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किताब 'कोस कोस शब्दकोश' से चार व्यंग्य

टीवी पर व्यंग्य को नया विस्तार देने वाले राकेश कायस्थ अपनी व्यंग्य किताब के साथ हाजिर हैं. नाम है, 'कोस कोस शब्दकोश'. पेश है इस किताब से चार व्यंग्य.

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Kos Kos Shabdkosh
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किताब: कोस कोस शब्दकोश (पेपरबैक, व्यंग्य-संग्रह)
लेखक: राकेश कायस्थ
प्रकाशक: हिंद युग्म
कीमत: 100 रुपये
पन्ने: 144

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टीवी पर व्यंग्य को नया विस्तार देने वाले राकेश कायस्थ अपनी व्यंग्य किताब के साथ हाजिर हैं. नाम है, 'कोस कोस शब्दकोश'. किताब 25 फरवरी से सभी ऑनलाइन बुकस्टोर पर उपलब्ध होगी. फिलहाल किताब की प्रीबुकिंग चालू है. पेश है इस किताब से चार व्यंग्य.

1. बॉस

बॉस अक्सर परफेक्शनिस्ट होते हैं, क्योंकि अगर वर्तनी में थोड़ी-सी गलती हो गई, तो बॉस से बास आने लगेगी. अगर कॉन्वेंट में पढ़े छात्र हिंदी में लिखें तो बॉस का बाँस भी हो सकता है. लेकिन कॉन्वेंट में पढ़े छात्र भला हिंदी में बॉस क्यों लिखेंगे? इसलिए बॉस का बाँस कभी नहीं हो सकता. बल्कि सर्वमान्य तथ्य यही है कि जो बाँस करने की सबसे आदर्श स्थिति में होता है, वही बॉस होता है. बॉस अंग्रेजी का शब्द है. लेकिन भाषा बदलने से बॉस का कैरेक्टर नहीं बदलता. हिंदीवाले इलाकों के सरकारी दफ्तरों में बॉस को पदाधिकारी कहा जाता है. यानी यहां भी मतलब वही है जो बाँस करे वो बॉस और जो साधिकार पदा सके वो पदाधिकारी.

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बॉस पॉजेटिव एनर्जी से लबरेज होते हैं. एक अच्छा बॉस कभी किसी कर्मचारी की ना नहीं सुनता और कभी किसी बात पर हां नहीं कहता. आदर्श बॉस हमेशा लोकतांत्रिक होता है. कई बॉस इतने लोकतांत्रिक होते हैं कि वो अपनी हर बात पर कर्मचारियों को राय रखने का विकल्प देते हैं. अब ये कर्मचारी पर निर्भर करता है कि वो बहुत अच्छा कहे या फिर सिर्फ अच्छा कहे. बॉस को हमेशा अपने फैसले के बारे में बहुत अच्छा सुनने की आदत होती है. लेकिन उदार बॉस के फैसले को कोई सिर्फ अच्छा भी बताये, तो वह ज्यादा बुरा नहीं मानता.

बॉस के आते ही दफ्तर का पूरा माहौल अत्यंत गरिमामय हो जाता है. काम ही पूजा है, इस लिहाज से दफ्तर मंदिर है. लेकिन मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा तभी होती है, जब बॉस के शुभ चरण पड़ते हैं. बॉस के आते ही चाय के खाली कप डस्टबिन में चले जाते हैं. टहल रहे कर्मचारी अपनी सीट पर चले जाते हैं और कुर्सी पर अधलेटे कंप्यूटर गेम खेल रहे लोग एक्सेल शीट खोल इस तन्मयता के बैठ जातेहैं कि बॉस को ये कहना पड़े कि अगर इसी तरह आंखे गड़ाये रहोगे तो चश्मे का पावर बढ़ जाएगा. गर्दन अकड़ जाएगी और एक दिन एस्पांडिलाइटिस हो जाएगा.

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लेकिन बॉस इनमें से कुछ भी नहीं कहते. वो ज्यादातर नमस्कारों को नज़रअंदाज़ करके, कुछ नमस्कारों पर हल्के से सिर हिलाकर, कुछ हैलो पर स्वीट और कुछ हैलो पर नॉटी-सी स्माइल पास करते हुए दनदनाते हुए अपने केबिन में चले जाते हैं. कर्मचारी धन्य होकर देखते हैं. इस उम्र में ये एनर्जी लेवल! फिर मन-ही-मन खुद को समझाते हैं, भूले से भी इनकी उम्र की बात किसी और से मत करना. नहीं तो नौकरी चली जाएगी. कर्मचारियों से भरे दफ्तर में 50 गज की दूरी बॉस इस अंदाज़ में पार करते हैं, जैसे दुनिया का महानतम बल्लेबाज़ इडेन गार्डेन्स स्टेडियम में ड्रेसिंग रूम से निकलकर मैदान तक का सफर तय करता है, या फिर अमेरिका का राष्ट्रपति तीसरी दुनिया के किसी देश की एक दिन की यात्रा के बाद अपने स्पेशल बोइंग की तरफ बढ़ता है.

अच्छे बॉस के पास दफ्तर की हर समस्या का हल होता है. लेकिन वह कभी हल खुद नहीं बताता बल्कि कर्मचारियों से पूछता है. कुछ बॉस इस कदर स्ट्रेट फॉरवर्ड होते हैं कि सीधे-सीधे कहते हैं कि बॉस के पास सिर्फ सवाल होते हैं, जवाब नहीं. लेकिन कर्मचारियों के लिए तो बॉस ही अपने-आप में एक सवाल होता है. एक सवाल नहीं बॉस कई सवाल होता है. आखिर अब तक कैसे टिका हुआ है? मैनेजमेंट को इसने क्या घुट्टी पिला रखी है? शाम के वक्त जब ऑफिस से निकलता है, तो इसकी गाड़ी पार्किंग से बाहर दूर क्यों खड़ी रहती है? गाड़ी में पहले से कौन बैठा होता है, वगैरह-वगैरह. जिज्ञासुओं से बॉस को बहुत चिढ़ होती है क्योंकि बॉस की हर बात में एक गहरा सेंस होता है और दफ्तर के बाकी लोगों की ज्यादातर बातें नॉनसेंस होती हैं. सेंस होने के साथ बॉस में गजब का सेंस ऑफ ह्ययूमर भी होता है. बॉस अगर मुस्कुरायें तो पूरा दफ्तर खिलखिला उठता है और अगर बॉस ने कभी गलती से ठहाका लगा दिया तो फिर दफ्तर गब्बर के अड्डे में तब्दील हो जाता है. हँसी उस वक्त तक रुकने का नाम नहीं लेती जब तक बॉस की हंसी थम नहीं जाती.

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अच्छे बॉस का उनके मातहतों के साथ रिश्ता आमतौर पर असंतोष का होता है. कर्मचारी बॉस के व्यवहार से असंतुष्ट होते हैं और बॉस कर्मचारियों के काम करने के तरीके से. कर्मचारियों के काम या आइडिया को खारिज़ करने के साथ बॉस यथोचित फटकार भी लगाते हैं. लेकिन पूरे दफ्तर में दो-चार लोग ही ये समझ पाते हैं कि बॉस और कर्मचारी का रिश्ता कुम्हार और घड़े की तरह होता है, जो खोट निकालता है तो सिर्फ उसके भले के लिए. जो लोग यह बात समझ जाते हैं उनकी भरपूर तरक्की होती है. ऐसे लोग खुद को घड़ा और बॉस को कुम्हार रूपी गुरू मानते हैं. लेकिन दफ्तर के बाकी लोग उन्हें बॉस का चमचा बताते हैं.

बॉस तरह-तरह के होते हैं. प्राइवेट सेक्टर के कुछ बॉस निर्गुण और निराकार होते हैं. कब दफ्तर आते हैं और कब जाते हैं, ये किसी को पता नहीं चलता. कई बॉस अमेरिका, यूरोप या बैंगलोर में कहीं बैठकर ई-मेल के ज़रिये पूरा दफ्तर चलाते हैं. दूसरी तरफ सरकारी बॉस निराकार नहीं होते बल्कि आकार में इतने बड़े होते हैं कि कुर्सी में मुश्किल से समाते हैं. प्राइवेट सेक्टर के ज्यादातर बॉस फिटनेस फ्रीक होते हैं और जिम जाते हैं. दूसरी तरफ सरकारी दफ्तरों के बॉस जिम के बदले `जीमने’ में यकीन रखते हैं. सरकारी दफ्तरों के बॉस इस कदर जीमते हैं कि दफ्तर के बाबू लोगों को सुबह से शाम तक उनके नाम पर दोनों हाथो माल बटोरना पड़ता है. लेकिन सरकारी बॉस का पेट नहीं भरता. वायु विकार उन्हें होता है, लेकिन पादता है सरकारी दफ्तरों के चक्कर काटनेवाला.

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2. लोकपाल

गाँव में जमा दंगल. ओमपाल ने ठोकी ताल, सोमपाल ने लगाई ललकार. लेकिन बीच में अचानक आ गया लोकपाल. लोकपाल ना अन्ना का ना सरकार का ना विपक्ष का. पूरी तरह निरपेक्ष, स्वस्थ, सुंदर, सशक्त, इसी गांव की मिट्टी में पला; सुबह-शाम भैंस का ताजा दूध पीकर सौ-सौ दंड पेलने वाला लोकपाल. लोकपाल की हुंकार सुनकर ओमपाल घबराया, सोमपाल अकचकाया, चंद्रपाल चकराया और प्रेमपाल थर्राया.

लोकपाल बोला, ना ओमपाल ना सोमपाल. मैं हूं इस अखाड़े का सबसे बड़ा सूरमा. कोई टक्कर देनेवाला हो तो सामने आये. सारे पहलवान दूर हट गये. मुखिया जी ने लोकपाल को किनारे ले जाकर समझाया, तुम्हारे जोड़ का यहाँ ना कोई है, ना होगा. ये दंगल तो तुम कई बार जीत चुके हो. गाँव में वक्त क्यों बर्बाद करते हो? तुम्हें मालूम नहीं तुम कितने बड़े आदमी हो. अन्ना हजारे तुम्हें ही ढूंढ़ रहे हैं.

लोकपाल चकराया, ये क्या बोल रहे हैं, मुखिया जी?

मुखिया जी ने कहा, मैं सच बोल रहा हूं. अन्ना हजारे ने कहा है कि मुझे चाहिए लोकपाल और वो भी सबसे मजबूत. क्या तुम किसी ऐसे लोकपाल को जानते हो जो तुमसे ज्यादा मजबूत हो?

लोकपाल ने दिमाग दौड़ाया और बोला, पास वाले गांव में थे तो एक पंडित लोकपाल शर्मा. लेकिन बुजुर्ग थे, दमे के मरीज थे, पिछले साल गुजर गये. बाकी तो आसपास कोई और नहीं, एक अकेला लोकपाल मैं ही हूँ. मुखिया जी ने कहा, फिर तो तुम्हारा दावा पक्का. अन्ना हजारे कह रहे थे कि मजबूत लोकपाल की मुझे नहीं पूरे देश को तलाश है. फौरन टिकट कटाओ और दिल्ली रवाना हो जाओ.

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ट्रेन में भीड़ बहुत थी. लोकपाल किसी तरह लटकता हुआ दिल्ली पहुंचा. स्टेशन पर कदम रखते ही उसे मालूम हो गया कि पूरी दिल्ली को उसी का इंतज़ार है और उसके स्वागत के लिए रामलीला मैदान में एक बड़ा जलसा भी है. बिना वक्त गंवाये लोकपाल ने सीधे रामलीला मैदान का रुख किया. दीवारों पर पोस्टर लगे थे- लोकपाल लाओ देश बचाओ. लोकपाल ने मन-ही-मन मुखिया जी को दाद दिया और आगे बढ़कर उस आदमी तक पहुँचा जो जोर-जोर से नारा लगा रहा था— आकर रहेगा लोकपाल. 'जी मैं आ गया’ लोकपाल ने अदब से कहा. लेकिन नारा लगाने वाले ने लोकपाल की बात जैसे अनसुनी कर दी और फिर गला फाड़कर चीखा, आकर रहेगा लोकपाल. भीड़ ने भी नारा दोहराया— आकर रहेगा लोकपाल.

'लेकिन लोकपाल तो आ गया है. एकदम मजबूत जैसा आप लोग चाहते थे.’

'ऐं ये आदमी क्या बोल रहा है, सरकारी लोकपाल की तारीफ कर रहा है. लगता है, कांग्रेस का एजेंट है. अरे, भाई वो लोकपाल नहीं आया जिसे हम ढूंढ़ रहे हैं. इन्हें किनारे बिठाइये ये कार्यक्रम में खलल डालना चाहते हैं.’

दो कार्यकर्ता लोकपाल को किनारे ले गये और भीड़ में बिठा दिया. लोकपाल थोड़ी देर तक खामोशी से जलसा देखता रहा, लेकिन दुनिया के सामने होकर भी ना पहचाना जाना उसके के लिए नाकाबिल-ए-बर्दाश्त था. आखिरकार उसके सब्र की सीमा टूटी है और वो ज़ोर से चीखा- मैं लोकपाल हूं. कार्यकर्ता फिर उसके पास पहुँच गये और समझाया कि ये गलत नारा है. मत कहो कि मैं लोकपाल हूँ. बोलो मैं भी अन्ना, तुम भी अन्ना. नारा लगाओ- आकर रहेगा असली लोकपाल. लोकपाल ने कहा, श्रीमानजी जब मैं आ ही चुका हूँ तो ये कैसे कह सकता हूँ कि मैं आकर रहूँगा. जब मैं लोकपाल हूँ तो खुद को अन्ना कैसे कह सकता हूँ. बहुत गड़बड़झाला है यहाँ, अब तो मुझे सीधे अन्ना हजारे जी से ही मिलना पड़ेगा.

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बदहवास लोकपाल रामीलाला मैदान में अन्ना के मंच तक पहुँचने की कोशिश करता रहा, लेकिन सुबह से शाम हो गई. फिर एलान हुआ कि सरकार के आश्वासान के बाद अन्ना अनशन तोड़ रहे हैं. झोला झंडा उठाकर भीड़ बाहर निकलने लगी, लेकिन मायूस लोकपाल रामलीला मैदान के कोने में खड़ा रहा. उसे ना तो अन्ना मिले ना अन्न का एक दाना. गुरुद्वारे में चार दिन बिताकर लोकपाल गाँव लौटने वाला ही था कि दो लोगों की बातचीत से पता चला कि अन्ना लोकपाल को लाने के लिए मुंबई में अनशन कर रहे हैं. जिला जींद, गांव ख़परौली के उत्साही लोकपाल ने बिना वक्त गँवाये मुंबई की गाड़ी पकड़ ली. एमएमआरडी मैदान में कदम रखते ही लोकपाल को ये पता चला कि अनशन पर बैठे अन्ना जी की तबियत अचानक खराब हो गई है और अब वो किसी से नहीं मिलेंगे, ना तो मीडिया से ना अपने समर्थकों से. लोकपाल ने बहुत कोशिश की, लेकिन किसी ने उसे अन्ना से मिलने नहीं दिया. सशक्त लोकपाल की मजबूती को परखे बिना अन्ना मुंबई से पुणे रवाना हो गये.

लुटा-पिटा लोकपाल गाँव लौटा तो मुखिया जी ने बताया कि अन्ना को हो-ना-हो लेकिन आम आदमी के नेता अरविंद केजरीवाल को शर्तिया तुम्हारी ज़रूरत है. धुन के पक्के लोकपाल ने एक बार दिल्ली का रुख किया. लेकिन दिल्ली पहुँचते ही उसे पता चला कि एक बहुत मजबूत लोकपाल जैसा अन्ना चाहते थे, वैसा ही लोकपाल संसद में आ चुका है. लोकपाल को चक्कर आ गया. उसे ढूँढ़ रहे थे, केजरीवाल. पता बताया अन्ना ने और लेकर आये कांग्रेस और बीजेपी वाले. लेकिन वो तो सड़क पर खड़ा है, संसद में कहाँ है? चकित, भ्रमित लोकपाल संसद की तरफ बढ़ा लेकिन सुरक्षा में मुस्तैद पुलिस वालों ने उसे डंडे मारकर भगा दिया. लोकपाल रोता-पीटता इंसाफ के लिए केजरीवाल के घर पहुँचा. बाहर तैनात कार्यकर्ताओं को उसने परिचय दिया तो कार्यकर्ताओं ने समझाया- लोकपाल मत कहो, बोलो मैं आम आदमी हूँ. लोकपाल तो बहुत मरियल है, केजरीवाल को उसकी ज़रूरत नहीं है. उन्हें तो एक मजबूत जनलोकपाल चाहिए. लोकपाल गश खाकर गिर पड़ा. कई महीने बीत चुके हैं. शाहदरा के पागलखाने में बड़ी दाढ़ी और फटे पायजामे वाला एक आदमी ज़ोर-ज़ोर से चीखता है, कभी कहता है, मैं लोकपाल हूं. फिर कहता है. मैं जनलोकपाल हूं. कभी कहता है, मैं भी अन्ना तुम भी अन्ना. कभी कहता है, मैं आम आदमी हूं. डॉक्टरों का कहना है कि इस नामालूम शख्स को 'मल्टीपल पर्सनैलिटी डिजॉडर’ नाम की बीमारी है, जो कभी ठीक नहीं हो सकती.

आगे के पन्ने पर पढ़ें, 'मातृभाषा' और 'बुढ़ापे की लाठी'

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3. मातृभाषा

व्यक्ति जिस भाषा में दूसरों की मां-बहनों को याद करता है, वही उसकी मातृभाषा होती है. मातृभाषा की ये एक सहज स्वीकार्य परिभाषा हो सकती है. लेकिन भारतवर्ष में परायों को याद करने के लिए पराई भाषा के इस्तेमाल का चलन लगातार बढ़ रहा है. अब गालियाँ भी अंग्रेजी में दी जाती हैं. इसलिए मातृभाषा की परिभाषा हमारे लिए कुछ बदल गई है. थोड़ी-बहुत असहमतियों के साथ ये माना जा सकता है कि जिस भाषा की आप सबसे ज्यादा माँ-बहन कर सकें, वही आपकी मातृभाषा है. इस खाँचे में फिटकर के देखें तो हिंदी के मातृभाषा होने में कोई शक नहीं रह जाता.

देश आजाद हुआ तो हिंदी माता को सरकारी बाबुओं के हवाले कर दिया गया गया. बाबुओं ने कहा—माई, चिंता मत करो. अब हर जगह तुम्हारा ही राज होगा. तुम्हारा ख्याल रखने के लिए हर सरकारी दफ्तर में एक अधिकारी रखा जाएगा. जिसका काम ब्लैकबोर्ड पर रोजाना तुम्हारे नाम का एक शब्द लिखना और हर साल14 सितंबर को तुम्हारे सम्मान में एक कार्यक्रम आयोजित करना होगा. हिंदी अधिकारी तुम्हारे लिए यदा-कदा कवि सम्मेलन भी करवाएग. जिसमें आनेवाले कवियों को रेल का किराया और राहखर्च दिया जाएगा. देखना माई,सरकारी प्रयास से किस तरह कश्मीर से कन्याकुमारी तक लोग तुम्हारी जय-जयकार करेंगे. हिंदी ने कहा, अभी मेरी उम्र ही क्या है. मेरे माथे पर बिंदी लगाकर क्यों मुझे माई बनाते हो. मैं अपनी राह खुद चल सकती हूँ. लेकिन बाबुओं ने कहा, माताजी ऐसा कैसे हो सकता है. आप अपनी राह चलेंगी तो हमारी नौकरी का क्या होगा. आपके नाम पर देश-विदेश में सम्मेलन कैसे होंगे. नेताओं और बाबुओं को फोकट में विदेशयात्रा के अवसर कैसे मिलेंगे और फिर हम आपकी ही सेवा तो कर रहे हैं.

लेकिन हिंदी कहाँ ठहरने वाली थी, अपनी रफ्तार से चलने लगी . गुजरात और महाराष्ट्र पारकर जैसे ही दक्षिण की तरफ बढ़ी बवाल शुरू हो गया. हिंदी माता के सपूत मद्रास से लेकर मदुरै तक जगह-जगह पिटनेलगे. साइनबोर्ड मिटाये जाने लगे. हिंदी के ख़िलाफ राजनीतिक स्लोगन बनाये जाने लगे. ये सब देखकर घबराये चाचा नेहरु ने अपने बाबुओं की ख़बर ली,`तुमलोगों से कहा था, हिंदी माता को इसतरह बेलगाम मत छोड़ो. हिंदी माता का तमिल अम्मा के इलाके में क्या काम. उन्हें पता नहीं कि इलाका कितना डेंजरस है. अगर उन्हें और उनके सपूतों को कुछ हो गया तो मैं पूरे देश को क्या जवाब दूँगा.

चाचा नेहरू ने पूरे देश को समझाया कि ठीक है, हिंदी हमारी माँ है. लेकिन अलग-अलग राज्यों में जितनी भी मौसियाँ हैं, वो भी माँ समान हैं. मौसियों को हिंदी माता से कोई बैर नहीं. लेकिन मौसेरे भाइयों का मैं कुछ नहीं कह सकता. इसलिए सीधा रास्ता यही है कि हिंदी माता बाबुओं की निगरानी में आराम फरमायें. अपने हार्टलैंड से निकलकर कहीं बाहर ना जायें. चाचा नेहरू ने देश से ये भी कहा कि ये हर्गिज मत भूलो कि तुम्हारी एक पितृभाषा भी है. भारतीय समाज में बाप का दर्जा माँ से बड़ा होता है. हमेशा माँ का पल्लू पकड़े रहोगे तो जिंदगी में कुछ नहीं कर पाओगे. मातृभाषा लोरी सुनने के लिए ही ठीक है. भारत में रहकर रोटी कमाना चाहते हो तो अंग्रेजी सीखो. पूरा देश चाचा के दिखाये राह पर चल पड़ा. नतीजा ये हुआ कि हर जगह अंग्रेजीवाले के बाप का राज कायम हो गया और हिंदी माता हाउसवाइफ बन कर रह गई.

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4. बुढ़ापे की लाठी

वे बिस्तर पर पड़े थे. चोट बहुत गहरी थी, शरीर पर कम और मन पर बहुत ज्यादा. संकट की इस घड़ी में ज्यादातर अपने उनका साथ छोड़ गये थे. इक्का-दुक्का हमदर्द आ रहे थे और उनकी हालत पर आँसू बहाकर वापस लौट जा रहे थे. दर्द हद से गुजर चुका था. चोट लाइलाज थी. क्योंकि ये चोट किसी और चीज़ की नहीं बल्कि बुढ़ापे की लाठी की थी. ऊपर वाले की लाठी में आवाज़ नहीं होती, लेकिन बुढ़ापे की लाठी में बहुत आवाज़ होती है. बुढ़ापे की लाठी जब बजती है तो पूरी दुनिया को पता चल जाता है.

जीवन का ये महान सत्य उनकी समझ में अच्छी तरह आ चुका था. लेकिन अब पछताने का क्या लाभ, लाठी तो पड़ चुकी थी. एक वक्त था, जब वे अक्सर कहा करते थे- लाठी सुशासन है. लाठी अनुशासन है. लाठी स्वदेशी है. लाठी स्वावलंबन है. लाठी शक्ति है. लाठी आन, बान और स्वभामिन है. लाठी पर देश में होनेवाले आकदमिक चिंतनों में उनका बहुत बड़ा योगदान था. अपने इस चिंतन को मूर्त रूप देने का संकल्प अक्सर दोहराया करते थे. इमरजेंसी के दिनों में उन्होने लोकतंत्र बहाली की लड़ाई भी लड़ी थी. फिर उन्हें लगता था कि लाठी है, तभी लोकतंत्र है, वर्ना सब बेरोक-टोक तंत्र है. लाठी को तेल पिलाये जाने और उसे शस्त्रोचित सम्मान दिये जाने के पक्ष में हमेशा से रहे थे.

हालाँकि, वे नहीं मानते कि बुढ़ापा कभी आएगा. फिर भी वे अपने लिए बुढ़ापे की एक लाठी तैयार कर रहे थे, ठीक वैसे ही जैसे हर भारतीय करता है. लोग उन्हें उसी तरह चेतावनी दे रहे थे, जैसे पड़ोसी और रिश्तेदार देते हैं—जमाना बहुत ख़राब है. सगी औलाद तक का भरोसा नहीं है. आपकी बुढ़ापे की लाठी बहुत बेलगाम है. इसलिए संभाल कर रखिये, कहीं बुढ़ापे में सहारा बनने के बदले आप पर ही ना बरसने लगे. उनका जवाब होता था, ये लाठी बेलगाम नहीं बल्कि लगाम लगाने के लिए है. अपनी बुढ़ापे की लाठी के चक्कर में उन्होंने ना जाने कितने ताने, कितने बोल सहे लेकिन लाठी को तेल पिलाना नहीं छोड़ा. वे अनगिनत बसंत देख चुके थे. साथी एक-एक करके गुजर रहे थे. लेकिन उनके दिन बहुत मजे में गुजर रहे थे.

सिर पर उतने बाल अब भी बचे थे, जितने बीस साल पहले बचे थे. झुर्रियाँ एक बार पड़ने के बाद जैसे रुक-सी गई थीं. आवाज़ में अब भी उतनी ही बुलंदी थी, जितनी तीस-चालीस बरस पहले थी. पूरा देश मानता था कि एक वही हैं जो पूरे देश का सम्मान और स्वाभिमान बचा सकते हैं. क्योंकि ज़रूरत पड़ने पर उन्हें लाठी चलाने और चलवाने से परहेज नहीं. उनकी पार्टी 13 दिन, तेरह महीने और पाँच साल के लिए तीन बार सत्ता में आई. वे मंत्री बने फिर उप-प्रधानमंत्री भी बन गये, लेकिन प्रधानमंत्री बनने का वक्त आया तो ना जाने क्यों ससुरा एक अदद इन वेटिंग उनके नाम के साथ आकर चिपक गया. पार्टी उनके नेतृत्व में विजय की ओर प्रस्थान करने वाली थी लेकिन ना जाने कैसे फीलगुड दुश्मनों का हो गया.

अब लोहा हो या लौह पुरुष अगर बहुत दिन तक बेकार पड़ा रहे तो जंग लगना शुरू हो ही जाता है. लेकिन वे बदन पर लगने वाले जंग को मुस्तैदी से झाड़ते रहे और अगले चुनाव का एलान-ए- जंग भी करते रहे. उन्होंने एक बार फिर अबकी बारी का नारा दिया और अपने दम पर कूद पड़े मैदान में. लेकिन हाय! मुआ ‘इन वेटिंग’, इस बार भी साथ चिपका रहा. वे अपनी नाकामी पर माथा ठोकते रहे. उधर लगातार तेल पीकर तंदुरुस्त हो चुकी उनकी लाठी लगातार सनसनाती रही, जैसे कह रही हो, अरे मुझ पर छोड़िये, मैं दिखाता हूँ विरोधियों को दिन में तारे. लाठी की आवाज़ ऐसी थी कि विरोधी तो विरोधी कई बार वे खुद भी डर जाते थे.

वे दो कोशिशों में नाकाम हो चुके थे. चुनाव फिर से आनेवाला था. पीएम इन वेटिंग से इन वेटिंग हटाने का बूढ़ा सपना उनके मन में एक बार फिर आहिस्ता-आहिस्ता जवान हो रहा था. लेकिन परिवारवालों ने साफ कह दिया, हम आपको ज्यादा कूदने-फांदने नहीं देंगे. गिर-गिरा गये तो मुसीबत हो जाएगी. बूढ़े आदमी को घर में रहकर हरि भजन करना चाहिए. वे बहुत मायूस थे. अब उनके लिए बुढ़ापे की लाठी का ही सहारा था. उम्मीद थी, लाठी का सहारा लेकर वे 7 रेसकोर्स में दाखिल हो जाएँगे. रास्ते में जो आएगा, उसे लाठी निबटा देगी.

लेकिन उनकी लाठी अब लाठी नहीं रह गई थी, बल्कि लट्ठ हो गई थी. चाचा चौधरी के भीमसैनी लट्ठ की ताकत और अपने आप उड़-उड़कर दुश्मनों को मारने वाले ताऊजी की जादू की छड़ी का करिश्मा, दोनों उस लाठी में समा चुके थे. परिवार वालों ने समझाया, ये लाठी आम बुढ़ापे की लाठी नहीं है बल्कि अब ऐसा स्वचालित हथियार बन चुकी है, जो किसी के चलाने से नहीं बल्कि अपने आप चलती है. उस लाठी को थामने के लिए जितनी ताकत चाहिए, वो अब आपमें नहीं है. चुपचाप घर बैठिये और राम का नाम लीजिये. लेकिन वे रूठ गये. परिवार ने उन्हें मनाया. वे मान गये. लेकिन कुछ दिन बाद फिर रूठ गये. परिवार वालों ने फिर से मनाया. लेकिन वे इस बार मानने को तैयार नहीं थे. आगे बढ़कर बुढ़ापे की लाठी थामने निकले. लेकिन जैसे हाथ लगाया, जैसे करंट लगा. वाकई इस लाठी को संभालना उनके बूते से बाहर था. वे मुँह के बल गिरे और लाठी उनके ऊपर बड़ी जोर से बजी.

होश आया तो उन्होंने खुद को बिस्तर पर पड़ा पाया. परिजन विलाप कर रहे थे और उन्हें कोस रहे थे- बुढ़ापे में आदमी इतना लालची क्यों हो जाता है. क्या गत बना ली अपनी!

दूसरा कह रहा था-- भईया बुढ़ापे की लाठी एक ऐसा इनवेस्टमेंट है, जिसका रिटर्न कभी नहीं मिलता और कभी मिलता है तो इसी तरह मिलता है, जैसे इन्हें मिला.

तीसरे ने कहा- राजनीति की दुनिया की यही रीत है. बुढ़ापे की लाठी उसी पर चलती है, जिसने उसे सबसे ज्यादा तेल पिलाया हो.

वे खामोशी से लेटे दुनिया भर की बातें सुन रहे थे. उन्हें पहली बार इस बात का एहसास हो रहा था कि परिवार और दुनिया की नज़र में वाकई बहुत बूढ़े हो चुके हैं. इतने बूढ़े कि अकेले तो क्या लाठी के बल पर भी चल नहीं सकते. बिस्तर पर पड़े-पड़े उन्होंने टीवी ऑन कर लिया और अपनी बुढ़ापे की लाठी के चमत्कार की ख़बरें देखने लगे. लाठी अब सनसनाती हुई 7 रेसकोर्स में दाखिल हो चुकी थी. पूरी दुनिया लाठी की जय-जयकार कर रही थी, लेकिन तेल पिलाने वाला का दूर-दूर तक कोई जिक्र नहीं था. वो बहुत चकित, थकित, पीड़ित और आहत थे, लेकिन अब भी हार मानने को तैयार नहीं थे. नई रार ठानने का इरादा लेकर उन्होने परिवार के सामने नया प्रस्ताव रख दिया-- लाठी पकड़कर मुझे मंत्रिमंडल में नहीं जाना है. मैं स्वस्थ हूं, बिना लाठी के लोकसभा अध्यक्ष की कुर्सी तक अपने आप पहुंच सकता हूं. वो हुंकार भर ही रहे थे कि बुढ़ापे की लाठी एक बार फिर उनपर जोर से बजी. होश आया तो उन्होने अपने आपको कुछ बुजुर्गों के साथ पार्टी के मार्गदर्शक मंडल में पाया. अब वे लेटे-लेटे सोचा करते हैं—ये मार्गदर्शक कौन होते हैं, मार्ग दिखाने वाले या मेरी तरह पड़े-पड़े मार्ग देखने वाले?

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