किताबः रेवा पार से (कविता संग्रह)
कवयित्रीः स्वाति पांडे नलावडे
प्रकाशकः हिन्द युग्म
मूल्यः 150 रुपये
नदी इठलाती है.. नदी गुनगुनाती है... नदियां हैं तो हम हैं... नदियां सदियों की कहानी कहती हैं. हर आदमी के मन में एक नदी है. किसी की सूखी, तो किसी की तरल है, लेकिन स्वाति पांडे नलावाडे की कविताएं ये भरोसा दिलाती हैं कि कम से उनके अंदर जो नदी बह रही है, वो तरल तो है ही पूरी रवानी के साथ बह रही है.
'रेवा पार से' आम कविता संग्रह नहीं, बल्कि यूं कहें एक महिला का दस्तावेज है. अपने वक्त को बारीकी से टटोलता, रिश्तों का पोस्टमार्टम करता, सच को तलाशता संग्रह... कविताएं, कभी कवयित्री के मन के गुबार को प्रकट करती हैं, तो कभी प्रेम से पगे बुलबुलों की तरह फूटती हैं. इसमें नर्मदा का सौंदर्य भी है और इसी नर्मदा के शोख चुलबुलाते रूप का अक्स यानी रेवा का सलोनापन भी है, लेकिन जैसे नदी की तलाश अंतहीन होती है, वो किनारा तोड़कर समुद्र से मिलने को बेताब रहती है.
वैसी ही एक अधूरी सी तलाश स्वाति की कविताओं में भी दिखती है, लेकिन ये तलाश शायद हर स्त्री या यूं कहें हर चेतनशील व्यक्ति के मन की तलाश है, जो कभी सेमल के पेड़ पर अटकी रात में प्रकट होती है, तो कभी अपना पता दूसरे के दिल में तलाशती है. कहते हैं साहित्य में कविता सबसे प्रौढ़ विधा है, लेकिन भाव के स्तर पर सबसे ज्यादा कैशोर्य इसी विधा में है ये भी सच है.
ऐसे में नदी से विछोह का दर्द खूब झलकता है जब 'रेवा पार से' वो कातर पुकार लगाती हैं. शायद वो मन के अंदर तलाश की ललक ही जो कवयित्री को कभी धुंधलाती शामों का जिक्र करने पर मजबूर कर देता है, तो कभी बादलों के पीछे भटकने को, जो भी हो पर ये तय है कि इन कविताओं में छिपी गहरी उदासी के पीछे उम्मीद की किरणें हैं.
स्वाति पांडे नलावडे का ये पहला कविता संग्रह भी उम्मीद जगाता है. उम्मीद कविताओं में छिपे अनगढ़ सौंदर्य के तराशे जाने का, ताकि अगली किताबों में और सुघड़ तरीके से वो निखर सके और जैसा कि 'खुद आने दो रोशनी..' कविता में वो लिखती हैं.
दोस्त!
उठो, चलते रहो
नए रास्ते तलाशो
क्योंकि
बहारें फिर भी आएंगी
तो उम्मीद कीजिए नई बहार का क्योंकि दुनिया उम्मीद पर ही तो टिकी है और कविताएं तो उम्मीद का ही गीत होती हैं... क्यों है ना!