विश्व कैंसर दिवस का मकसद ही लोगों को इस बीमारी को लेकर जागरूक करना है. अनन्या मुखर्जी ने ब्रैस्ट कैंसर से जूझने के दिनों में एक डायरी लिखी थी. डायरी के ये पन्ने कैंसर की लड़ाई में उनके साथी रहे. अपनी मौत से ठीक 18 दिन पहले प्रकाशक को इसकी पांडुलिपि सौंपी थी, जो अंग्रेजी में 'टेल्स फ्रॉम द टेल एंड: माय कैंसर डायरी' नाम से छपी. हिंदी में इसे राजकमल प्रकाशन ने ‘ठहरती साँसों के सिरहाने से: जब ज़िन्दगी मौज ले रही थी' नाम से छापा.
यह किताब कैंसर मरीजों के लिए कैंसर की अंधेरी लड़ाई में एक रोशनी की तरह है. उम्मीद है, हिम्मत है. विश्व कैंसर दिवस पर पढ़िए अनन्या मुखर्जी के जीवन के उन्हीं दिनों के संघर्ष और सपनों की कहानी. उनकी डायरी का अंशः
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योलो
भारी-भरकम आवाज़ वाली मेरी एक दोस्त रविवार की एक सुबह मुझसे मिलने आ जाती है और मुझ से कहती है कि ‘योलो’ आजकल चलन में है. मैं उसकी ओर असमंजस से देखती हूँ. वह चिल्ला कर कहती है- अरे, तुम्हें ‘योलो’ नहीं पता? इतवार की सुबह पेड़ पर उनींदी बैठी चिडि़या फुर्र से उड़ जाती है. कुत्ता चिहुँक के पूँछ ऊँची कर लेता है और गर्मागर्म चाय मेरी गोद में छलक जाती है, इन सबसे बेख़बर वह बताती है, " ‘योलो’ का मतलब है 'यू ओनली लिव वन्स' आपको जीवन बस एक बार मिलता है. इसलिए तुम्हें ज़िन्दगी को किंग साइज़ में जीना चाहिए, जो अच्छा लगे वह करो और कोई पछतावा मत रखो.''
अपने नए-नए ज्ञान से समृद्ध मैं अपने साथी को भी टेस्ट करना चाहती हूँ- ठीक अपनी दोस्त की तरह. एक प्यारी-सी शाम थी और पति टैरेस पर बीन बैग पर विराजमान थे. आँखें मूँदे, धीरे-धीरे पेट थपथपाते हुए. मैं उनके कान में चिल्लाती हूँ ‘योलो’. वे मुझे हिक़ारत की नजर से देखते हैं और अपनी सीट कुछ आगे खिसका लेते हैं.
कैंसर के चलते मैं इस बात पर एकाग्र होकर सोचती हूँ कि मैंने अपनी ज़िंदगी ठीक से जी कि नहीं. मैंने अपना जीवन ‘योलो’ जिया या नहीं. पाती हूँ कि मैंने सदा अपने निर्णय स्वयं लिए, जीवन को जैसे चाहा वैसे जिया, अनेक गलतियाँ कीं और सब स्वेच्छा से किया. मुझे सदा सब कुछ गुजर जाने के बाद ही बुद्धि आई. सबसे बढ़िया बात तो यह है कि मैंने कभी किसी और को दोषी नहीं ठहराया, जो भी परिणाम आए उन पर मैं अपने प्रति काफ़ी दया, स्नेह और क्षमा भाव से भरी रही. बस, मुझे यही पछतावा रहा कि जैसी थी वैसी बनी रही. पता नहीं कि मैं इस यायावरी की प्रतिलिपियाँ हुआ करती थी. बटर पेपर पर बनी हुई, सहेज कर रोल की हुई और लॉकर्स में सुरक्षित. तीस साल की उम्र तक अच्छी नौकरी और अच्छे रिश्तों से युक्त सधी ज़िन्दगी. पैंतीस वर्षों में स्वयं का घर. चालीस से पहले बच्चे, पौधे और पालतू जानवर. उनकी दसवीं वर्षगाँठ के थ्री टियर केक की फोटो टीवी के पीछे वाली नीली दीवार पर जहाँ सब उसे देख सकें.
इस ढर्रे में खप सकने का अरमान होने पर भी मुझे जल्दी ही पता चल गया था कि मैं यायावर हूँ, ठहराव से मेरी आत्मा घुटती थी. रोज़मर्रा की ज़िन्दगी मुझे उबा देती थी. यायावर बडे़ दिलचस्प लोग होते हैं और वे आपको अपने साथ बहा कर नई दुनिया में ले जा सकते हैं. उनका साथ उत्तेजक, चुनौतीपूर्ण होता है- गो कि कभी-कभी लगता है वे डूब जाएँगे पर ऐसा कम ही होता है. हाँ, उनमें एक कमी होती है, वह टिक कर नहीं रह सकते. वे बटर पेपर पर प्रतिलिपि बना कर उन्हें चिरन्तन काल के लिए सुरक्षित नहीं रख सकते. बुरा न मानें पर उनमें स्थिरता नहीं होती, संचय करने की कला नहीं होती, उनके पास टिक कर मजबूती से एक जगह जमने की कला नहीं होती और न ही होते हैं थैला भर समझौते और दुनियावी निश्चिंतता.
कैंसर की कई कायाकल्प शक्तियाँ होती हैं. लगता है इस रोग ने मेरी आत्मा की चिरन्तन बेचैनी को ठीक कर दिया है. इसने मुझे टिकना सिखाया है. लंगर डाल कर. जकड़ कर रहना केकडे़ की तरह.
‘यह कैंसर का प्रभाव नहीं, लड़की, उम्र का असर है,’ पति अतिरिक्त टिप्पणी करते हैं.
चरित्रहीन
जब शुरू-शुरू में मेरे बाल झड़ने शुरू हुए, तो मैंने उसको स्वीकार कर लिया. गंजे सिर ही घूमती रहती थी. मुझे ध्यान रखना चाहिए था कि मैं कोई लीजा रे नहीं कि ये सब चल जाए. मैं उबले अण्डे जैसी दिखती. मुझे आस-पड़ोस की आंटियाँ दया की नजर से देखती हैं. रास्ते चलते लोग रुककर देखने लगते हैं. बच्चों को मैं भूत-सी नजर आती हूँ और वह पुरुष जो बातें करते समय मेरे वक्षस्थल को घूरते रहते थे, अब वक्ष के साथ मेरे गंजे सिर को देखने लगते हैं. मैं भी परेशान हो जाती हूँ. फिर मैं जाकर एक पाँच अंकों की कीमत वाला विग खरीदती हूँ जो इंसान के बालों से बना है. पति को बताते समय मुझे याद है कि मैंने उन्हें एक अंक घटा कर कीमत बताई. वह खुश नजर आए. उनकी दुनिया पुरानी-सी, परिचित और सस्ती चीजों वाली है. वैसी ही जैसे उनकी नाईट ड्रेस, घिसी हुई पीली पड़ चुकी सौ साल पुरानी है. अब क्योंकि ये इंसान के बालों वाली विग है, इसके नखरे भी हैं. कभी तो यह मेरे सिर पर फिट रहता है, जैसे यह प्राकृतिक ही हो. कभी प्लास्टिक विग की तरह मेरे कानों के पास से लटक जाता है. गर्मी में जब मैं अपने आपको कूल दिखा रही होती हूँ तो गले के पास यह खासा गर्म हो जाता है. उमस भरे मौसम में यह नए केक की तरह फूलकर ऊपर उठ जाता है.
जब मेरा मन खराब होता है तो मैं इसे खिड़की के पास एक हुक पर टाँग देती हूँ. जहाँ यह विग टँगा रहता है, जैसे कि बड़े शांत स्वभाव का हो. मेरे प्रति दया दिखाता हवा में झूलता हुआ या बाहरी दुनिया को हसरत भरी निगाहों से देखता रहता है. शायद किसी और गंजे सिर की कामना में. कोई और जो ज्यादा रोमांच दे सके, कोई गंजा फ़िल्मस्टार या ऐसा ही कोई और. अच्छा होने पर मैं फिर विग को सिर पर धारण कर लेती हैं ताकि दुनिया को ठीक दिखूँ. विग तो पहले-सा ही मुड़ा रहता है. बरसात में फिसलने लग जाता है. जब मैं बादलों को देखने के लिए सिर ऊपर करती हूँ तो मेरी विग का व्यवहार बड़ा जोखिम भरा होता है. मुझे यही डर लगता रहता है कि किसी दुश्मन की तरह यह सबके सामने मेरी पोल ही खोलकर रख देगा. खेर, ऐसा होता नहीं. जैसे ही मेरा इस पर विश्वास कुछ पक्का होता है बालों की दृष्टि से, तो किन्ही खास दिनों में यह अस्थिर हो जाता है. चाहे मैं इसे कितना भी पुचकारूँ, यह और विद्रोही बनता जाता है. मैं इसके सनकी स्वभाव से समझौता कर लेती हूँ.