किताब: द पैराडॉक्स ऑफ इंडियाज नॉर्थ-साउथ डिवाइड
लेखक: सैमुअल पॉल, कला सीताराम श्रीधर
प्रकाशक: सेज
आजादी के 60 साल से ज्यादा वक्त के बाद भी उत्तर भारत वैसी प्रगति नहीं कर पाया, जैसी दक्षिण भारत ने की. अगर यह विमर्श आपके भीतर जिज्ञासा जगाता है तो आपको 'द पैराडॉक्स ऑफ इंडियाज नॉर्थ-साउथ डिवाइड' किताब अच्छी लगेगी. आज लाखों उत्तर भारतीय चेन्नई, बंगलुरु और हैदराबाद में रोजगार तलाशने को क्यों मजबूर हैं, इस सवाल का जवाब आपको इस किताब में मिलेगा.
जैसा कि किताब के शीर्षक से भी स्पष्ट है, यह उत्तर और दक्षिण भारत के बीच सारे विरोधाभासों को समझाती है. अच्छी बात यह है कि लेखक ने विचार में बहे बिना तथ्यों पर जोर दिया है और तार्किक ढंग से बात समझाने की कोशिश की है. किताब में संकलित डाटा-बेस लेखक की ओर से किए गए अथक प्रयासों को भी रेखांकित करता है.
लेखक ने अपने अनुसंधान से पहले उत्तर और दक्षिण भारत के विकास और विसंगतियों को लेकर लिखे गए लगभग हर साहित्य की समीक्षा भी की है, जिसकी मदद से कई अनसुलझे सवालों का जवाब देने की कोशिश की है.
तुलनात्मक अध्ययन
लेखक ने आपनी बात कहने के लिए तुलना का सहारा लिया है. उत्तर भारत और दक्षिण भारत के दो सबसे महत्वपूर्ण राज्यों को केंद्र में रखा गया है. दक्षिण भारत से तमिलनाड़ु और उत्तर भारत से उत्तर प्रदेश का चयन लेखक ने किया है. शासन व्यवस्था को लेकर उत्तर प्रदेश को 1954 तक देश का सबसे उन्नत राज्य बताया गया है. किताब खत्म होने तक आपको बीमारू (B- बिहार, M- मध्य प्रदेश, R- राजिस्थान, U- उत्तर प्रदेश) राज्यों की हालत की अल्ट्रासाउंड रिपोर्ट मिल जायेगी.
तमिलनाडु और उत्तर प्रदेश
अगर तमिलनाडु और उत्तर प्रदेश को लेखक की लेखनी का केंद्र बिदु कहें तो गलत नहीं होगा. लेखक ने अपनी ऊर्जा सबसे ज्यादा इन्ही दोनों राज्यों पर खर्च की है. आकड़ों की कमी के बावजूद मानव जीवन के महत्त्व के हर पहलू की गणनात्मक और व्याख्यात्मक चर्चा की गई है. उत्तर प्रदेश और तमिलनाडु आजादी के बाद लगभग समान छोर से अपनी यात्रा शुरु करते हैं. बल्कि उत्तर प्रदेश पॉलिसी के मामले में कहीं बेहतर नजर आता है. वहीं यात्रा की शुरुआत में तमिलनाडु के पास बेहतर अंग्रेजी शिक्षा का आधार उसे उत्तर प्रदेश से थोड़ा आगे ही रखता है.
लेखक अपनी अनुसंधानात्मक लेखनी से कुछ ऐसे जोरदार पृष्ठभूमि बनाने में सफल होता है कि आपको इन दोनों राज्यों की विकास यात्रा का रोमांच महसूस करने लगते हैं. लेखक जोर देते हुए कहता है कि अब तक हुए कई और अध्ययनों में राजनीति को इतना महत्व नहीं दिया गया है जबकि राजनीति मानव पर प्रकृति के बाद सबसे ज्यादा प्रभाव डालती है.
पॉलिसी और कानून दोनों पर राजनीतिज्ञों का सर्वाधिकार रहा है. लेखक राजनितिक परिप्रेक्ष्य में अपनी बात इस प्रश्न से शुरु करता है कि आखिर क्या कारण रहे कि सबसे ज्यादा प्रधानमंत्री देने वाला उत्तर प्रदेश अब तक बीमारू राज्य की श्रेणी में आता है. दूसरी तरफ केरल और तमिलनाडु ने एक प्रधानमंत्री तो छोड़िये इतनी संख्या में कभी मंत्री भी नहीं देखे जितने अमूमन उत्तर प्रदेश से होते हैं.
सरकार की भूल?
अगर बिना कुछ बताए आपको 5 लीटर दूध रोज पीने को दिया जाये तो इसके क्या परिणाम हो सकते है? पहला, आपका हजमा बिगड़ सकता है. दूसरा अगर आपको दूध के फायदे नहीं पता तो आप उसे नहीं पियेंगे. ऐसी हर हालत में जिसने भी आपको 5 लीटर दूध दिया उसका उद्देश्य अधूरा ही रह गया और 5 लीटर दूध बर्बाद हो गया.
हमारी सरकार भी ऐसी ही गलती करती है. हमारे देश में पॉलिसी नीति आयोग के भवन में बनती है या किसी राज्य के केन्द्रीय सचिवालय में. फिर ऐसी पॉलसियों को जनता के कल्याण के लिए जारी कर दिया जाता है. कई बार तो ऐसा भी देखने को मिला कि खुद सरकारी मुलाजिमों को पॉलसी समझने में दिक्कत का सामना करना पड़ा है. ऐसे में लेखक बतलाता है कि वो जनता जो 29 रुपये से भी कम में गुजारा करती हो उसे कैसे समझ में आएगा? लेखक ने उत्तर प्रदेश के पिछड़ेपन में इसे बड़ा फैक्टर माना है. उत्तर प्रदेश में नीतियों की संख्या हमेशा तमिलनाडु से ज्यादा रही है. पर फिर भी कोई कारगर परिणाम नहीं मिल पाया.
दूसरा बीमारू राज्यों ने ह्यूमन रिसोर्स में निवेश करने में हमेशा आनाकानी दिखाई है दूसरी तरफ दक्षिण भारत के प्रदेशों ने खासकर केरल ने ह्यूमन रिसोर्स में जमकर निवेश किया, जिसका उन्हें परिणाम ये मिला कि जनता शासन से सवाल पूछने लगी और जीवन के हर पहलू को पर गौर देने लगी. यही वजह है कि केरल मानव विकास के वैश्विक पैमाने पर पूरे भारत के औसत से कहीं आगे है.
सामजिक चेतना कितनी जरुरी?
लेखक ने दक्षिण के विकास में सामाजिक चेतना का बहुत बड़ा योगदान माना है. लेखक ने प्रश्न किया है कि उत्तर प्रदेश में बहुजन समाजवादी जैसी शक्तिशाली पार्टी होने बावजूद उत्तर प्रदेश के अनुसूचित जाति की हालत में कुछ ज्यादा सुधार नहीं हुआ. वहीं तमिलनाडु सहित अन्य दक्षिण भारतीय राज्यों में ऐसी कोई राजनीतिक पार्टी ना होने के बाद भी वहां हालत लाख गुना बेहतर हैं.
इस प्रश्न के उत्तर के लिए आपको लेखक की बात सुननी पड़ेगी जो वह किताब में बेबाकी से बतलाता है.
1991 का कितना लाभ
क्या आप जानते हैं कि साल 2000 से 2006 तक तमिलनाडु में कुल 85 अरब डॉलर का निवेश हुआ वहीं उत्तर प्रदेश महज 15 करोड़ का निवेश ही आकर्षित पाया? लेखक उत्तर भारत को 1991 के उदारीकरण का लाभ लेने में असफल मानता है. कहानी में उदारीकरण सबसे बड़ा ट्विस्ट है. जब आपके पसंदीदा फिल्म-स्टार की फिल्म सिनेमा हॉल में लगती है तब आप किसी
भी हालत में फिल्म की स्टोरी नहीं जानना चाहते है. ठीक वैसे ही मैं इस
किताब को आपके अनुभवों के लिए सुरक्षित रख देना चाहता हूं. पर मानव जीवन पर
साहित्य की छाप 'कला' की वो परछाई है जिसे कोई कितना भी मिटाना चाहे नहीं
मिटा सकता. बाकी कहानी के लिए आप खुद को किताब के हवाले कर दीजिए.