चाय की चुस्की लेते फौजी जब कभी साल 1962 के वेलोंग युद्ध का जिक्र करते तो उनकी पलकें भीग जाती थीं, लेकिन तभी हवा का कोई झोंका उन्हें जैसे साहस का सबंल दे जाता और वो बोल पड़ते... अरे दस-दस को मारा था वहां पर.. इसी तरह तोलोलिंग की चोटी पर बीस दिन से भारतीय जवान शहीद हो रहे थे. आखिरी हमले की रात वे दुश्मन के बंकर के बेहद करीब पहुंच गए, लेकिन तभी गोलियों की बौछार हो गई. वे घायल थे, लेकिन वापसी उन्हें मंजूर नहीं थी. शरीर से बहते खून की परवाह किए बिना उन्होंने एक ग्रेनेड दागा और कारगिल में भारत को पहली जीत मिल गई. उसके सामने 100 चीनी सिपाही खड़े थे; गिनती की गोलियां बची थीं, लेकिन मातृभूमि का कर्ज चुकाते वक्त उसके हाथ नहीं कांपे और उसने युद्ध के मैदान को दुश्मन सिपाहियों का कब्रिस्तान बना दिया. ये भारतीय सेना की वे युद्ध गाथाएं हैं, जो आप शायद आज तक नहीं जान पाए होंगे...देश जश्न-ए-आजादी की 75वीं वर्षगांठ मना रहा. इसलिए साहित्य आजतक अगले कुछ समय तक लगातार ऐसी किताबों और नायकों पर लिखी पुस्तकों के अंश के साथ आपसे रूबरू हो रहा, जिनसे यह राष्ट्र बना. जिन्होंने इस राष्ट्र को अपने बलिदान और खून से सींचा. इसी क्रम में आज दिनेश काण्डपाल की लिखी प्रभात प्रकाशन से छपी पुस्तक पराक्रम का अंश
पुस्तक अंशः पराक्रम, बडगाम की लड़ाई ने कश्मीर बचा लिया
1948 वीर भोग्या वसुंधरा
14-15 अगस्त, 1947 को दुनिया ने धर्म के नाम पर सबसे क्रूरतम विभाजन देखा. एशिया में पहली बार धर्म के नाम पर कोई देश बना और सरहद की ये लकीरें आनेवाली पीढ़ियों के लिए नासूर बन गईं. पहले 14 अगस्त को पाकिस्तान आजाद हुआ और रात 12 बजे जब तारीख बदलकर पंद्रह अगस्त हो गई, तब भारत की आजादी की घोषणा की गई.
15 अगस्त, 1947 को जब भारत ने आजादी का सवेरा देखा, तभी उसे क्षितिज पर उगते सूरज के साथ वे चुनौतियाँ भी दिखनीं शुरू हो गईं, जो अब अंदर से ही आनेवाली थीं. अंग्रेजों ने सभी राजाओं को यह विकल्प दिया था कि वे चाहें तो भारत या पाकिस्तान किसी के भी साथ जा सकते हैं, उन्हें यह मौका भी दिया गया कि वे खुद को आजाद मुल्क के तौर पर घोषित कर सकते हैं. जम्मू-कश्मीर समेत देश के अंदर कई सूबे थे, जो अंग्रेजों के प्रस्ताव की आड़ में अलग मुल्क बनाने का सपना देखने लगे. इन राजाओं ने कभी भी अपनी प्रजा की इच्छा का सम्मान नहीं किया. भारत और पाकिस्तान का विभाजन धर्म के आधार पर हुआ और इसी को आधार बनाकर कुछ रजवाड़े नई चालें चलने लगे. पाकिस्तान की नजर पहले दिन से ही जम्मू-कश्मीर पर लग गई थी. 2 लाख 22 हजार वर्ग किलोमीटर से ज्यादा का क्षेत्रफल रखनेवाले इस पहाड़ी राज्य में मोहम्मद अली जिन्ना अपने आखिरी दिन गुजारना चाहते थे. यह राज्य प्राकृतिक तौर पर समृद्ध है, इसलिए पूरी दुनिया के पर्यटक लाखों की तादात में यहां आते हैं. प्रकृति के इस वरदान को पाकिस्तान की बुरी नजरों ने पहले दिन से ही साजिशों के हवाले कर दिया.
जम्मू-कश्मीर के महाराजा हरिसिंह स्वतंत्र रहना चाहते थे, लेकिन सामरिक स्थितियों को देखते हुए उन्हें यह सलाह दी गई कि अगर वे अलग रहे तो कश्मीर उनके हाथ से निकल जाएगा. हरिसिंह ने भारत और पाकिस्तान के सामने यथास्थिति का प्रस्ताव रखा, पाकिस्तान ने फौरन इसे मान लिया, जबकि भारत ने अपनी स्थिति साफ करते हुए कहा कि यह प्रस्ताव मंजूर नहीं है. इधर महाराजा हरिसिंह समय ले रहे थे, वहीं पाकिस्तान ने जम्मू-कश्मीर को हड़पने के लिए पहला बड़ा दाँव चल दिया था. भारत इस मामले में सुस्ती दिखा रहा था, जवाहरलाल नेहरू को उम्मीद थी कि कश्मीर खुद भारत के पास चला आएगा, इसलिए वे शेख अब्दुल्ला को दिल्ली में दावतें दे रहे थे. इतिहासकार और कई जानकारों ने तो यह भी लिखा है कि जब महाराजा हरिसिंह ने भारत से मदद माँगी तो उनका सचिव भारतीय मंत्रियों के दफ्तर के चक्कर लगाता रहा, लेकिन उसे किसी ने पूछा तक नहीं.
इस बीच 2 अक्तूबर, 1947 को जम्मू-कश्मीर की राजनीतिक पार्टी नेशनल कॉन्फ्रेंस की वर्किंग कमेटी ने प्रस्ताव पास करके यह फैसला किया कि जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय का समर्थन किया जाएगा. इस प्रस्ताव से पाकिस्तान के कान खड़े हो गए, उसने तुरंत एेक्शन लिया. पाकिस्तान ने कबाइलियों के बीच अपने फौजियों को रखा और कश्मीर पर आक्रमण कर दिया. यह लड़ाई भी धर्म के नाम पर लड़ी जा रही थी और आक्रमणकारी कबाइलियों में पाकिस्तानियों के साथ-साथ अफगान लड़ाके भी थे. इन कबाइलियों ने कश्मीर में घुसते ही लूट-पाट मचा दी और बारामूला के रास्ते श्रीनगर की तरफ बढ़ने लगे. बारामूला शहर के अंदर हिंदुओं को चुन-चुनकर मारा जाने लगा, उनके घरों को आग लगा दी गई, माँ-बहनों की इज्जत से खिलवाड़ किया गया. इस अराजकता को रोकने के लिए महाराजा हरिसिंह के पास कुछ नहीं था.
कश्मीर के हालात की खबरें दिल्ली तक पहुँच रही थीं. भारत के गवर्नर जनरल माउंटबेटन तब तक कश्मीर में फौज भेजने के पक्ष में नहीं थे, जब तक महाराजा हरिसिंह विलय के दस्तावेजों पर दस्तखत न कर दें. इस बीच कबाइलियों और श्रीनगर के बीच की दूरी कम होने लगी. 20 अक्तूबर, 1947 तक हरिसिंह को यह समझ आ गया कि इन हमलावरों को अगर नहीं रोका गया तो कश्मीर तो उनके हाथ से निकलेगा ही, उनका खुद का इकबाल भी खत्म हो जाएगा. आखिरकार 26 अक्तूबर, 1947 को हरिसिंह ने विलय के दस्तावेजों पर दस्तखत कर दिए. 27 अक्तूबर को भारतीय फौज को कश्मीर की रक्षा करने का हुक्म सुना दिया गया.
यह कहानी आजाद भारत की पहली लड़ाई के तौर पर भी जानी जाती है. यह युद्ध उस वक्त हुआ, जब भारतीय सेना की न तो तैयारी थी और न ही उसे अंदेशा था कि ये नौबत आ सकती है. हथियार और गोला-बारूद के साथ-साथ दूसरे संसाधन भी सीमित मात्रा में ही उपलब्ध थे, लेकिन संसाधनों की कमी कभी साहस के आड़े नहीं आई. भारतीय शूरवीरों के पराक्रम को न तो तैयारी की जरूरत पड़ी और न ही किसी बड़े हथियार की. अपनी रायफल और चौकन्नी निगाहों से उन्होंने दुश्मन का खात्मा कर दिया.
पाकिस्तान अपने सैनिकों को कश्मीर में भेजकर दुनिया की नजर में खलनायक नहीं बनना चाहता था, इसलिए उसने दूसरे रास्ते अपनाए. अपने ही कुछ जवानों के साथ 700 कबाइलियों को श्रीनगर पर कब्जा करने के लिए भेज दिया. पाकिस्तान ने इन आतंकियों को खतरनाक हथियार मुहैया करवाए और यह उम्मीद रखी कि घाटी के लोग उसके समर्थन में उतर आएँगे.
1 नवंबर, 1947 को 500 से ज्यादा आतंकी श्रीनगर के करीब पहुँच गए. भारतीय सेना को किसी भी कीमत पर श्रीनगर की रक्षा का आदेश दिया गया और ऑपरेशन शुरू हो गया. मेजर सोमनाथ शर्मा के नेतृत्व में 4 कुमाऊँ ने वीरता की वह कहानी लिखी, जिससे न केवल आतंकियों की टुकड़ी बर्बाद हो गई, बल्कि पाकिस्तान का पूरा प्लान ही फेल हो गया.
महाराजा हरिसिंह को दिए गए भरोसे के मुताबिक सबसे पहले श्रीनगर एयरपोर्ट की सुरक्षा सुनिश्चित की जानी थी. पाकिस्तानी आतंकी तीन तरफ से श्रीनगर को घेर रहे थे. एक जत्था वूलर झील के उत्तर से शहर की तरफ बढ़ रहा था, दूसरा मुजफ्फराबाद-बारामुला-पाटन के रास्ते से आ रहा था और तीसरा जत्था गुलमर्ग की तरफ से श्रीनगर को घेरने की फिराक में था. ये खबरें लगातार आ रही थीं कि ‘आतंकियों का एक बड़ा जत्था श्रीनगर की ओर कूच कर रहा है’, लेकिन कोई ठोस सूचना किसी के पास नहीं थी. आतंकी इतनी तेजी से श्रीनगर की ओर बढ़ रहे थे कि वे जल्द ही श्रीनगर के एयरपोर्ट पर कब्जा करके भारतीय जहाजों को आने से रोक सकते थे. इतना ही नहीं वे पाटन के दक्षिण से बिना किसी रुकावट के श्रीनगर में घुस सकते थे.
इस नाजुक मौके पर जिस ब्रिगेड को श्रीनगर की सुरक्षा की जिम्मेदारी सौंपी गई, वह पंजाब में रिफ्यूजियों की सुरक्षा के लिए लगाई गई थी. रातोंरात उसे श्रीनगर की सुरक्षा के जिम्मेदारी दी गई. भारतीय सैनिकों को केवल श्रीनगर एयरपोर्ट, मगाम और पाटन में तैनात किया गया. महाराजा हरिसिंह की रियासत के सुरक्षा गार्डों को वूलर झील के उत्तर में टोह लेने का काम दिया गया.
मेजर सोमनाथ शर्मा 4 कुमाऊँ का नेतृत्व कर रहे थे, उनके एक हाथ में प्लास्टर बंधा हुआ था, उसी हालत में उनकी पूरी कंपनी को हवाई जहाज से श्रीनगर में उतारा गया.
161 इन्फेंट्री ब्रिगेड के ब्रिगेडियर एल.पी. सेन की श्रीनगर में नई तैनाती थी, उन्होंने तय किया कि बडगाम में एक मजबूत पेट्रोलिंग पार्टी भेजी जाए, जो पूरा इलाका देखे, साथ ही बडगाम और मगाम के बीच में आतंकियों की हरकतों का जायजा ले सके. पेट्रोल में 4 कुमाऊँ को आगे रहना था, जबकि 1 कुमाऊँ को उनकी मदद के लिए तैयार किया गया. 1 कुमाऊँ को आगे जाकर मगाम में 1 पंजाब से संपर्क करना था और सड़क के रास्ते लौटकर आना था. इस बीच अगर दुश्मन से कोई संपर्क नहीं हुआ तो 4 कुमाऊँ को बडगाम से ही लौट आना था.
3 नवंबर, 1947 को मेजर सोमनाथ शर्मा की कमान में 4 कुमाऊँ की डी कंपनी ने पेट्रोल की बागडोर सँभाली. पेट्रोल बिना किसी रुकावट के बडगाम पहुँच गया. दुश्मन की कोई हरकत नजर नहीं आ रही थी, लिहाजा पेट्रोल को दोपहर 3 बजे तक वापस लौट जाना था. पेट्रोल सुबह 11 बजे तक बडगाम पहुँच गया. काफी देर तक कोई हरकत नहीं हुई. अभी सूरज सिर पर ही था और भारतीय टुकड़ी चौकन्नी होकर आसपास नजर रख रही थी, करीब दो बजे बडगाम गाँव के पास मेजर सोमनाथ शर्मा को कुछ हरकत दिखाई दी. मेजर सोमनाथ शर्मा समझ गए कि बडगाम गाँव में हो रहीं हरकतें ध्यान बाँटने की कोशिश है, जबकि आतंकी हमले की तैयारी पश्चिम से कर रहे थे. आखिर वही हुआ, जिसका अनुमान मेजर सोमनाथ शर्मा ने लगाया था. आतंकियों ने पश्चिम से हमला बोल दिया. थोड़ी ही देर में मेजर सोमनाथ शर्मा की कमानवाली डी कंपनी को दुश्मन ने तीन तरफ से घेर लिया और भारी गोलाबारी शुरू कर दी. भारतीय सेना की टुकड़ी को भारी नुकसान हुआ. मेजर शर्मा जल्द ही ये भाँप गए कि अगर उन्होंने अपनी चौकी छोड़ी तो दुश्मन के लिए श्रीनगर पर कब्जा करना आसान हो जाएगा और अगर एक बार श्रीनगर का एयरपोर्ट आतंकियों के हाथ में आ गया तो फिर फौज के लिए बड़ी मुसीबत खड़ी हो सकती थी. भारतीय सेना के एक जवान के मुकाबले में सात आतंकी थे. मेजर सोमनाथ ने अपनी कंपनी का बहादुरी से नेतृत्व करना शुरू कर दिया. दुश्मन की गोलाबारी की परवाह किए बगैर वे एक पोस्ट से दूसरी पोस्ट तक जाकर जवानों का हौसला बढ़ाते रहे. मेजर शर्मा का एक हाथ पहले से ही जख्मी था, उन्होंने इसकी परवाह किए बगैर अपने जवानों तक गोला-बारूद पहुँचाना शुरू कर दिया. नौबत यहां तक आ गई कि एक ही हाथ से मैगजीन भरते थे और उसे जवानों को दे देते थे.
मेजर सोमनाथ शर्मा दुश्मन को नाको चने चबवा रहे थे, उसी वक्त एक गोला उनके पास रखे गोला-बारूद पर गिरा और वे शहीद हो गए. अपनी शहादत के कुछ मिनट पहले ही उन्होंने ब्रिगेड हेडक्वार्टर को एक मैसेज भेजकर कहा था, "दुश्मन हमसे केवल 50 गज की दूरी पर हैं, हमारी तादात बहुत कम है. मैं अपनी एक इंच जमीन भी नहीं छोड़ूँगा, बल्कि आखिरी जवान और आखिरी गोली तक लड़ूँगा." साहस और शौर्य की अदम्य मिसाल कायम करके मेजर सोमनाथ शर्मा शहीद हो गए.
ब्रिगेडियर सेन ने फौरन 1 पंजाब को मगाम खाली करके श्रीनगर पहुँचने का हुक्म दिया. साँझ होने से पहले 1 पंजाब श्रीनगर पहुँच चुकी थी और उसे बडगाम फीचर की जिम्मेदारी दे दी गई. तब तक कुमाऊँ रेजीमेंट की इस बहादुर बटालियन ने अपनी जगह नहीं छोड़ी. मेजर शर्मा की कंपनी ने 200 आतंकियों को मार गिराया. आतंकियों का कमांडर भी घायल हो गया, बाकि आतंकी इतना डर गए कि आगे बढ़ने का साहस ही नहीं जुटा सके. भारतीय सैनिकों की इस छोटी सी टुकड़ी ने आतंकियों के सहारे कश्मीर को जीतने का पाकिस्तानी सपना ध्वस्त कर दिया था. मेजर सोमनाथ शर्मा को इस साहस के लिए मरणोपरांत परमवीर चक्र दिया गया.
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पुस्तकः पराक्रम
लेखकः दिनेश काण्डपाल
भाषाः हिंदी
विधाः सैन्य इतिहास
प्रकाशकः प्रभात प्रकाशन
पृष्ठ संख्याः 144
मूल्यः 200 रुपए