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बुक रिव्यू: उजली नगरी और चतुर राजा का किस्सा

यशस्वी कथाकार मन्नू भंडारी ने इस नाटक में उजास और चतुराई जैसे सकारात्मक समझे जाने वाले शब्दों का एक नया मतलब गढ़ा है.

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book review
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किताबः उजली नगरी चतुर राजा
लेखिका:
मन्नू भंडारी
पब्लिशरः
राधाकृष्ण प्रकाशन
कीमतः
195 रुपये

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किताब का शीर्षक पढ़ने के साथ ही आपको भारतेंदु हरिश्चंद्र के कालजयी नाटक अंधेर नगरी चौपट राजा  का स्मरण हो आएगा. पर उस नाटक को संदर्भ के तौर पर इस्तेमाल कर लेखिका ने मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था पर व्यंग्य किया है.

मन्नू भंडारी के इस नाटक की प्रेरणा वे राजनीतिक घटनाएं हैं जिन्होंने हाल के दिनों में हमें सबसे ज्यादा प्रभावित किया. शुरुआती पन्नों में उन्होंने उन घटनाक्रमों का जिक्र किया है जिनसे प्रभावित होकर उन्होंने ये नाटक लिखने का फैसला किया. वह चाहे अन्ना हजारे का अनशन पर बैठना हो, जनलोकपाल की मांग हो या फिर निर्भया कांड. ये तमाम घटनाक्रम ही इस नाटक के जनक हैं.

नाटक के मूल में हम और हमारा लोकतंत्र है. नाटक की शुरुआत 'स्वामी जी' के प्रवेश से होती है जो एक बार फिर कथा सुनाने आए हैं. 'स्वामी जी' ने इससे पहले 'अंधेर नगरी चौपट राजा' का किस्सा सुनाया था लेकिन इस बार शीर्षक बिल्कुल उलट है, 'उजली नगरी चतुर राजा'. वह कथा की शुरुआत में ही कह देते हैं कि इस बार वह अंधेर नगरी नहीं, उजली नगरी की कथा सुनाएंगे. नगरी ऐसी कि सब तरफ से झरे उजास. दाएं-बाएं, ऊपर...पर यहां नीचे की बात करना मना है.

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नाटक में चुनाव के महत्व को भरपूर स्थान दिया गया है. एक जगह सूत्रधार कहता है:

कहने को चाहे वो राजा कहलाता/पर बिन चुनाव जीते, गद्दी पर वह बैठ न पाता.

मन्नू भंडारी ने राजनीतिक पार्टियों के चुनाव चिह्न को लेकर जबरदस्त कटाक्ष किया है. नाटक में तीन पार्टियां है, एक का निशान उल्लू है, दूसरे का बंदर और तीसरे का चूहा.

यहां भी वही होता है जो हम सालों से देखते आ रहे हैं. चुनाव की रेलमपेल, भाषणों का पिटारा और जनता को चने के झाड़ पर बिठा दिया जाना. उल्लू पार्टी चुनाव जीत जाती है. यहीं से शुरू होता है वो लोकतंत्र जिसके वंशवाद, भ्रष्टाचार, घूसखोरी, जमाखोरी, अन्याय, क्रूरता और हिंसा पर्याय बन चुके है.

पर मन्नू भंडारी भारतीय पाठकों को बेहतर तरीके से समझती हैं. इसलिए पूरे नाटक में इन तमाम बातों को तरह-तरह से पेश करने के बाद, अंत उन्होंने जनांदोलन से ही किया है. नाटक को इस उम्मीद पर छोड़ा गया है, जहां से लोकतंत्र की एक नई और मुकम्मल परिभाषा गढ़ी जा सकती है.

नाटक के आखिरी सीन में राजा का कोतवाल जनता की पर्ची पढ़कर सुनाता है जिसमें लिखा है:

न करेगा अब कोई फरियाद
न फैलाएगा राजा के आगे हाथ
जो अधिकार हमारे हैं, उन्हें तो हम लेके रहेंगे
न दिखाओ कोई अपना दुख
न दिखाओ कोई गम
दिखला दो राजा को कि
राजा की असली ताकत तो हैं हम.

क्यों पढ़े
कथ्य इतना सहज और आस-पास का है कि लेखिका की रचनात्मकता का नतीजा नहीं लगता. आपको लगेगा आप वही सब पढ़ रहे हैं जो आपके इर्द-गिर्द रोज घट रहा है. अगर आपके मन में नाटक के पात्रों का स्थान असल जीवन के राजा, बड़े मंत्री, छोटे मंत्री, खजांची और कोतवाल ले लेंगे, तो हर घटनाक्रम और साफ-साफ समझ में आएगा.

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नाटक में महिलाओं की इज्जत, बिजली के बढ़े दाम, महंगाई, पानी का बिल, नौकरी के लिए घूसखोरी, जमीन का आवंटन जैसे वो तमाम मुद्दे हैं जिनसे आज की जनता जूझ रही है.

नाटक में जब किसी पर जुल्म होने का वृतांत आपके आगे से गुजरेगा तो आपको वह अपनी ही व्यथा लगेगी. लेखिका ने इस नाटक में उजास और चतुराई जैसे सकारात्मक शब्दों का एक अलग मतलब गढ़ा है.

क्यों न पढ़ें
अगर आपको ये लगता है कि आपको केवल उन्हीं किताबों को पढ़ना चाहिए जो मनोरंजन करें तो शायद ये किताब आपको पसंद न आए. नाटक एक कटाक्ष है और हमारे समाज के उस घिनौने चेहरे को दिखाने का प्रयास है जिससे त्रस्त तो हम सभी है लेकिन मजबूरी में इसे अपनी आदत बना लिया है.

लेखिका के बारे में
यशस्वी कथाकार मन्नू भंडारी को उनके अत्यंत चर्चित उपन्यास महाभोज के लिए खासतौर पर जाना जाता है. लेखन का संस्कार उन्हें उनके पिता सुखसम्पतराय भंडारी से मिला. वे दिल्ली विश्वविद्यालय के मिरांडा हाउस में हिंदी की प्राध्यापिका के तौर पर काम भी कर चुकी है. इसके अलावा विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन में प्रेमचंद सृजनपीठ की अध्यक्ष भी रहीं हैं.

महाभोज, आपका बंटी, एक इंच मुस्कान और संपूर्ण उपन्यास उनकी प्रकाशित कृतियां हैं. इसके अलावा 'त्रिशंकु', 'यही सच है', 'मैं हार गई', 'एक प्लेट सैलाब', 'तीन निगाहों की एक तस्वीर' उनके प्रमुख कहानी संग्रह हैं. 'एक कहानी यह भी' उनकी आत्मकथा है.

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