किताबः खुशवंतनामा - मेरे जीवन के सबक
लेखकः खुशवंत सिंह
कीमतः 125 रुपये
प्रकाशकः पेंग्विन बुक्स हिंदी
सबसे ऊपरः अपने आपके लिए सच्चे बनो
और इसके बाद यह जरूर हो,
जैसे कि रात के बाद दिन होता है,
कि किसी के लिए झूठे मत बनो.
देश के सबसे मजेदार सरदार खुशवंत सिंह अब हमारे बीच नहीं हैं. पर क्या वाकई चुटकुलेबाज बुड्ढा चला गया. नहीं, जब तक उसकी एक भी किताब इस धरती का एक भी जीव पढ़ रहा है, खुशवंत बना हुआ है. ये एहसास खुशवंत की आखिरी किताब खुशवंतनामा - मेरे जीवन के सबक, पढ़कर और भी गहरा हुआ. ऊपर आपने जो पंक्तियां पढ़ी हैं, वह शेक्सपीयर की लिखी हैं. उनके नाटक हैमलेट से हैं. खुशवंत ने अपनी इस पतली मगर मार्के की किताब की शुरुआत इन्हीं लाइनों से की है. और कहना न होगा कि तमाम जिंदगी सरदार साहब ने इस लिखे पर मुकम्मल अमल किया.
तो क्या है खुशवंतनामा. ये देश, समाज और जीवन के तमाम पहलुओं पर लेखक, पत्रकार, राजनयिक, विचारक, गपोड़ी, उपन्यासकार खुशवंत सिंह के सूत्र हैं. इनकी शुरुआत खुशवंत सिंह अपनी पड़ोसन रीता वर्मा के दिए लैंप से करते हैं. यानी यकीन दिलाते हैं कि बात भले ही दर्शन जीवन की होने जा रही हो, मगर इसे सूखा नहीं रहने दिया जाएगा.
खुशवंत सिंह पहले अध्याय में कभी भरतपुर में किए शिकार की तो कभी अपनी कामुकता और फिर संन्यास की बात करते हैं. फिर वह अपनी जीवनचर्या के सहारे कुछ खिड़कियां खोलते हैं. फ्रांसीसी स्वाद लोलुप ब्रिलाट के हवाले से लिखते हैं कि आप मुझे बता दीजिए कि आप क्या खाते हैं और मैं आपको यह बता दूंगा कि आप क्या हैं. इस लाइन पर अमल करते हुए खुशवंत हमें अपने बारे में सिलसिलेवार ढंग से खाने के सहारे बताते हैं.
फिर अगले अध्याय में खुशवंत बताते हैं कि सेवानिवृत्ति के बाद क्या क्या किया जा सकता है और किन चीजों के सहारे सुकून से दिन काटे जा सकते हैं. वह नई दिल्ली शहर के बनने से जुड़े किस्से भी साझा करते हैं. उन्हें याद आता है कि अब मेंढक, गौरेये और झींगुर कम हो चले हैं. इस दौरान वह शीला दीक्षित का भी एक खास वजह से शुक्रिया अदा करते चलते हैं.
जिंदगी, शहर के बाद खुशवंत देश पर आते हैं. उनके मुताबिक भारत की सबसे बड़ी समस्या है बढ़ती हुई असहिष्णुता. उन्हें उम्मीद है कि नई पीढ़ी सांप्रदायिक शक्तियों को पूरी तरह से नकार देगी. वह हज और तीर्थयात्रा की राजनीति की अपने ही अंदाज में धज्जियां उड़ाते हैं. वह चापलूसी नाम के विकट और हर जगह उपलब्ध भ्रष्टाचार की भी खिल्ली उड़ाते हैं.
किताब में खुशवंत, गांधी और गालिब, यानी अपने दो पसंदीदा और दिलचस्प लोगों पर खूब लिखते हैं. गालिब पर लिखते समय वह सिर्फ शेर ही नहीं, उनसे जुड़े लतीफे भी सुनाते चलते हैं. फिर वह एक और प्रिय विषय धर्म पर आ जाते हैं और बताते हैं कि क्यों कमोबेश हर धर्म की किताब दिल लगाकर पढ़ने के बावजूद मैं धार्मिक नहीं हो पाया. वह उर्दू के एक शेर के जरिए अपनी बात कहते हैं.
हिकायते हस्ती सुनी
तो दरमियां से सुनी,
न इब्तिदा की खबर है
न इन्तहां मालूम.
जीवन की संध्या बेला में खुशवंत अपने प्रिय लेखकों, ओवररेटेड लेखकों और कैसे लिखें, जैसे विषयों पर भी कलम चलाते हैं. वह बाकायदा एक लिस्ट देते हैं, जिसमें अपने पसंदीदा भारतीय लेखकों और उनकी रचनाओं का जिक्र करते हैं. इस सूची में नायपॉल और झुम्पा जैसे सेलिब्रिटी लेखकों के अलावा ऐसे नाम भी हैं, जिनसे हिंदी के पाठक शायद अच्छे से परिचित न हों. इस लिहाज से ये बिलाशक उनकी जानकारी बढ़ाने वाला है.
खुशवंत सिंह पत्रकारिता पर भी टिप्पणी करते हैं और बताते हैं कि कैसे उन्होंने कभी जैन धर्म पर लोगों से लिखवाकर तो कभी सिमी ग्रेवाल की नग्न भड़कीली तस्वीर छापकर बतौर संपादक नाम कमाया. किताब के आखिर में वह स्वास्थ संबंधी कुछ सलाह देते हैं और खुद से जुड़ा एक किस्सा भी सुनाते हैं. किस्सा कुछ यूं हैं कि एक दिन कसौली में रहते खुशवंत शौच करने गए. जब उठे तो देखा पॉट लाल रंग से लाल है. सरदार साहब को लगा कि कोई खूनी बीमारी हो गई. डॉक्टर के पास गए मगर गुदा भाग की जांच से इनकार करा दिया. फिर सोचने लगे कि बीती रात जो चुकंदर खाए कहीं उनका तो कमाल नहीं. दिल्ली आए और यहां पहचान के डॉक्टर को दिखाया. बीमारी पता चली. अंत में डॉक्टर ने पूछा, कैसा महसूस कर रहे हैं. हंसोड़ सरदार मुंह बनाकर बोला, ऐसा, जैसे गुदा मैथुन करवाया हो.
खुशवंत बाज नहीं आया. यही उसकी पहचान है. और ये किताब उस पहचान का एक और दस्तावेज. खुशवंत के मुरीद हैं तो ये किताब आपके लिए है. पर ध्यान रखें कि अगर उनको मेरी तरह बहुत ज्यादा पढ़ रखा है तो कुछ बहुत ज्यादा नए किस्से नहीं मिलेंगे. ज्ञान बिलाशक मिलेगा.