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हिंदी दिवस 2020: क्यों सूखती जा रही है हिंदी की सदानीरा?

हिंदी की फसल को खाद पानी देने में भारत सरकार ने कोई कोर कसर नहीं छोड़ी है किन्तु हिंदी की बेल अपने ही देश में सूखती नजर आती है. हिंदी दिवस पर एक विश्लेषण

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हिंदी दिवस 2020 विशेष
हिंदी दिवस 2020 विशेष

हिंदी की फसल को खाद पानी देने में भारत सरकार ने कोई कोर कसर नहीं छोड़ी है किन्तु हिंदी की बेल अपने ही देश में सूखती नजर आती है. हिंदीभाषियों व अन्य भारतीय भाषाभाषियों की दृष्टि में हिंदी की वह अहमियत क्यों नहीं रही व हिंदी अभी भी मुख्यधारा की कामकाज की भाषा क्यों नहीं बन पाई है, प्रकाश डाल रहे हैं लगभग चार दशकों से हिंदी व राजभाषा की सेवा से जुड़े व हिंदी के सुपरिचत कवि-आलोचक भाषाविद डॉ ओम निश्चल.

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जब जब हिंदी दिवस आता है, हिंदी के भक्त और अनुयायी सक्रिय हो उठते हैं, राजभाषा विभाग और अनुभागों की नींद टूट जाती है. सरकारी कार्यालय हिंदी के प्रयोग को लेकर जाग उठते हैं. हर जगह कार्यालयों में हिंदी के नाम पर प्रतियोगिताएं समारोह और सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित होने लगते हैं. कार्यालयों के मुख्य द्वार पर बैनर और विज्ञापन दिखाई देने लगते हैं. फिर-फिर हिंदी में कामकाज की मुहिम तेज करने का संकल्प लिया जाता है. पर 1947 में देश की आजादी के बाद और 1950 में संविधान के लागू होने के इतना अरसा बीत जाने के बावजूद हिंदी में कामकाज का संकल्प हर बार दुहराया अवश्य जाता है किन्तु कुछ दूर आगे चल कर हिंदी की चाल फिर मंथर हो जाती है. इस बार तो कोविड महामारी के चलते सब कुछ ऑनलाइन और वेबिनारों में सिमट गया है. एक तरह से जो लजीज व्यंजन, हिंदी के नाम पर उड़ाए जाते थे उनकी बचत होगी. पुरस्कार कवि सम्मेलन संगोष्ठियों पर जो राशि व्यय होगी उस पर लगाम लगेगी. किन्तु आज हिंदी में कामकाज के सारे संसाधनों और केंद्र में मौजूद भारतीय भाषा समर्थक केंद्र सरकार के बावजूद कार्यालयों में हिंदी के इस्तेमाल का वह स्तर नगण्य दिखता है. जबकि इसे संभव करने के लिए तमाम संस्थान और उनके विभाग यथा, राजभाषा विभाग, गृह मंत्रालय, केंद्रीय हिंदी प्रशिक्षण संस्थान, केंद्रीय अनुवाद ब्यूंरो, संसदीय राजभाषा समिति की तीनों उप समितियां आदि लगी हुई हैं.

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यह तो केंद्र सरकार और उनके विभागों-अनुभागों का नज़ारा है. राज्य‍ सरकारें जहां हिंदी राज्यों की 'राजभाषा' है, वहां भी कोई अलग नजारा नहीं दिखता. सितंबर माह के मध्य तक आते-आते वहां भी हिंदी का माहौल मुखरित हो उठता है. हिंदी अकादमियां, हिंदी संस्थान आदि जो सर्जनात्मक उपक्रमों से जुड़े हैं, वे हिंदी के लेखकों को पुरस्कृत करते हैं. राज्यों के भाषा विभागों के अपने कोश और संदर्भ साहित्य हैं. हिंदी राज्यों में हिंदी में कामकाज का एक बेहतरीन वातावरण अवश्य है पर उन्हीं राज्यों में केंद्र सरकार के कार्यालयों में हिंदी उस स्तर पर प्रयोग में नही लाई जाती जब कि केवल राजभाषा के मद में विपुल राशि व्यंय होती है . इस तरह केंद्र सरकार के कार्यालयों व हिंदी भाषी राज्य सरकारों के बीच पत्राचार में भी यही बात दिखती है. केंद्र सरकार और हिंदीभाषी राज्य सरकार के बीच अनिवार्यत: हिंदी में पत्राचार होना चाहिए पर इस का पालन भी बहुधा कम देखने को मिलता है. आखिर क्या वजह है कि केंद्र स्तर पर हिंदी व राजभाषा गतिविधियों के ऊपर बहुत बड़ी राशि व्यय होने के बावजूद हिंदी पूरी तौर पर एक कामकाजी माध्यम के रूप में नहीं अपनाई जा सकी है? इसकी वजहें तमाम हैं. हिंदी के लिए कामकाजी अमले के होने के बावजूद देश में अंग्रेजी में पढ़ाई-लिखाई का बोलबाला लगातार बढ़ता जा रहा है . ऐसे में जो लोग सरकारी सेवाओं में दाखिल होते हैं, हिंदी मातृभाषा होने के बावजूद कामकाज के स्तर पर वह सक्षमता नहीं आ पाती. इस हिचक के कारण न तो वे प्रयास करने के लिए आगे आते हैं, न हिंदी कामकाज में सक्षम हो पाते हैं.

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सरकारी कर्मियों को जिन्हें हिंदी नहीं आती या कार्यसाधक ज्ञान नहीं होता उनके लिए हिंदी कक्षाएं चलाई जाती हैं. उन्हें हिंदी का कार्यसाधक ज्ञान दिया जाता है. हाई स्कूल तक हिंदी एक विषय के रूप में पढ़ने वाले कार्मिक को कार्यसाधक ज्ञान प्राप्त तथा उसके ऊपर हिंदी विषय या हिंदी माध्यम से हाई स्कूल परीक्षा उत्तीर्ण करने वाले कार्मिक को प्रवीणता प्राप्त माना जाता है. कार्यसाधक ज्ञान दिलाने के लिए अहिंदी भाषी इलाके के दफ्तरों में हिंदी सिखाने के लिए कार्यशालाएं व प्रशिक्षण गतिविधियां आयोजित की जाती हैं, पर्याप्ति राशि प्रोत्साहन पर व्यय होती है पर अहिंदी भाषी इलाकों में हाजिरी रजिस्टर या कुछ छोटे-मोटे दस्तावेज को छोड़ कर हिंदी में प्राय: कामकाज नही होता. हां जहां हिंदी अधिकारियों के स्तर पर या कार्यालय प्रमुखों के स्तर पर हिंदी के इस्तेमाल को लेकर प्रतिबद्धता दिखाई जाती है, वहां हिंदी के प्रयोग में इजाफा जरूर होता है. पर ऐसे कितने कार्यालय होंगे जिनके प्रमुखों का रवैया हिंदी को लेकर उदारतापूर्ण होगा. प्राय: हिंदी को संवैधानिक खानापूरी की भाषा मान लिया गया है इसलिए हिंदी राज्यों में भी यानी जिसे राजभाषा नियम 1976 की परिभाषा के तहत 'क' क्षेत्र (हिंदीभाषी) माना जाता है वहां भी हिंदी का शतप्रतिशत प्रयोग तो दूर, 70 प्रतिशत काम भी यथार्थ में होता हुआ नहीं दिखता. यद्यपि राजभाषा समीक्षा बैठकों या नगर राजभाषा कार्यान्वयन समितियों की बैठकों में आंकड़ों का जो लुभावना सूचकांक दिखता है वह शतप्रतिशत या 95 प्रतिशत के आसपास दिखाई देता है. इसका अर्थ यह है कि आंकड़ों में हिंदी प्रयोग का सूचकांक जितना बढ़ा- चढ़ा कर पेश किया जाता है, हकीकत उसके उलट होती है.
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कौन खींचता है हिंदी की टांग

हिंदी के शत-प्रतिशत प्रयोग की राह में बाधा पैदा करने वाले अनेक तत्व हैं. अनेक कारण हैं. सबसे पहली वजह तो यह कि हमारी शिक्षा व्यवस्था में हिंदी की पढ़ाई पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया जाता. लिहाजा एक भाषा के स्तर पर बच्चे को जिस तरह का ज्ञान होना चाहिए कि वह आगे चल कर रोजमर्रा का काम चाहे वह नौकरी हो, कारोबार संपादित कर सके, ऐसा नहीं हो पाता. पिछले दो तीन सालों में हिंदी की हालत यह हो गयी है कि उत्तर प्रदेश जैसे हिंदी प्रदेश की माध्यमिक और उच्चतर माध्यमिक परीक्षाओं में लाखों बच्चे फेल हुए हैं. जाहिर है कि मातृभाषा होते हुए भी इसकी पढ़ाई को जिस तरह नगण्य महत्त्व दिया गया है और अंग्रेजी सीखने को महत्ता दी गयी है, उसका परिणाम यह हुआ कि न तो बच्चे अंग्रेजी में बेहतर प्रदर्शन कर पाते हैं न हिंदी में. सरकारी प्राथमिक कक्षाओं में सारा ध्यान दलिया और भोजन के वितरण पर रहा है, पढ़ाई गौण; इसलिए केवल हिंदी ही नहीं, अन्य विषयों की बुनियादी तालीम भी बहुत कमजोर है. ये बच्चे  आगे चल कर माध्यमिक और उच्चतर माध्यमिक कक्षाओं में पहुंच कर न तो हिंदी में प्रवीण बन पाते हैं न अंग्रेजी में ही, जिसे आज कामयाबी की कुंजी मान लिया गया है. एक स्तर पर सरकारी स्कूल जिस जड़ता और ढिलवाही का शिकार हैं हिंदी प्रदेशों की सरकारी शिक्षा व्यवस्था की बुनियाद दिनोंदिन कमजोर हुई है. हिंदी या हिंदी माध्य‍म में आगे चल कर होने वाली पढ़ाई के लाभ-हानि के गणित का ही प्रतिफल है कि गली-गली में अधकचरे अंग्रेजी माध्यम के स्कूल खुले हैं, जहां से निकलने वाला विद्यार्थी शुरू से ही हिंदी को नजरंदाज करके चलता है. एक विषय के तौर पर उसे पढ़ने और पास करने के बावजूद उसमें वह दक्षता नहीं आ पाती कि वह सरकारी सेवाओं में आकर अपनी फाइलों का निष्पादन हिंदी में कर सके.

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सवाल है कि क्या आज इतने वर्षों में हिंदी कोई रोजगार देने वाली भाषा बन सकी है या यह केवल देश प्रेम के प्रदर्शन या 'भारत माता की जय' बोलने का माध्यम भर है. यह किसी से छिपा नहीं है कि हमारे देश में अच्छे अनुवादकों की कमी है, अच्छे भाषाकारों की कमी है, भाषाई माध्यमों में अच्छे पत्रकारों की कमी है. अंग्रेजी अखबारों की तुलना में हिंदी अखबारों का स्तर हम जानते ही हैं. मौलिक चिंतन का हिंदी में कितना अभाव है यह किसी से छिपा नहीं है. हम कह सकते हैं कि हिंदी में ऐंकर चाहिए, अनुवादक चाहिए, प्रूफ रीडर चाहिए, उद्घोषक चाहिए, संपादक चाहिए, संचालक चाहिए, धारावाहिक चाहिए, डबिंग एडिटिंग की भाषा क्षमता चाहिए, अच्छे पत्रकार चाहिए. किन्तु हम यह भी जानते हैं कि आज के दौर में भाषाई अखबारों की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है. उनका भाषाई व वैचारिक स्तर अंग्रेजी के अखबारों जैसा नहीं है. आज देशभर में पत्रकारिता के संस्थान बहुतेरे हैं, इलेक्ट्रानिक मीडिया प्रशिक्षण के संस्थान बहुतेरे हैं जहां से हर साल हजारों विद्यार्थी पढ़ कर निकलते हैं, किन्तु इन प्रिंट व इलेक्ट्रानिक मीडिया के प्रशिक्षित पत्रकारों की उतनी खपत नहीं है.  लिहाजा लाखों की फीस देने के बावजूद पत्रकारों को मिलने वाली नौकरी में स्थिरता नहीं है. अभी एक बड़े मीडिया संस्थान से दो हिंदी की लोकप्रिय पत्रिकाएं बंद की गयी हैं. हालांकि कहा जा सकता है कि ये पत्रिकाएं  कोरोना जैसी विश्वव्यापी व्याधि की भेंट चढ़ गयीं पर केवल यही नहीं, पहले से ही हिंदी पत्रिकाओं की बिक्री का स्तर व विज्ञापन आधार बहुत सुदृढ़ नहीं रहा है. इसलिए केवल कोरोना को दोष देना भी ठीक नहीं. हिंदी प्रकाशकों के यहां भी संपादकों व प्रूफ रीडरों की जरूरत ही नहीं समझी जाती जो उनके प्रकाशन का स्तर देखने से पता चल जाता है. लिहाजा सब कुछ लेखकों पर निर्भर है, संपादन, प्रूफ शोधन आदि. कहने के लिए हिंदी का बहुव्यापी प्रभाव देखा जाता है पर यह समाज में ऊपरी तौर पर है. बोलचाल की यह भाषा कारोबारी भाषा के रूप में अभी तक बहुत सफल नहीं हो पाई है. अत: हिंदी पढ़ने वालों की तादाद में भी इजाफा नहीं हुआ है. अव्‍वल विद्यार्थी विज्ञान पढ़ते हैं, इंजीनियरिंग पढ़ते हैं, कामर्स पढ़ते हैं पर मानविकी के विषय पढ़ने वाले विद्यार्थी विज्ञान की तुलना में कम होते हैं. उसमें भी उच्चतर स्तर पर भाषा के रूप में अंग्रेजी पढ़ने वाले तो मिलेंगे, हिंदी, संस्कृत व अन्य भाषाएं पढ़ने वाले कम. दूसरे शब्दों में कहा जाए तो प्रथम श्रेणी के बच्चे पहले प्रशासनिक सेवाओं में जाना चाहते हैं, उसके बाद तकनीकी व इंजीनियिरिंग सेवाओं के क्षेत्र में, बाकी सीए आदि की नौकरियों में. इस सबके बाद बचे हुए बच्चे मानविकी व भाषा इत्यादि पढ़ कर या तो अध्यापक बनने की राह पर अग्रसर होते हैं या कोई छोटा मोटा कारोबार अपनाते हैं. हिंदी, संस्कृत या भारतीय भाषाओं की पढ़ाई उन्हें  रोजगार नहीं दिला पाती.

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हिंदी: कहीं संवैधानिक विवशता भर तो नहीं

हिंदी संविधान में दिए प्रावधानों के अनुसार राजभाषा है, जो कि अंग्रेजी के साथ सह राजभाषा के रूप में है. आश्वासन और संकल्प के प्रावधानों में हिंदी संघ की राजभाषा है. इसकी लिपि देवनागरी होगी तथा अंकों का स्वरूप भारतीय अंकों का मानकीकृत रूप होगा. तथापि यह प्रावधान भी है कि संविधान लागू होने के पंद्रह वर्षां तक अंग्रेजी उन-उन कार्यों के लिए इस्तेमाल की जाती रहेगी जिन-जिन कार्यों के लिए इससे पहले उसका इस्तेमाल होता रहा है. आकलन यही था कि इन पंद्रह वर्षों में शासन प्रशासन का काम न रुके और हिंदी तब तक ऐसी क्षमता अर्जित कर ले, कार्मिक अपने अंदर वे समस्त क्षमताएं जुटा लें कि वे हिंदी में पूर्ण कामकाज कर सकें. तब हिंदी पूर्ण राजभाषा का दर्जा पा लेगी. पर ऐसा नहीं हुआ.

राजनीति के स्तर पर नेहरूवियन माडल हिंदी को संविधानसम्मत राजभाषा का दर्जा तो देता है पर वह यह नहीं चाहता था कि मुट्ठी भर अंग्रेजी पढ़े-लिखे लोगों के अधिकारों का हनन हो और हिंदी पढ़ने-लिखने वाला तबका प्रशासनिक ऊंचाइयों पर पहुंचे. लिहाजा अंग्रेजी को राजभाषा पद से हटाने की बात तो दूर, उसकी अनिवार्यता बरकरार रखते हुए 1965 के दो साल पहले ही 1963 में राजभाषा अधिनियम लाया गया, जिसका एकमात्र लक्ष्य तमाम जारी किए जाने वाले प्रशासनिक दस्तावेज का द्विभाषीकरण अनिवार्य बनाना था, जिससे अंग्रेजी दां तबके का कोई नुकसान न हो. जहां तक हिंदी पत्राचार की बात थी उसमें सरकार की उदारता बस इतनी थी कि हिंदी भाषी प्रदेशों के कार्यालयों विभागों को हिंदी में पत्र लिखे जाएं, पर यदि हिंदीतर प्रदेशों के कार्यालयों, विभागों से  हिंदी में पत्राचार किया जाए तो उसका अंग्रेजी अनुवाद भी साथ-साथ भेजा जाए, जिससे संप्रेषण में बाधा न हो. यह हिंदी के प्रयोग की राह में टांग अड़ाना ही कहा जाएगा, क्योंकि ऐसी स्थिति में हिंदी में पत्र लिखकर कौन भला पुन: उसके अग्रेजी अनुवाद पर दुगुनी मेहनत करेगा. संविधान के प्रावधानों की बंदिश तो यहां तक है कि जब तक एक भी राज्य हिंदी को राजभाषा के रूप में स्वीकार नहीं करता, हिंदी के पूर्ण और एकमात्र राजभाषा बनने की राह अधूरी रहेगी. भारत की शिक्षा नीति में भी हिंदी को वह महत्त्व नहीं दिया गया जो राजभाषा होने के नाते दिया जाना चाहिए.
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हिंदी में ई-टूल्स और तकनीकी सहाय्य

ऐसा नहीं है कि हिंदी के प्रयोग की राहें आसान नहीं हुईं. राजभाषा प्रावधान लागू होने, नियम, उप नियमों आदि के अधीन दिए गए निर्देशों का अनुपालन कुछ हद तक हुआ तो पर यह सम्यक नहीं कहा जा सकता. जहां दूसरे विकसित देशों में उनकी अपनी भाषाएं ही प्रयोग में हैं, हमारे यहां बहुभाषिकता की संस्कृति के कारण राज्यों में क्षेत्रीय भाषाएं हैं, वहां पर उन माध्यमों में पठन-पाठन है, राजभाषा होने के नाते हिंदी भी पाठ्यक्रमों का हिस्सा है. हिंदी भाषी राज्यों में जहां यह माध्यम है वहीं अहिंदी भाषी राज्यों में यह एक विषय के रूप में पढ़ाई जाती है या नहीं भी पढ़ाई जाती. जबकि इसे हाईस्कूल तक अनिवार्य होना चाहिए. तथापि, यदि हम 1950 से लेकर अब तक की हिंदी की संवैधानिक यात्रा के विकास को देखें तो निराशा का कोई कारण नहीं दिखता. पहले कामकाज की पूरी  दुनिया कागजी थी. हिंदी में टंकण सीखना सबके लिए सरल न था. कम्यूटर की दुनिया ने अब सब कुछ आसान कर दिया. पहले न छपाई व मुद्रण आसान था, न हिंदी में कामकाज. सारा कुछ हस्तलिखित होता था पर तब हिंदी में काम करने का एक जज्बा था. जैसे-जैसे तकनीकी सुविधाएं हिंदी में बढ़ीं, शब्दकोश बनाए गए. अनुवाद के प्रशिक्षण कार्यक्रमों का विस्तार हुआ. संस्थानों में गृह-प्रशिक्षण की उपलब्धता हुई, कामकाजी हिंदी के पथ-प्रशस्त हुए हैं. राजभाषा विभाग के स्तर पर अनेक प्रयत्न ऐसे हुए हैं कि कोई चाहे तो बिना किसी की सहायता से हिंदी का कार्यसाधक ज्ञान हासिल कर सकता है. सरकार की हिंदी स्वयं-शिक्षण योजना के तहत कोई भी प्रबोध प्रवीण व प्राज्ञ की परीक्षाएं उत्तीर्ण कर सकता है. ऑन लाइन लीला हिंदी प्रवाह के जरिए कार्यसाधक स्तर तक की हिंदी सीखना बहुत आसान है. राजभाषा विभाग ने बोल कर हिंदी लिखाने के लिए श्रुतलेखन स्पीच टू टेक्स्‍ट अप्लीकेशन तैयार की है, हालांकि इससे बहुत शुद्ध परिणाम नहीं मिलता. इससे बेहतर गूगल व अन्य प्लेटफार्म पर स्पीच टू टेक्स्‍ट अप्लीकेशन्सन हैं, जहां बोल कर 80 प्रतिशत तक शुद्ध परिणाम हासिल किए जा सकते हैं.

हिंदी के प्रयोग में अनुवाद बहुत बाधक रहा है. हमारे समाज में न अच्छे भाषाविद हैं न अच्छे अनुवादक. सरकारी विभागों में अधिकांश में कार्यालयी अनुवाद किया जाता है पर वहां भी अक्सर अधकचरे अनुवाद ही प्रस्तुत किए जाते हैं. विभिन्न अनुशासनों वाणिज्य, राजस्व, कृषि, विज्ञान, अभियांत्रिकी व बैंकिंग आदि में जिस तरह के तकनीकी अनुवाद की आवश्यकता होती है, आज भी वहां पर दक्ष अनुवाद व्यवस्थाएं नहीं हैं. राजभाषा विभाग ने इस समस्या के हल के लिए मंत्र-मशीनी अनुवाद अप्लीकेशन तैयार किया, पर इससे बेहतर गूगल ट्रांसलेशन पैकेज हैं जहां अधिकतम शुद्ध तकनीकी अनुवाद प्राप्त किए जा सकते हैं. बल्कि गूगल ने व्यापक पैमाने पर बहुभाषी अनुवाद के पैकेज तैयार किए हैं, जहां गूगल ट्रांसलेशन प्लेटफार्म पर स्रोत भाषा के पाठ डाल कर लक्ष्य भाषा में अनूदित पाठ प्राप्त किया जा सकता है. अब पाठ को पढ़ने के लिए टेक्‍स्‍ट टू स्पीच साफ्टवेयर भी कार्य कर रहे हैं. बल्कि बेबसाइट्स एवं ऑनलाइन प्रदत्त. पाठ्य सामग्री के वाचन के लिए इस विधि का सर्वाधिक प्रयोग किया जा रहा है. इसके अतिरिक्त ई-महाशब्दकोश भी राजभाषा विभाग ने तैयार किया है. हालांकि अब शब्दकोश हिंदी की राह में बाधक नहीं हैं. सब कुछ ऑनलाइन उपलब्ध है. वाक्य-संरचना से लेकर पत्र के कैसे भी प्रारूप का हिंदी प्रतिरूप या अंग्रेजी प्रतिरूप आसानी से प्राप्त किया जा सकता है.

हिंदी ई-टूल्स की उपलब्धता पहले से बहुत उन्नत है. हिंदी के बेहतरीन फांट्स, कम्यूटर कंपोजिंग, पेजमेकर, क्वार्क व इनडिजाइन आदि प्लेटफार्म पर प्रकाशन में हिंदी की बेहतरीन सुविधाएं मौजूद हैं. मोबाइल ही हिंदी के तमाम समाधानों का केंद्र बन चुका है. उसके लिए आज किसी लिखित साहित्य या पुस्तक की भी कोई दरकार नहीं है. तथापि इन ई-टूल्स को हम सरकारी संस्थानों में उस स्तर पर प्रचारित नहीं कर पाए कि हिंदी का शतप्रतिशत प्रयोग संभव हो सके. पहले हिंदी न जानने का संकट था,  आज वह संकट नहीं है. पहले शब्दों के अर्थ व प्रयोग का संकट था, आज वह संकट भी नहीं है. पहले धारा 3(3) के सांविधिक दस्तावेज़ के द्विभाषिक प्रस्तुतीकरण व अनुवाद का संकट था, आज वह संकट नहीं है. गूगल ने सब कुछ कितना आसान कर दिया है. तब भी सरकारी विभागों में हिंदी में हाथ तंग है. अधिकारी फाइलों पर अंग्रेजी में नोटिंग करने की आदत से, तो कर्मचारी अंग्रेजी में प्रविष्टियों व काम करने की आदत से बाज नहीं आते. लिहाजा ई-टूल्स का जैसा व्यापक उपयोग होना चाहिए था, वह कामकाज में परिलक्षित होता नहीं दिखता. हां, सोशल मीडिया पर हिंदी की बहार है. स्टेटस, ब्लाग्स, वेबसाइट्स, ट्विटर आदि पर हिंदी दिख रही है. मेल हिंदी में भेजे जाने आसान हो गए हैं. कोई लेख, कविता या व्याख्यान हिंदी में तैयार करने में अब कोई मुश्किल नहीं है. फिर भी हिंदी में कामकाज की जड़ता अभी पूरी तरह नहीं टूटी है.
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विदेशी हिंदीविदों ने भी रचा एक अनूठा माहौल

इसके बावजूद कि अपने देश में हिंदी को जो स्थान मिलना चाहिए था, नहीं मिल सका है. परन्तु भूमंडलीकरण हो जाने के बाद से दुनिया का ध्यान हमारे देश पर टिका है. विदेशी छात्र केंद्रीय हिंदी संस्थान के केंद्रों के माध्य‍म से हिंदी सीख रहे हैं. अनेक विदेशी विद्वान हिंदी में महारत रखते हैं, जैसे जर्मन नागरिक व स्वीडेन की उपस्सला युनिवर्सिटी के प्रोफेसर हेंज वर्नर वेस्सलर, इटली की विदुषी लेखिका अनुवादिका मरियोला ओफ्फ्रेदी, पोलिश हिंदी विदुषी दानुता स्ताशिक, पोलिश लेखिका व हिंदी विदुषी रेनाता चेकाल्स्का ऐसे बहुतेरे नाम हैं जो हिंदी का परचम विदेशों में फहरा रहे हैं. विदेशों में हिंदी की विद्वत्परंपरा में हम जर्मन भाषी लोठार लुत्से, रूसी कवि व हिंदीविद् अलेक्सांद्र सेंकेविच, हंगरी निवासी हिंदी विद इमरै बंघा, अमेरिका के यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्सास, ऑस्टिन में प्रोफेसर ब्रिटिश हिंदी विद्वान रूपर्ट स्नेल, हिंदी साहित्य् की सुपरिचित अंग्रेजी अनुवादिका जिलियन राइट, भारत में रहे विदेशी हिंदी विद्वान व कोशकार फादर कामिल बुल्के, रूस के बारान्निजकोव, उत्तर-आधुनिक हिंदी साहित्य का परिचय अंगरेजी के माध्यम से विश्व साहित्य से कराने में सेतु का काम करने वाले अमेरिका के यूनिवर्सिटी ऑफ वर्जिनिया में प्रोफेसर रॉबर्ट ह्युक्सडेट, जापान में हिंदी के प्रोफेसर रहे तोमियो मिजोकामी जैसी  महाविभूतियों के योगदान को भला कौन भूल सकता है. मैं तो समझता हूँ प्रवासी लेखकों से ज्यादा महत्त्वपूर्ण इन विदेशी हिंदी विद्वानों का है जिन्होंने इस देश की भाषा सीखी व अपने-अपने देशों में हिंदी का प्रचार प्रसार व अध्यापन कर रहे हैं तथा भारतीय संस्कृति का पूरे विश्व में प्रसार कर रहे हैं. ये सभी विद्वान अपने अपने क्षेत्र और अनुशासनों के अग्रणी हस्ताक्षर हैं किन्तु हिंदी को लेकर इनका काम पूरे विश्व में सराहा जाता है. विदेशी हिंदी सेवियों की सूची बनाई जाए तो ऐसे सैकड़ों विद्वान होंगे जो विभिन्न देशों में हिंदी के प्रसार, शोध व अध्ययन की दिशा में कार्यरत हैं. कहना न होगा कि अनेक विदेशी विश्वविद्यालयों में हिंदी पढ़ाई जाती है और उनके पाठ्यक्रम बहुत उन्नत हैं. जरूरत है विदेश में हिंदी के अध्ययन व अध्यापन की दिशा में और कार्य किए जाने की ताकि हिंदी का रुतबा विदेश में और बुलंद हो तथा हिंदी व हिंदी भाषियों को सम्मान की नज़र से देखा जाए.

अनेक कारणों से हिंदी संपर्क व संप्रेषण की भाषा होने के बावजूद यह भारत में ही जितनी दिखनी चाहिए नहीं दिखती. पूरी दुनिया को भारतीय संस्कृति व सभ्यता का संदेश देने वाला भारत खुद बात-बात पर अंग्रेजी बोलता हुआ नजर आता है. मैंने अपने निजी संपर्कों से पाया कि इटली की मरियोला ओफ्फ्रेदी हिंदी में ही बात करती थीं तथा बातचीत में एक भी अंग्रेजी शब्द आने पर टोंक देती थी. हेंज वर्नर वेस्सलर से भी सारी बातचीत, मेल व चैट इत्यादि हिंदी में होते हैं तथा वे हिंदी के प्रयोग को लेकर कितने उदात्त भाव से भरे दिखते हैं. क्या यही उदात्तता हिंदी को लेकर हमारे हिंदीभाषियों में व भारत के अन्य भाषाभाषियों के मन में है. जाहिर है कि इसका उत्त‍र 'नहीं' है. इसे 'हां' में बदलने के लिए हमें सबसे पहली अपनी भाषा व इस राष्ट्रभाषा का सम्मान करना होगा अन्यथा संविधान की आठवीं अनुसूची की भाषा न होते हुए भी अंग्रेजी व अंग्रेजियत हम पर सदैव राज करती रहेगी.
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#डॉ ओम निश्चल आलोचक, कवि एवं भाषाविद हैं. शब्दों से गपशप, भाषा की खादी, शब्द सक्रिय हैं, खुली हथेली और तुलसीगंध सहित कई पुस्तकें प्रकाशित है. कई संपादित कृतियां व आलोचनात्मक कृतियां भी प्रकाशित हो चुकी हैं. ढेरों साहित्य सम्मान से नवाजे जा चुके हैं. संपर्कः जी-1/506 ए, उत्तम नगर, नई दिल्ली 110059. मेल dromnishchal@gmail.com

 

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