समरसिद्धा.. संदीप नैयर का पहला हिंदी उपन्यास है. जिसे पेंगुइन ने प्रकाशित किया है. यह पाठकों को आठवीं शताब्दी ईसा पूर्व के भारत में लेकर जाता है, जहां जाति और वर्णों का बंटवारा समाज को उथल-पुथल और युद्ध की तरफ ले गया है.
संदीप नैयर के पहले उपन्यास समरसिद्धा से एक अंश
‘आहे, यह काजल भी ना...’ आंखों के नीचे फैल गए काजल को पोंछते हुए शत्वरी ने दर्पण में अपने रूप को निहारा. नए-नए यौवन का ध्यान अपने रूप को संवारने से कहीं अधिक उसे निहारने में लगा रहता है.
पूर्णिमा के चांद से गोल चेहरे पर चमकती बड़ी-बड़ी आंखों में लगा काजल, भौंहों के बीच लगी चटक लाल बिंदी, पतले रसीले होंठों पर सजी सुर्खी, खुले बालों में लटकती मोगरे की वेणी, कानों में सोने की बालियां और गले में लाल मोती जड़ी सोने की माला, उसे अपना रूप कुछ यूं लगा जैसे फूलों से ढकी किसी घाटी में बनी दो झीलों के किनारे काली घटाएं उतर आई हों.
‘क्या इससे अच्छा शृंगार भी किया जा सकता है?’ अठारह वर्ष की गेहुएं रंग, मध्यम कद और छरहरी काया वाली शत्वरी ने कमर पर बंधी चांदी की करधनी को नाभि से थोड़ा नीचे सरकाया और फिर अपनी कमर पर हाथ फेरती हुई मुस्कुरा उठी. ‘ओह, अदिति कब से प्रतीक्षा कर रही है. पंडित अच्युत आचार्य से संगीत सीखने जाना है. आचार्य जी समय के पाबंद हैं.’
शत्वरी दौड़ती हुई बाहर आई जहां बैलों से जुती एक गाड़ी पर बैठी अदिति उसकी प्रतीक्षा कर रही थी. ‘इतना सजने की भी क्या आवश्यकता थी? संगीत सीखने आचार्य जी के पास जाना है, किसी गंधर्व के पास नहीं,’ शत्वरी को देख अदिति ने कटाक्ष किया. ‘क्या पता रास्ते में किसी गंधर्व की ही दृष्टि पड़ जाएं,’
शत्वरी ने खिलखिलाते हुए कहा. बग्घी के आकार की बैलगाड़ी में अदिति की बगल में बैठते हुए शत्वरी ने गाड़ीवान को चलने का संकेत किया. ‘पंडित अच्युत आचार्य के घर चलना है न?’ बैलों को हांकते हुए गाड़ीवान ने पूछा. हां, वे हमें संगीत सिखाते हैं. बिना बाहों की चोली पर से ढलक आए गुलाबी दुपट्टे को संभालते हुए शत्वरी ने कहा. अपने में वह ऐसी मग्न थी कि अपनी बाहों को दुपट्टे से ढकना भी भलू गई थी.
‘आप बड़ी भाग्यशाली हैं जो आचार्य जी आपको संगीत सिखा रहे हैं. पूरे राज्य में उनके जैसा संगीत का ज्ञानी कोई और नहीं है,’ बैलों की लगाम को कुछ कसते हुए गाड़ीवान ने कहा. ‘हां, वे मेरे पिता पंडित आदित्य शास्त्री के पुराने मित्र हैं. इसीलिए हमें संगीत सिखा रहे हैं. नहीं तो उनका शिष्य बनना भी इतना आसान नहीं है.’
अपनी बाहों को दुपट्टे से ढकते हुए शत्वरी ने कुछ ऊपर चढ़ आई रेशमी चोली को नीचे सरकाया. ‘शास्त्री जी का सम्मान तो पूरे गांव में है. उनके जैसा विद्वान और वेद-शास्त्रों का ज्ञाता मिलना भी कठिन ही है.’
गाड़ीवान के मुंह से अपने पिता की प्रशंसा सुनकर शत्वरी को अच्छा लगा. गर्व की सिंदूरी आभा उसके चेहरे पर दमक आई. ‘गाड़ी वाले...’ शत्वरी का संबोधन पूरा होने से पहले ही गाड़ीवान ने कहा, ‘मेरा नाम गुंजन है.’
गुंजन सांवले रंग का ऊंचे कद का लगभग बीस वर्ष का युवक था. उसका शरीर इकहरा किंतु गठीला था. उसका लंबा चेहरा, जिस पर हल्की दाढ़ी उगी हुई थी, काफी आकर्षक था. कंधों तक आते काले बालों को उसने संवार कर पीछे की ओर बांधा हुआ था, जिससे उसका बड़ा और उभरा हुआ मस्तक पूरा दिखाई दे रहा था. उसने कमर पर सफेद रंग की धोती बांधी हुई थी और उसका एक भाग शरीर के ऊपरी हिस्से पर भी डाला हुआ था.
गले में काले धागे की एक माला थी जिसमें चांदी का एक सिक्का पिरोया हुआ था. कानों में चांदी की छोटी बालियां पहनी हुई थी. ‘वाह! गुंजन! तुम्हारे तो नाम में ही संगीत है,’ शत्वरी ने हंसते हुए कहा. फिर उसे अपना परिचय देते हुए कहा, ‘मेरा नाम शत्वरी है, और यह है मेरी सहेली अदिति.’
फिर थोड़ी देर रुकते हुए शत्वरी ने पूछा, ‘गुंजन तुम्हें संगीत आता है?’ ‘संगीत तो वेदों की परंपरा है. मैं ठहरा एक शूद्र. मैं भला कहां से संगीत सीखूंगा?’ गुंजन के चेहरे पर मायूसी की एक हल्की परत उभर आई. ‘संगीत वेदों की नहीं सांसों की परंपरा है. संगीत जानने के लिए वेदों का ज्ञान सहायक तो हो सकता है, परंतु आवश्यक नहीं है. संगीत तो कोयल की कूक और भंवरे के गुंजन में भी है.’ ‘आप ठीक ही कहती हैं. सरगम और राग-रागिनी का तो मुझे कोई ज्ञान नहीं पर दोस्तों के साथ बारामासी और फाग गाते-गाते थोड़ा बहुत गाना तो मैं भी सीख गया हूं. हमारे टोले के शीतला मंदिर के पुजारी बांसुरी बहुत अच्छी बजाते हैं. उन्होंने मुझे बांसुरी बजाना भी सिखाया है,’
गुंजन ने अपनी कुछ रुचियां गिनाते हुए कहा. मायूसी की परत को हटाती एक मीठी मुस्कान उसके चेहरे पर फैल गई. ‘अरे वाह, फिर तो तुम हमें कोई गीत सुनाओ. देखें तो सही तुम कैसा गाते हो. इस तरह रास्ता भी कट जाएगा,’ अदिति ने शत्वरी और गुंजन के वार्तालाप में कूदते हुए कहा.
अदिति के इस आकस्मिक अनुरोध से गुंजन कुछ झेंप सा गया. उसने कुछ शरमाते हुए कहा, ‘आप लोग तो आचार्य जी की शिष्या है.' बहुत ही अच्छा संगीत जानती होंगी. मेरा गाना सुनकर तो आप हंसेंगी.’ ‘शरमाओ मत, गाना तो मन से गाया जाता है, और मन की वाणी पर भी कोई हंसता है!’
शत्वरी ने गुंजन का साहस बढ़ाया. गुंजन के होंठों पर एक मुस्कान उभर आई. उसे शत्वरी का इस आत्मीयता से बात करना अच्छा लगा. ‘वैसे गाने में बुराई ही क्या है. शायद गाना सुन कर शत्वरी प्रभावित हो जाए,’ गुंजन ने सोचा. गुजंन ने ऊंचे सुर में एक लंबी तान ली और फिर सावन के महीने में गाए जाने वाले एक सवनाही गीत को आरंभ किया.
उसकी तान सुनकर ही शत्वरी और अदिति को आभास हो गया कि उसका स्वर मधुर था और सुरों पर उसकी पकड़ भी अच्छी थी. गीत की लय पर झूमता हुआ गुंजन उस गीत में ऐसा डूब गया जैसे मकरंद के रस में डूबा कोई भंवरा. शत्वरी भी अपने पैरों की थाप देकर उसके सुरों में अपने घुंघरुओं की झंकार मिलाने लगी. सावन की भीगी मादक हवा, खेतों की मिट्टी की सोंधी महक और उस पर सवनाही गीत की मधुर लय.
गुंजन के साथ साथ शत्वरी और अदिति भी इस गीत की धारा में बह गए. गीत समाप्त होते-होते आचार्य जी का घर भी आ गया. ‘वाह गुंजन! तुम तो बहुत अच्छा गाते हो. और तुम्हारा स्वर भी मधुर है. यदि तुम शास्त्रीय संगीत सीख लो तो बहुत बड़े गायक बन सकते हो.’
शत्वरी के स्वर में आश्चर्य कम और प्रसन्नता अधिक थी. ‘आप भी ठिठोली करती हैं, मुझ शूद्र को भला कौन शास्त्रीय संगीत सिखाएगा?’ गुंजन ने अपनी विवशता दुहराई. ‘मैं सिखाऊंगी तुम्हें शास्त्रीय संगीत, सीखोगे मुझसे?’ शत्वरी ने कुछ आगे झुकते हुए कहा और फिर अपने रेशमी बालों में गुंथे मोगरे की सुगंध गुंजन की सांसों में महकाती गाड़ी से नीचे उतर आई.
कुछ क्षणों तक गुंजन इसी मीठी गंध में डूबा रहा फिर अचानक उसका ध्यान शत्वरी के इन शब्दों से टूटा, ‘सोच कर जवाब देना.’ गुंजन ने मुड़ कर देखा, शत्वरी अदिति के साथ आचार्य जी के घर की ओर बढ़ रही थी. गुंजन उसकी अल्हड़ चाल को देखता रहा, कुछ मंत्रामुग्ध सा. आज तक इतनी सुंदर युवती ना तो उसके इतने समीप आई थी फर और ना ही उससे इस आत्मीयता से बात की थी.
गुंजन भीतर ही भीतर महक उठा. ठीक वैसे ही जैसे पहली बारिश की बूंदों से कच्ची मिट्टी महक उठती है. ‘क्या शत्वरी मुझसे प्रभावित हो गई है? क्या वह मुझे चाहने लगी है? गुंजन के मन में तरंगें उठने लगीं. लेकिन फिर उसने अपने मन में उठती तरंगों को संभाला. ‘क्या शूद्र होते हुए एक ब्राह्मण कन्या के प्रति ऐसे विचार रखना ठीक है?
मां भी तो ब्राह्मण थी किंतु शूद्र पिता से प्रेम विवाह करने के कारण उन्हें अपने परिजनों से संबंध तोड़ने पड़े थे और उन्हें छोड़ कर इस गांव में आ बसना पड़ा था. एक शूद्र से एक ब्राह्मण कन्या का संबंध समाज को कभी स्वीकार्य न होगा. उचित यही होगा कि मन की उड़ान पर अंकुश लगाया जाए. शत्वरी का भला भी इसी में होगा. उसके प्रस्ताव को विनम्रता से अस्वीकार कर देना ही उचित होगा.’
लेखक को जानिए
संदीप नैयर प्रशिक्षण से मैकेनिकल इंजीनियर हैं, पेशे से एक आईटी विशेषज्ञ और अपनी पसंद के एक लेखक. 1969 में रायपुर में जन्मे नैयर ने कुछ वर्ष एक पत्रकार के रूप में भी काम किया है और उन्होंने साप्ताहिक हिंदुस्तान में एक नियमित स्तंभ भी लिखा. रिलायंस और रायपुर अलॉइज के साथ काम कर चुके नैयर 2000 में ब्रिटेन चले गए और अब वे एक ब्रिटिश नागरिक हैं. यह उनका पहला उपन्यास है.