किताब: कई चांद थे सरे-आसमां
शायर: शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी
प्रकाशक: पेंगुइन बुक्स
कीमत: 399 रुपये
'...कुछ बीज न जाने कैसे होते हैं कि एक बार मन में उग जाएं, तो फिर चाहे कैसी भी आंधियां आएं, सूखा पड़ जाए, उनके पत्ते झड़ जाएं, टहने टूट जाएं, पर वे जड़ों से नहीं उखड़ते. ये ताउम्र बने रहते हैं'. 'कई चांद थे सरे-आसमां' को पढ़ते हुए यह ख्याल और पुख्ता हुआ. तकरीबन 750 पेज में शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी ने कमाल की किस्सागोई की है. मिटती बादशाहत के साए में समाज और उसके शायर एवं फनकार जीव के बदलते चेहरों को जिस करीने से शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी ने उकेरा है, वाकई लाजवाब है. ऐसे ही इंसान के मन में उगने वाले बीज आंखों को भी चढ़ता है, ख्यालों को भी चढ़ता है और सपनों को भी चढ़ता है.
कई चांद थे सरे-आसमां कि चमक-चमक के पलट गए
ना लहू ही मेरे जि़ग़र में था ना तुम्हारी जुल्फ़ स्याह थी
- अहमद मुश्ताक़
मशहूर शायर अहमद मुस्ताक़ की दो पंक्तियों में से इस उपन्यास का शीर्षक लिया गया है. कहानी 18वीं सदी से शुरू होती है और फिर दिल्ली की मिटती बादशाहत के बीच शायरों, फनकारों की जिंदगी से रू-ब-रू होते रफ्ता-रफ्ता आगे बढ़ती है. इस पूरे उपन्यास में उस दौर की कई गज़लों को पढ़ने का मौका मिलेगा. साथ ही यह समझने का मौका भी मिलता है कि समाज के शायर, फ़नकार और आम इंसान कैसे अपनी जिंदगी, जज़्बाती और रूहानी तौर पर मुकम्मल होने की तलाश किया करते थे.
इस उपन्यास को पढ़ते हुए इस बात का कभी इल्म तक नहीं होता है कि यह मूल रूप से उर्दू में लिखी गई रही होगी. किस्सागोई का अंदाज़ भी काफी रोचक है. यह आपको कभी ठहरने नहीं देगा. भाषा में प्रवाह है. शब्दों की रवानगी ऐसी है कि व़क्त के हरेक पल को आप जीते हुए महसूस कर सकते हैं. उपन्यास में उस दौर में प्रचलित शब्दों का काफी करीने से उपयोग किया गया है. सबसे अच्छी बात यह भी है कि ग़ज़ल का हिंदी तर्जुमा काफी सुंदर किया गया है. पाठकों को इसे समझने में सहूलियत होती है.
मूल रूप से उर्दू में लिखी गई इस उपन्यास का हिंदी में काफी उम्दा अनुवाद नरेश 'नदीम' ने पेश किया है. इस उपन्यास का हिंदी में अनुवाद करने वाले नरेश 'नदीम' अंग्रेज़ी, उर्दू और पंजाबी की कई पुस्तकों का भी अनुवाद कर चुके हैं. हिंदी अकादमी दिल्ली से वर्ष 2000 में 'साहित्यकार सम्मान' और उर्दू अकादमी दिल्ली से वर्ष 2002 में 'भाषाई एकता पुरस्कार' से सम्मानित नरेश 'नदीम' फिलहाल एक अंग्रेज़ी साप्ताहिक से जुड़े हुए हैं.
दो शब्द लेखक के विषय में:
उर्दू और अंग्रेज़ी में कई आलोचना ग्रंथ लिखने वाले शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी को वर्ष 1996 में भारतीय उपमहाद्वीप के सबसे बड़े साहित्यिक पुरस्कार 'सरस्वती सम्मान' दिया गया था. फ़ारूकी ने 40 साल तक उर्दू की जानी-मानी साहित्यिक पत्रिका 'शबख़ून' (मासिक) का संपादन किया है. 'कई चांद थे सरे-आसमां' पहली बार 2005 में उर्दू में छप कर आई थी. 2010 में इसका हिंदी संस्करण छपा जिसका अनुवाद नरेश 'नदीम' ने किया. 2013 में यह उपन्यास अंग्रेजी में प्रकाशित हुई जिसका अनुवाद खुद लेखक ने किया था.
...और अंत में
'जब तक सांस में बातचीत का तार है, मतलब की बात बुनी जा सकती है'. अगर आप चाहते हैं खुद को उस दौर में महसूस करना, ग़ालिब, ज़ौक, दाग़, बहादुरशाह ज़फ़र, मलिका ज़ीनत महल जैसे वास्तविक किरदारों की ख्यालातों में खुद को तलाशना, जि़ंदगी, मुहब्बत और फ़न की तलाश की दास्तान सुनना तो जरूर पढ़ें इस कालजयी कृति को.