किताबः द हीट एंड डस्ट प्रोजेक्ट- द ब्रोक कपल्स गाइड टु भारत
राइटरः देवप्रिया रॉय और सौरव झा
पब्लिशरः हार्पर कॉलिन्स
कीमतः 250 रुपये (पेपरबैक एडिशन)
दो तरह के लोग. एक, जो है जैसा है, उसी में मगन. मगन भी नहीं. गले तक डूबे और उलझे. सुध-बुध बिसार काठी घसीटने में लगे. दूसरे वे जो जानना चाहते हैं कि क्या है ये सब. दुनिया, जिंदगी, लोग, रिश्ते. मगर इस दूसरे तरह के लोग भी दो कोष्ठकों में बंटे हैं. एक, जो पोथी पढ़-पढ़ जग बिचारते हैं. ये ज्ञानी कहलाते हैं. दूसरे वे जो पोथी किनारे रख और हौसले को पोटली में बांध जग में बिचरते हैं. इन्हें मनमौजी, फक्कड़, समझदार, जोगी, संत कहते हैं. ऐसे ही दो घुमंतू जोगियों का रोजनामचा है 'द हीट एंड डस्ट प्रोजेक्ट'.
देवप्रिया रॉय और सौरव झा पति पत्नी, कामकाजी कपल. दिल्ली के दक्षिणी कोने में रहते. सुबह से शाम तक गृहस्थी के लिए ईंधन बटोरते. जाने-अनजाने इस ईंधन में उनके अपने सपने भी औने पौने दामों पर जल रहे थे. फिर एक रोज उन्होंने एक कड़ा कड़वा सा दिखता फैसला किया. सब सामान बांधा और ट्रक पर लाद कलकत्ता भेज दिया. पास रखे कुछ झोले, जिन्हें सफर की जुबान में बैकपैक कहते हैं और निकल पड़े 100 रोज के लिए देश खोजने. एक अनोखी जबर शर्त के साथ, कि चाहे कुछ हो जाए एक दिन में 500 रुपइया से ज्यादा खर्च नहीं करेंगे.
और इस तरह शुरू हुआ एक किफायती, मगर कीमती सफर. पहला पड़ाव राजस्थान. रोडवेज की बस में ही भारज टैद इज इंडिया नजर आने लगा. यहां भांति भांति के लोग मिलते. लड़ते, झगड़ते, सलाह देते, लेते, बोलते, सुनते. और ये सिलसिला पड़ावों पर भी बदस्तूर जारी रहता. हर गेस्ट हाउस में तोल मोल होती. फिर हर शहर को कदमों से नापा जाता.
और ये सब हमें कैसे पता चलता. एस और डी के लिखे से. डी यानी देवप्रिया और एस यानी सौरव. दोनों एक दूसरे का जिक्र इसी तरह से करते. सौरव, पेशे से राइटर. डिफेंस के मसलों पर लिखने वाला जीव. जिसे बीच सड़क पर सैनिकों के साथ सफर करती तोप ब्यूटिफुल नजर आती है. और डी, अपने ह्यूमर, जरूरतों, नजरियों के साथ पूरी दूनिया की गिरह खोलती और बांधती. दोनों एक ही जगह पर लिखते. मगर बहुत अलग. पर कुल मिलाकर दो निगाहों की एक तस्वीर बन जाती. एस का लिखा अमूमन फुटनोट की तरह होता. मुख्य कथ्य डी की कलम से ही आया. खूब आया.
दोनों राजस्थान गए. फिर गुजरात गए. कभी इजराइली युवा सैलानियों से मिले, तो कभी पुराने दोस्तों से. इस बहाने इनके अपने जीवन के तमाम दर्शन भी प्रकट हुए. फिर डी के एडमिशन के झाम में दोनों को बीच सफर दिल्ली लौटना पड़ा. यहां वाया पहाड़गंज एक नई राजधानी नजर आई. अभी ये सफर जारी है. यानी अगली किस्त अगली किताब में आएगी.
क्यों पढ़ें
फिलहाल जो है, वो कम खर्चे में खर्च हुए बिना जीवन को भरपूर कैसे जिएं, इसका एक जिंदा दस्तावेज है. इस किताब को जरूर पढ़ना चाहिए. उन सबको जो अपने कमरों में नक्शे टांगकर उन पर बिंदी या कीलें गाड़ते हैं. इस मंसूबे के साथ कि हम ग्लोब को पइंया-पइंया नापेंगे. उनके लिए जो अनजाने मेलों पर अजनबियों के बीच अमरत्व को पाना चाहते हैं. उनके लिए जो सफर में एक दूसरे के साथ के नए मतलब समझना चाहते हैं और उनके लिए भी जो इस रंगरेज देश को करीब से धड़कते देखना चाहते हैं. अपने सारे घिनापन और सुंदरता के साथ.
ये सब मुमकिन है. बशर्ते आपको पसीने और धूल से दिक्कत न हो. और इसकी शुरुआत इस किताब को पढ़कर की जा सकती है. ये किताब एक कमी भी पूरा करती है. भारत में अच्छा ट्रैवल लिटरेचर कम ही लिखा जाता है. मेरी अपनी कम समझ में जो पिछली किताब ध्यान आती है. वह है पंकज मिश्रा की बटर चिकन इन लुधियाना. उसने भी जीवन को खूब पेचोखम के साथ पेश किया था. और अब ये आई है. उम्मीद है कि सिलसिला और चलेगा.