिक सुरक्षा को कई बार ठेस पहुंचाई है. लेकिन पत्रकार बप्पादित्य पॉल की 'द फर्स्ट नक्सल' नाम की इस किताब में इस विचारधारा के उस पहलू से रू-ब-रू कराया गया है जो शायद हममें से हर कोई जानना चाहेगा. ये कहानी है नक्सल विचारधारा के संस्थापक कृष्ण कुमार सान्याल की जिनकी जिंदगी ने समाज को एक बड़ा संदेश देती है. इस किताब में कानू सान्याल की जिंदगी के कई अनछुए पहलूओं को बताया गया है.
इस किताब में नक्सल क्रांति के इतिहास को क्रमानुसार बताया गया है. लेखक ने इस किताब में हमें कानू सान्याल के उस विद्रोही बचपन के बारे में बताया है जब उनके मन में कम्यूनिज्म के खिलाफ नफरत पैदा हो गई थी. ये सब तब हुआ था जब सीपीआई ने नेताजी सुभाष चंद्र बोस की निंदा की और उन्हें 'गद्दार' घोषित कर दिया. ये किताब उस शख्सियत को बयान करती है जो अपने हिंसक चेहरे को छिपाने के लिए कम्यूनिस्ट बन गया.
इस किताब में लेखक ने कहानी की शुरूआत वहां से की है जब नक्सलबाड़ी में इसकी नींव रखी जा रही थी. ज्यादातर लोग ये जानते हैं कि नक्सल क्रांति की नींव कानू सान्याल और चारू मजूमदार ने रखी थी लेकिन इस किताब में ये साफ किया गया है कि इन सबके के पीछे असल हीरो कानू सान्याल ही थे. बकौल लेखक कानू सान्याल और चारू मजूमदार के बीच बहुत ही गंभीर वैचरिक मतभेद थे. किताब में कानू की नेपाल के रास्ते चीन की यात्रा के बारे में भी बताया गया है जहां उनकी मुलाकात माओ से हुई थी.
लगातार यात्रा कि वजह से कानू की सेहत खराब रहने लगी. इस बीच वो कई बीमारियों से घिर गए और साल 2008 ब्रेन हैमरेज के बाद उनकी हालत और भी खराब हो गई. लेकिन कानू ने खराब तबियत के बीच भी गरीबों की मदद करना जारी रखा. साल 2010 में अपने कमरे में कानू मृत पाए गए. उस वक्त वो बिल्कुल अकेले थे. जिस कमरे में उनकी मौत हुई थी वहां लेनिन, स्टालिन और माओ की तस्वीर लगी हुई थी. लेखक ने उन्हें ऐसा विद्रोही बताया है जो कभी अपने घर वापस लौट कर नहीं गया.