क्रिकेट का धर्म, नस्ल, जाति या राष्ट्रवाद से क्या रिश्ता है? क्या वर्ग भेद के नजरिये से भी इस खेल को देखा जाना चाहिए? इस देश में जहां क्रिकेटरों की पूजा की जाती है, इस खेल के समाजशास्त्र का अध्ययन भी किया जाना चाहिए. ऐसी ही एक कोशिश मशहूर इतिहासकार और लेखक रामचंद्र गुहा ने की है. उन्होंने अपनी नई किताब 'विदेशी खेल अपने मैदान पर' में भारतीय क्रिकेट में नस्ल, धर्म, जाति और राष्ट्रवाद के असर को आंकने की कोशिश की है. साथ ही भारतीय क्रिकेट इतिहास के गुमनाम क्रिकेटरों के बारे में विस्तार से बात की है. इस किताब के कुछ अंश हम खास आपके लिए यहां रख रहे हैं:
क्रिकेट और सांप्रदायिकता: रामचंद्र गुहा
बंबई का वार्षिक क्रिकेट उत्सव, युद्ध की पृष्ठभूमि लिए खेल, धर्म और
राजनीति का सम्मिश्रण था. इसका अस्तित्व एक विचित्र विरोधाभास था-एक
कट्टर सांप्रदायिक प्रतियोगिता जो आधुनिक भारत के सबसे प्रगतिशील और
महानगरीय शहर में परवान चढ़ी थी. कोई भी अब उनकी गहरी भावना को
समझ सकता था जिन्होंने कड़वाहट से इसका विरोध किया था. भारतीय
राष्ट्रवादियों के लिए, बरेलवी या तलेयारखान के लिए क्रिकेट मैदान पर
सांप्रदायिक पहचान के ही स्वीकार ने साझी नागरिकता के विचार को भंग कर
दिया था, जिस का अर्थ था कि ‘और कुछ भी होने से पहले हम सभी भारतीय
हैं.’ पंचकोणीय क्रिकेट प्रतियोगिता के अस्तित्व ने समावेशी राष्ट्रवाद को अंगूठा
दिखा दिया जिसका महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू जैसे लोगों ने समर्थन
किया था, और जाति-धर्म के विभाजनों को बढ़ावा दिया. पहले यह बहस हुई कि
प्रतियोगिता की शुरुआत ही ब्रितानी फूट डालो और राज करो की नीति के लिए
थी और दूसरी दलील ये थी कि इसे जारी रखना पाकिस्तान की नाजायज़ परंतु
खतरनाक रूप से फैशनेबल मांग को बढ़ावा देता था.
प्रशासकों ने जानबूझकर सांप्रदायिक आधार पर खेल के संगठन को प्रोत्साहित किया था ऐसा विस्तृत रूप से माना जाता था. स्वतंत्रता की पूर्व संध्या को भारत का दौरा कर रहे एक अमेरिकन पत्रकार ने लिखा कि ब्रितानी फूट डालो और राज करो की नीति विद्यालयों में भी पहुंच गई थी - खेल में हिंदू टीम मुस्लिम टीम से लड़ रही थी और स्नातक होने के साथ यह प्रतियोगिता नौकरी के लिए प्रतिस्पर्धा बन जाती थी. स्वतंत्रता के फौरन बाद लिखे अपने एक लेख में पूना के जाने माने क्रिकेटर डीबी देवधर ने दावा किया कि भारत के उच्चतम क्रिकेट में सांप्रदायिकता की भावना सिर्फ ब्रिटिश अफसरों की ही वजह से आई क्योंकि शुरुआती दिनों में ये लोग भारतीयों से निपटते समय खुद को श्रेष्ठता की भावना से भरे रहते थे. भारत में ब्रितानी साम्राज्य की रक्षा के लिए आने वाले सभी ब्रितानी अधिकारियों को उच्च अधिकारियों ने कह रखा था कि मूलवासियों के साथ वो बहुत कम संपर्क रखें. इसलिए अंग्रेज़ों ने बंबई, कलकत्ता और मद्रास के तीन प्रांतीय शहरों में खास क्लब बना लिए. बाद में इनकी देखा देखी पूना और बैंगलोर जैसे दूसरे शहरों में भी क्लबों की स्थापना की गई. पारसी लोगों ने भी इस खेल को चुना और उन्होंने खेल के साथ साथ अंग्रेज़ों की पृथकतावादी प्रवृत्ति को भी ले लिया. एक तरफ अंग्रेज़ पारसियों को उनके पवित्र किलों में प्रवेश नहीं करने देते थे. इसलिए पारसियों ने विवशतापूर्वक अलग क्लब बना लिया. परंतु उन क्लबों में वे दूसरे भारतीयों को अनुमति दे सकते थे. दुर्भाग्यवश यह किया नहीं गया. परिणामस्वरूप हिंदुओं को भी वही रास्ता अपनाना पड़ा. और आखिर में मुसलमान भी यही रास्ता अपानने को बाध्य थे.
औपनिवेशिक क्लबों का जातिवाद साफ दिखता था. परंतु यह उद्धरण यह भी सुझाता है कि हिंदू सांप्रदायिक क्रिकेट में खुद शामिल होने के इच्छुक होने की बजाए पीड़ित व्यक्ति थे. जबकि वह एक पूर्वव्यापी सोच लगती थी जिस पर शायद 1920 से गांधी और उनके जैसों द्वारा प्रोत्साहित सम्मिलित राष्ट्रवाद का प्रभाव था. यदि ब्रितानी अलग थे तो इसी प्रकार हिंदू समाज भी अपने धार्मिक दायरों के चलते जातियों और उप जातियों के बीच बंटा हुआ था. वास्तव में 19वीं शताब्दी के आखिर के भारत में क्रिकेट क्लबों ने खुद को जाति के आधार पर व्यवस्थित कर लिया था. शासकों ने शायद सोचा होगा कि चतुष्कोणीय क्रिकेट प्रतियोगिता का स्वरूप भारत के लिए स्वाभाविक होगा लेकिन वे इसे बिना सहायता के अस्तित्व में नहीं लेकर आ रहे थे. सांप्रदायिक क्रिकेट में जितने हिंदू जाति के पूर्वाग्रह थे उतना ही पारसियों का सामाजिक दंभ, मुसलमानों की सांस्कृतिक मानसिक संकीर्णता और अंग्रेज़ों की जातीय प्रधानता भी.
यदि चतुष्कोणीय प्रतियोगिता के जन्म के मूल में पूर्णतया ब्रिटिश सरकार की फूट डालो राज करो की नीति न भी रही हो तो इसकी निरंतरता के बारे में क्या? क्या 1930 और 1940 में प्रतियोगिता की बढ़ रही लोकप्रियता ने पाकिस्तान के आंदोलन के लिए चारे का काम नहीं किया? और अधिक सटीक रूप से क्या सांप्रदायिक क्रिकेट ने सांप्रदायिक वैरभाव को पोषित और गहरा नहीं किया? खिलाड़ियों के अनुसार नही. दो सिंध के खिलाड़ियों ने जिनमें से एक हिंदू और एक अंग्रेज़ था कहा कि जो सोचता है कि सांप्रदायिक क्रिकेट बुरी भावना को जन्म देता है उसे कराची आकर दोनों खिलाड़ियों और दर्शकों के बीच मौजूद खेल प्रतिद्वंद्विता और अच्छी दोस्ती को देखना चाहिए. उसने इसमें जोड़ा कि वे बहुत बदली हुई राय के साथ वापस जाएंगे. यह बात 1928 में अखबार के किसी क्रिकेट के पन्ने पर लिखी थी लेकिन करीब दस साल बाद बंबई के एक क्रिकेटर ने भी, जहां पर खेल के और राजनैतिक दांव भी स्पष्ट रूप से ऊंचे थे, यही बात कही. नवंबर 1940 में मुस्लिम कप्तान सैयद वजीर अली को यह कहते हुए उद्धत किया गया कि यह प्रतियोगिता थोड़ी भी राष्ट्रविरोधी नहीं है और इसे भारतीय क्रिकेट के हितों में जरूरी और आवश्यक रूप से जारी रहना चाहिए. इसके अगले साल जब इस क्रिकेट टूर्नामेंट का भाग्य अधर में लटका हुआ था तो हिंदू कप्तान सीके नायडू ने दावा किया कि इस प्रतियोगिता ने किसी भी प्रकार से सांप्रदायिक भेदभाव को बढ़ावा नहीं दिया है. इसने स्वस्थ प्रतिस्पर्धा और सांप्रदायिक एकता को बढ़ावा दिया है. इसने समुदायों को बांटने की बजाए मिलाया है. सीके के एक और साथी मुश्ताक अली के मुताबिक महोत्सव ने हमेशा खिलाड़ियों और जनता के बीच प्रतिस्पर्धा की एक स्वस्थ भावना और खेल भावना को प्रोत्साहन दिया है. उनके अनुभव के अनुसार-स्टैंड के हर तरफ से सराहना की तरंग और शोर ने बिना भेदभाव के अच्छे प्रदर्शन का स्वागत किया है. बेशक यह नायडू (एक हिंदू) के छक्कों के लिए हो, निसार (एक मुस्लिम) की विकेट उखाड़ती गेंदों के लिए हो या फिर भाया (एक पारसी) के चतुर क्षेत्ररक्षण के लिए.
क्रिकेटरों के कथन में सच्चाई की झलक थी परंतु क्या सच में यही मसला था? क्या हिंदू और मुसलमानों के बीच के खेल मुकाबलों ने एक दूसरे के कौशल और उपलब्धियों की तारीफ को बढ़ाया था या फिर उन्होंने कहीं और ज्यादा खतरनाक जंग को आरंभ करने का काम किया? यहां पर इस विषय पर बहस लंबे समय से चल रही और अब तक किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंच सकी है. उदाहरण के तौर पर जॉर्ज ऑरवेल जैसे लोग इस अंतरराष्ट्रीय खेल को गोलाबारी रहित युद्ध के रूप में पेश करते हैं. नवंबर 1938 में जब पंचकोणीय प्रतियोगिता का विवाद चरम पर था तो एक दूसरे अंग्रेज़ लेखक ने इसे इस तरह पेश किया. एल्डस हक्सले ने टिप्पणी की कि आशावादी सिद्धांतकार खेल को राष्ट्रों के बीच रिश्तों के रूप में मानते हैं. राष्ट्रवादी भावना के वर्तमान हालात में यह सिर्फ अंतरराष्ट्रीय गलतफहमी पैदा करने का एक और कारण है. फुटबॉल मैदान पर और रेस-ट्रैक पर होने वाली झड़पें महज शुरुआती होती हैं और प्रतियोगिता की अधिक तैयारी में सहयोग करती हैं. ब्रितानी उपन्यासकारों के बीच इस सर्वसम्मति के भाव को आगे बढ़ाते हैं एलन सिलितो, जो सोचते है कि खेल राष्ट्रीय भावना को शांति के समय में भी जिंदा रखने का एक साधन है. यह युद्ध की संभावित घटना के लिए राष्ट्रीय भावना को तैयार करता है.
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जब बंबई क्रिकेट प्रतियोगिता पर पड़ा देश के बंटवारे का साया: रामचंद्र गुहा
बंबई तमाशे के एक हफ्ता बाद वार्षिक लाहौर त्रिकोणीय खेली जानी थी. इसमें भाग लेने वाली टीमें हिंदू, मुस्लिम और सिख थीं. परंतु भाग लेने वाली टीमों का ध्यान मार्च में होने वाले चुनावों ने फेर दिया था. प्रतिदिन बढ़ रहे चुनावों के बुखार के फलस्वरूप तेजी से बदतर हो रहे सांप्रदायिक हालात के चलते प्रतियोगिता अंतिम क्षणों में रद्द कर दी गई. जब चुनाव हुए तो मुस्लिम लीग ने पंजाब में अच्छा किया. पंजाब एक ऐसा प्रांत था जिस पर लीग की नजर थी, लेकिन यह वहां कुछ खास नहीं कर पाई थी. इसी तरह दूसरे राज्यों में लीग ने मुसलमानों के लिए आरक्षित अधिकतर सीटें जीत लीं.
मार्च और जून 1946के बीच तीन सदस्यों के एक कैबिनेट मिशन ने भारत का दौरा किया ताकि स्वतंत्रता की शर्तों पर समझौता हो सके. जिन्ना ने पाकिस्तान के निर्माण पर जशेर दिया. कांग्रेस ने हमेशा की तरह इसका दृढ़तापूर्वक विरोध किया. इसी बीच वायसरॉय ने जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस-लीग की एक मिलीजुली अंतरिम सरकार की पेशकश की. कांग्रेस मंत्रियों ने पद की शपथ ली परंतु लीग के मनोनीत लोगों ने उनसे मिलने में देरी की. चुनावी सफलता ने जिन्ना को आवाज उठाने का साहस दिया. अपनी पूरी जिंदगी वह एक संविधानविद रहे थे जो कि अपने मुद्दे पर विधानसभा, कचहरी और प्रेस में बहस करने को तैयार थे. अब उन्होंने डायरेक्ट एक्शन डे की अपील की. उन्होंने अपने अनुयायियों से सार्वजनिक सभाएं, मार्च और हड़तालें करने को कहा. यह हिंसा के लिए एक खुला निमंत्रण था. जिन्ना के तयशुदा दिन यानी 16अगस्त को पूरे भारत में दंगे भड़क गए. सबसे बुरी तरह से प्रभावित शहर कलकत्ता था जिसमें दंगों में 4000लोग मारे गए.
1946की गर्मियों में जबकि देश में सांप्रदायिक माहौल गरमाया हुआ था, तब एक भारतीय क्रिकेट टीम इंग्लैंड का दौरा कर रही थी. इसके कप्तान पटौदी के नवाब थे और इसके सदस्यों मे हिंदू, मुस्लिम और ईसाई शामिल थे. यह टीम टेस्ट मैचों में हरा दी गई परंतु इसने कांउटियों के खिलाफ खुद को बड़े प्रशंसनीय रूप से खुद किया. इसके कुछ क्रिकेटरों ने खुद को विश्व स्तर का साबित किया. विजय मर्चेंट ने सुंदर ढंग से बल्लेबाजी करते हुए दौरे पर 2000से अधिक रन बनाए और वीनू मांकड़ ने 1000रनों और 100विकेटों के साथ ऑल राउंडर की दोहरी भूमिका अदा की. वहां से भारत के लिए विदाई की पूर्व संध्या पर क्रिकेटरों को विदाई के दो परस्पर विरोधाभासी संदेश प्राप्त हुए. श्रीमान स्टेफोर्ड क्रिप्स एक समाजवादी और व्यापार के बोर्ड के प्रधान थे. स्टेफोर्ड क्रिप्स स्वतंत्र भारत के प्रति आशावान थे. उन्होंने विश्वास व्यक्त किया कि दौरे पर बनाई गई दोस्ती उन दो देशों के बीच अच्छे संबंध बनाएगी जिसकी हम उम्मीद करते हैं और जिसके लिए हम आगे की सोच रखते हैं. एमसीसी के पूर्व अध्यक्ष श्रीमान पहलाम वार्नर ने अपने संदेश में उन सूत्रों की ओर ध्यान दिलाया जो भारत को साम्राज्य से बांधते थे. उन्होंने क्रिकेटरों की उनके मोहक बर्ताव के लिए प्रशंसा की और फिर कहा कि अभी हुए युद्ध के दौरान आपके सैनिकों की शानदार बहादुरी को इंग्लैंड नहीं भूला है और संभवतः वह भूल भी नहीं पाए.
अब सवाल यह था कि क्या 1946में पंचकोणीय होगी?सितंबर के पहले हफ्ते में बीसीसीआई के नए निर्वाचित प्रधान एएस डिमेलो ने बंबई में एक भाषण दिया. इस भाषण में वे हमारे राष्ट्रीय जीवन पर क्रिकेट के एकीकरण के प्रभावों पर बोले कि कैसे खेल अलग-अलग समुदायों को स्वस्थ विवादरहित और मनोरंजक स्तर पर एक साथ ला रहा है. यह पंचकोणीय की हिमायत थी, जो छिपी हुई भी नहीं थी और सचमुच द रेस्ट का यह निष्ठावान समर्थक राजाओं से अपने खिलाडि़यों को महोत्सव में भेजने के लिए राय मांग रहा था. जेसी मैत्र ने बोर्ड अध्यक्ष को फटकारा कि देश में बढ़ रहे सांप्रदायिक तनाव से उन्हें कोई मतलब नहीं है. वह सहज ढंग से सुझाव देता है कि खेल के मैदान पर सांप्रदायिक प्रतिद्वंद्विता सांप्रदायिक सौहार्द के प्रोत्साहन का श्रेष्ठ तरीका है. परंतु सितंबर के आखिरी हफ्ते मे बोर्ड बड़ौदा में मिला तो डीमेलो अब वह इंसान नहीं रहा था. उसके पंचकोणीय के प्रति विचार आकस्मिक बदलाव से गुजरे थे. कलकत्ता का वीभत्स जनसंहार अभी भी उसके दिमाग में ताजा था. वह अब मान चुका था कि देश के वर्तमान मिजाज में यह बोर्ड का कर्तव्य है कि वह पंचकोणीय प्रतियोगिता को इस वर्ष और भविष्य में कभी भी करने के औचित्य पर ध्यानपूर्वक विचार करे. दो महीने बाद इसकी अगली मीटिंग में बोर्ड ने एक प्रस्ताव पास किया जिसके तहत उसने कहा कि ‘वह सांप्रदायिक क्रिकेट को मान्यता नहीं देताऔर यदि सीसीआई इस बात पर राजी होता है कि वह किसी भी सांप्रदायिक प्रतियोगिता को नहीं करवाएगा तो बोर्ड सीसीआई को जोनल प्रतियोगिता का संचालन करने का अधिकार अध्यक्ष और सीसीआई के बीच शर्तों और नियमों पर परस्पर सहमति के आधार पर सौंप कर प्रसन्न होगा.’
आखिरकार पब (प्रतियोगिता) को बंद करना था. फिर भी यह काफी समय से खुला था. 1946 के अंत तक पाकिस्तान का निर्माण तय था और (यह क्रिकेट) महोत्सव अपने कट्टर समर्थकों को छोड़कर सभी के लिए परेशानी का कारण था. उन सर्दियों में पंचकोणीय की जगह ब्रेबॉर्न स्टेडियम ने जोनल प्रतियोगिता की मेजबानी की, यह जेसी मैत्र द्वारा सांप्रदायिक क्रिकेट के बदले में गैर-सांप्रदायिक विकल्प के लिए चलाए गए दो वर्षों के अभियान की पराकाष्ठा थी. पश्चिमी जोन में मुस्लिम इब्राहिम और ईसाई हजारे, पारसी मोदी और हिंदू मांकड़, अधिकारी और फाड़कर एक साथ खेल रहे थे, इसी प्रकार उत्तरी जोन भी सार्वभौमिक थी. फाइनल में पश्चिमी और उत्तरी जोन आमने-सामने थी. उत्तरी जोन के ग्यारह खिलाड़ियों में हिंदू अमरनाथ और किशनचंद, पारसी ईरानी और आधा दर्जन मुस्लिम क्रिकेटर शामिल थे. क्रिकेट और क्रिकेटरों की गुणवत्ता उच्च स्तर की थी परंतु भीड़ की प्रतिक्रिया उदासीन थी, क्योंकि कुछ हजार प्रशंसक ही मैच देखने के लिए आए थे. टाइम्स ऑफ इंडिया में हार्टले ने इसकी एक विवेचना लिखी-तकरीबन 50 सालों चले आ रहे बंबई क्रिकेट महोत्सव के निलंबन का बुरा प्रभाव पड़ेगा.’उन्होंने जोड़ा कि पंचकोणीय प्रतियोगिता की अनुपस्थिति खिलाडि़यों और दर्शकों के बीच समान रूप से खेल में रुचि को खत्म कर रही है. क्रॉनिकल में जेसी मैत्र ने इसके निहितार्थ पर रोष व्यक्त किया कि बंबई के पास क्रिकेट के लिए कोई प्यार या रुचि नहीं है और सिर्फ क्रिकेट के नाम पर सांप्रदायिकता का प्रदर्शन चाहता है. उन्होंने जोर दिया कि बंबई का अपने पसंदीदा खेल के लिए प्यार कहीं ज्यादा और उससे ज्यादा गहरा है. फिर भीड़ इतनी कम क्यों है? मैत्र ने कहा वर्तमान उत्तेजन से भरे राजनैतिक हालात के कारण वहां पर हिंदू और मुसलमानों के बीच एक उच्च तनाव की स्थिति के साथ जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में भविष्य की अनिश्चित्ता थी. प्रशंसकों का खेल में ध्यान नहीं है जो कई दिनों तक एक साथ घंटों की उपस्थिति की मांग करता है. अंत तक बंबई के ये दो समाचार पत्र इस पर झगड़ते रहने वाले थे कि क्रिकेट के खेल के शहर के लोगों के लिए क्या मायने हैं.
(पेंगुइन बुक्स इंडिया द्वारा प्रकाशित रामचंद्र गुहा की किताब विदेशी खेल अपने मैदान पर का एक संपादित अंश. प्रकाशक की अनुमति से प्रकाशित.)