किताब: प्लूटो
शायर: गुलजार
प्रकाशक: वाणी प्रकाशन
कीमत: 300 रुपये
चेसिस की तारीख़ पूछ लो
कब की मैन्युफैक्चर है वो
वरना अकसर ठग लेते हैं गाड़ियां बेचने वाले!
मेरी चेसिस की तारीख़
अट्ठारह अगस्त उन्नीस सौ चौंतीस है!!
गुलज़ार की किसी किताब के पहले पन्ने पर इससे बेहतर और क्या लिखा हो सकता था. कोई चाहे तो इसे उनके जन्मदिन की सूचना भर मान ले, और चाहे तो उम्र और तजुर्बे के रिश्ते पर तफसील से सोचने बैठ जाए. यह सही है कि कई बार गुलज़ार का भाषाई पक्ष ही इतना आकर्षित कर देता है कि कथ्य से एकबारगी ध्यान छूट जाए. चांद के नंगे पांव आऩे को साहित्यिक मनोरंजन बताने वाले लोग भी कम नहीं हैं. इसके बावजूद गुलजार को अपनी लेखनी का यथार्थ से रिश्ता साबित करने अलग से जरूरत नहीं है.
सब जानते हैं कि गुलज़ार ख़ालिस इंसानी अनुभवों को लफ्ज़ों की तश्तरी के सहारे बरसों से हमारी ओर सरकाते चले आ रहे हैं. तब से, जब वह ख़ुद शोख हुआ करते थे. अगर आपको गुलजार का लिखा कुछ भी पसंद है, तो उनकी नई नज़्मों की किताब ‘प्लूटो’ शर्तिया पसंद आएगी. बेहिचक पढ़ें, आपकी पसंद में इजाफा होगा. नज़्में नई हैं, पर एहसास हमेशा की तरह ताज़ातरीन हैं.
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उनका लिखा यूं ही किसी महफिल में उछाल दिया जाए तो उन्हें जानने वाले अंदाज़ा लगा लेंगे कि यह गुलज़ार ही रहे होंगे. यानी नज़्मों की विधा में शिल्प का एक सिग्नेचर उन्होंने गढ़ा है. इसके बावजूद एहसासों के स्तर पर वह हर बार चौंका देते हैं. 'प्लूटो' में यह बात बार-बार महसूस होती है.
चांद की ‘स्लेट’ पे लिखते लिखते
जब उंगली घिस जाती है
आंख के ‘लेज़र’ से मैं बाक़ी ख़त लिखता हूं
गुलज़ार की नज़्मों में अनिवार्य रूप से हर बार नए एलीमेंट जुड़ते हैं. उनके किरदार, माहौल और लफ्ज़ आपकी आधुनिक ज़िंदग़ी से क़दमताल करते हुए-से हैं. फिर भी अंत में चीज़ें पीढ़ी-दर-पीढ़ी ‘हैंडओवर’ किए जा रहे उन्हीं शाश्वत एहसासों से जुड़ी निकलती हैं. एक जगह वह लिखते हैं-
मैं ‘लॉस्ट एंड फाउंड’ के काउंटर पे आया था,
जहां फ्लाइट में खोई चीज़ों की तफसील लिखते हैं!
वो अफसर हंस दिया, जब मैंने पूछा था-
‘अगर मैं नाम लिख दूं सिर्फ? या तस्वीर दे दूं तो?’
वो अफसर हंस दिया लेकिन...
मेरी आंखों के कोरों में रखे आंसू नहीं देखे!!
जिस साहस से वह आंखों को बेनूर से ‘लैंसेज’ कहते हैं उसी हिम्मत से मौत को सीधा और सहल बनाकर चौंका देते हैं.
आंखें बंद करके सो गईं
और मर गईं
उसके बाद उसने सांस भी न ली
एक लंबी, हादसात से भरी
पेचदार जिंदग़ी के बाद
कितनी सीधी और सहल-सी मौत थी!!
इक नज़्म पढ़कर यह महसूस हुआ कि गुलज़ार के रडार की फ्रीक्वेंसी इतनी मजबूत है कि उलझाव और अधूरेपन के असर को भी
पकड़ लेती है और उनके लफ़्ज़ इतने ताक़तर, कि उसे अंगूठे से खोदी गई ज़मीन, नाक से पोंछी गई सिसकी और गर्दन पर डाल
दिए गए कंधे से बयां कर डालते हैं.
‘उस से कहना’
इतना कहा....और फिर गर्दन नीची करके
देर तलक वो पैर के अंगूठे से मिट्टी खोद खोद के
बात का कोई बीज था शायद, ढूंढ रही थी
देर तलक खामोश रही...
नाक से सिसकी पोंछ के आख़िर
गर्धन को कंधे पर डाल के वो बोली,
‘बस...इतना कह देना!’
‘प्लूटो’ में जिस भरोसे से कही गई इश्क़ की बात है, उसी हिम्मत से किए गए सोशल-पॉलिटिकल कमेंट हैं. उनकी नज़्म में वे किसान भी हैं जो क़र्ज की मिट्टी चबाते हुए खुदकुशी कर बैठते हैं. एक जगह वह लिखते हैं
उसने जाने क्यों अपने दाएं कंधे पर
नील गाय का इक टैटू गुदवाया था
मर जाता कल दंगों में
अच्छे लोग थे..
गाय देख के छोड़ दिया!!
आप पूछेंगे कि किताब का नाम ‘प्लूटो’ क्यों. तो प्लूटो उनकी एक नज़्म का नाम है. जो मैं अभी आपको नहीं पढ़वाऊंगा, किताब
में पढ़िएगा. 4 से 10 लाइन की करीब 100 नज्में किताब में हैं.
हां, कभी किसी फंक्शन में गुलज़ार मिल जाएं और आपसे चेसिस की तारीख़ पूछने लगें तो चौंकिएगा मत. मुस्कुराते हुए अपना बर्थडे बता दीजिएगा.
आख़िर में हार्ट अटैक का वह मतलब, जो गुलज़ार ने बताया.
उसने अचानक हाथ पकड़कर इतना कहा मुझसे
बाएं तरफ इक पतली गली है, आओ निकल चलते हैं
मैं उस से नावाक़िफ़ था,
कोई तआर्रुफ़ पूछता, उससे पहले उसने
मेरा नाम लिया और भीड़ से खींच लिया!
हाथ ही छूट गया वरना...
दिल का पहला दौरा ऐसा बुरा नहीं था!!