हिंदी साहित्य की गद्य विधाओं में आत्मकथा की अपनी एक समृद्ध परंपरा है. प्रकाश मनु ने अपनी आत्मकथा 'मैं मनु' लिखकर उसमें बहुत कुछ नया जोड़ा है. मनु की आत्मकथा का यह पहला ही खंड है, अभी तीन खंड और आने बाकी हैं. पर उनकी आत्मकथा का पहला खंड पढ़कर समझा जा सकता है कि यह आत्मकथा किन रास्तों और पगडंडियों से चलकर हमारे पास आ रही है, और किस तरह चुपचाप दिलों में दस्तक दे रही है.
यह कहने की आवश्यकता नहीं कि प्रकाश मनु की आत्मकथा बेहद आकर्षक है और किसी रोचक उपन्यास की तरह पाठक को बांध लेती है. हालांकि आश्चर्य, यह आत्मकथा एकदम सीधी-सहज शैली में लिखी गई है और इसमें बहुत बड़ी-बड़ी बातें भी नहीं हैं. पर इन छोटी-छोटी बातों ने ही तो एक कस्बाई शहर शिकोहाबाद में जनमे कुक्कू के मन पर कभी इतनी गहरी छाप छोड़ी थी कि वह धीरे-धीरे बदलने लगता है. वह बचपन के भोले दिनों में ही जाने-अनजाने लेखक बन रहा था, और आज हम उसे हिंदी साहित्य के चर्चित हस्ताक्षर प्रकाश मनु के रूप में जानते हैं.
लेकिन एक सीधे-सादे, भोले और संवेदनशील कुक्कू के प्रकाश मनु बनने की कहानी है कैसी? उसमें सुख-दुख के कैसे रंग घुले हुए हैं, कितनी खुशी और उदासियां भी, चलिए, इस आत्मकथा से इसका जायजा लेते हैं.
बात उस समय से शुरू होती है जब प्रकाश मनु का जन्म भी नहीं हुआ था, और उनका परिवार कुरड़ गांव में, जो खुशाब तहसील, जिला सरगोधा (अब पाकिस्तान) में रहता था. मनु के पिता भले ही उनके दादाजी की अकेली संतान थे. लेकिन पिताजी की नौ संतानें हुईं, सात भाई, दो बहनें. इन्हीं में कुक्कू भी था, जो माता-पिता की आठवीं संतान है.
यों कहने को तो कुक्कू का नाम चंद्रप्रकाश था, लेकिन बचपन में घर-बाहर हर जगह उसकी पहचान कुक्कू के नाम से ही थी. और यह नाम उसकी नानी ने रखा था, जो उसके गोरे रंग के कारण बलैयां लेती हुई कहती थीं, 'ए ताँ मेरा कक्का, ए ताँ मेरा कुक्कू!' यानी यह तो मेरा गोरे रंग का बालक है, यह तो मेरा कुक्कू है. तब कुक्कू को भला क्या पता था कि आगे चलकर वह साहित्य की दुनिया में नाम कमाएगा और अपने ढंग के एक विलक्षण साहित्यकार के रूप में प्रकाश मनु नाम से जाना जाएगा.
अलबत्ता कुक्कू, उससे कोई डेढ़ साल बड़ी बहन कमलेश दीदी और छोटे भाई सत्यपाल तीनों का जन्म भारत में ही हुआ है. आजादी के बाद देश के बंटवारे के कारण कुक्कू का परिवार प्रारंभ में बहुत ही कठिनाइयों और करुण हालात से गुजरा था. कुक्कू ने यह सब देखा तो नहीं, पर उन अभागे दिनों और मुश्किल हालात के बारे में अपनी माँ, बड़ी भैन जी और कश्मीरी भाईसाहब से काफी सुना था. तभी उसे भी पता चला कि 'खुशाब तहसील के जिस कुरड़ गांव से पिता विस्थापित होकर आए थे, वहां एक संपन्न और सम्मानित व्यापारी के रूप में उनकी साख थी और दूर-दूर तक उनका नाम था. पर वह देखते ही देखते पराया देश बन गया, पाकिस्तान. और फिर रातोंरात वहां से पलायन की तैयारियां हो गईं.'
कुछ समय परिवार के लोग अंबाला छावनी में रहे, पर अंततः उत्तर प्रदेश के शिकोहाबाद शहर में आकर बस गए, जिसकी नींव शाहजहां के उदार हृदय बेटे दारा शिकोह द्वारा रखी गई थी. हालांकि इस परिवार के लिए वे बहुत ही कठिन संघर्ष के दिन थे. कुक्कू के पिता को अपने उखड़े पांव जमाने के लिए सारी शक्तियां झोंकनी पड़ रही थीं. संतोष की बात थी तो बस यही कि इस विपत्ति के समय परिवार के सभी सदस्यों ने एकजुट होकर, उन दुख और तकलीफों को सहा, जी-तोड़ मेहनत की, और आखिर इन मुश्किलों को भी सुख और उत्साह में बदल दिया. सभी एक-दूसरे का सहारा बने, क्योंकि पिछला सब कुछ छूट चुका था, और अब फिर से एक नई शुरुआत करनी थी. ऐसी परिस्थितियों में अपनी अस्तित्व रक्षा ही सबसे बड़ा सवाल था.
उसी घर में आजादी के कोई तीन बरस बाद कुक्कू का जन्म हुआ. हालांकि शुरू में उसे अपना यह नाम जरा भी पसंद नहीं था. पर फिर उसे पता चला कि अंग्रेजी में कुक्कू का अर्थ होता है, कोयल. तब उसे लगा, चलो, यह नाम ठीक ही है. लेकिन जब घर में लोग उसे कुक्कू के बजाय 'अरे ओ कुकड़ू' कहकर चिढ़ाते, तब उसे बड़ा गुस्सा आता था. हालांकि यह नन्हा सा कुक्कू बड़ा मस्त मौला भी था, इसलिए जरा सी देर में इस गुस्से को भूलकर किसी छोटी सी बात पर ही तालियां बजा-बजाकर हंसने लगता था. और एक बार हंसता, तो उसकी हंसी देर तक रुकती ही न थी.
कमलेश दीदी कुक्कू से थोड़ी ही बड़ी थीं और उसे अपने साथ खिला लेती थीं. कुक्कू उनके साथ गुड्डे-गुड़ियों के खेल को भी बड़े उत्साह के साथ खेलता था. हालांकि कमलेश दीदी के साथ गुट्टे खेलने में उसे बड़ी मुश्किल आती थी. इसलिए कि बात की बात में जमीन से गुट्टे उठाने का यह खेल बड़ी ही सावधानी के साथ खेलना पड़ता था. इसके लिए हाथों में बहुत अधिक संतुलन बनाने की जरूरत थी. इसी के बूते कमलेश दीदी तो बड़ी कुशलता से एक हाथ में आठ-आठ गुट्टे संभाल लेती थीं, लेकिन बेचारा कुक्कू यहां मार खा जाता था. फिर दुखी होकर सोचता था, 'हे भगवान, ऐसी दिव्य कलाएं तूने बस लड़कियों को ही क्यों दीं?'
और कभी-कभी तो अपने छोटे-छोटे हाथ जोड़कर वह भगवान से कहता कि "हे भगवान जी, मेरे पास जो कुछ भी है, आप सब ले लो. बस मुझे भी ऐसी ही कला, ऐसी ही चुस्ती-फुर्ती दे दो, जैसी आपने मेरी कमलेश दीदी और उनकी सहेलियों को दी है." लेकिन लगता है कि भगवान जी ने नन्हे कुक्कू की बात सुनी नहीं, और वह खेलकूद में कच्चड़ था, तो अंत तक कच्चड़ ही बना रहा.
कुक्कू थोड़ा बड़ा हुआ, तो उसके मूल नाम चंद्रप्रकाश को जरा संक्षिप्त करके, चंदर नाम से उसे घर में बुलाया जाने लगा. दोस्तों के बीच भी अब वह चंदर था. लेकिन कुक्कू नाम एक बार जुड़ा तो फिर जुड़ ही गया. शायद अब भी किसी न किसी रूप में साथ चला ही आता है.
***
'मैं मनु' पढ़कर पता चलता है कि प्रकाश मनु को बचपन से ही एकांत बहुत अच्छा लगता था. वे एकांत में बैठकर न जाने क्या-क्या सोचा करते थे. यह सोचना उन्हें अच्छा लगता था. बहुत बार वे अपने आसपास की चीजों और लोगों के बारे में ही सोचा करते थे. जो अच्छा लगता था, वह भी, जो अच्छा नहीं लगता था, वह भी. इसी बीच उन्हें पढ़ने का भी चस्का लग गया. उन्हें जब भी समय मिलता, वे अक्षरों को जोर-जोर पढ़ने की कोशिश करते. यह उनका एक अंतहीन खेल था, जिसका कोई ओर-छोर ही नहीं था. इसके बाद शुरू हुआ अक्षर से अक्षर मिलाने का खेल. यह भी अकेले खेला जा सकता था और घंटों खेला जा सकता था. उन्हें इस खेल से जरा भी बोरियत महसूस नहीं होती थी.
धीरे-धीरे उनकी पढ़ने-लिखने में इतनी रुचि हो गई वे कमलेश दीदी के होमवर्क में भी बड़े उत्साह के साथ मदद कर देते. एक बार तो दीदी किसी सवाल में अटकीं तो कुक्कू ने उसका काफी बढ़िया सा जवाब लिखवा दिया. अगले दिन दीदी ने स्कूल से आकर बताया कि मैडम ने उसके जवाब की बड़ी तारीफ की. यहां तक कि पूरी क्लास को पढ़कर सुनाया. सुनते ही कुक्कू का चेहरा खिल गया. उसे लगा, कुछ तो है उसके पास, जो नायाब है. उसने उसी समय हाथ जोड़कर भगवान जी से कहा "अरे भगवान जी, मुझे पता नहीं था. आपने तो मुझे बड़ा अनमोल खजाना दे दिया."
बस, उसी दिन से कुक्कू अक्षर-पागल हो गया. उसे कहीं भी कोई किताब या पत्रिका दिखाई पड़ती, तो वह उसे उठाकर पढ़़ने लग जाता. तब उसे इस बात का जरा भी होश न रहता कि वह कहां बैठा है, दोपहर है कि रात है. बस, पढ़ने और सिर्फ पढ़ने की लगन होती थी मन में. प्रेमचंद्र की कहानियां उसने पढ़ीं, फिर कुछ और बड़े होकर उपन्यास भी. यहां तक कि शरत और रवींद्रनाथ टैगोर के उपन्यास भी. किताब हाथ में आते ही उसे लगता, कहानी कहां से शुरू होकर कहां तक पहुंची, इसे झटपट जान ले. किताब पढ़ते-पढ़ते वह एक नई ही दुनिया में पहुंच जाता. फिर उस दुनिया से वापस आने का उसका मन ही नहीं होता था.
कुक्कू को लगता कि हर किताब को वह घोलकर पी जाए, और जल्दी से सब कुछ जान ले. यों अंदर ही अंदर उसके मन में एक उठा-पटक सी भी चलती रहती. वह जैसे हर वक्त इस सवाल का हल खोजता रहता, कि दुनिया में इतने दुख क्यों हैं? लोग एक-दूसरे को बिना बात के इतना क्यों सताते हैं? कभी-कभी तो यही सब सोचते-सोचे उसे रोना भी आ जाता कि पहले ही दुनिया में इतने सारे दुख हैं तो लोग बिना बात अपने कामों से उन्हें और ज्यादा क्यों बढ़ा देते हैं?
वह भगवान से यही कहता कि इस दुखभरी दुनिया में मैं ऐसा क्या करूं जिससे कि दुनिया में दुख और परेशानियां कुछ कम हो जाएं? या कम से कम यह दुख पूरा नहीं तो कुछ कम ही हो जाए.
बचपन की यह बात इतने लंबे अरसे बाद भी प्रकाश मनु के भीतर से गई नहीं. यही कारण है कि जब मनु बाल साहित्य की ओर आए तो उन्होंने यही तय किया कि वे बच्चों के लिए ऐसा लिखेंगे, जो उन्हें थोड़ी खुशी दे. साथ ही खेल-खेल में ही बच्चों के मन की उलझनें भी सुलझ जाएं. इसके लिए उन्हें एक बार फिर अपने बचपन की दुनिया में जाना पड़ा, ताकि उनके बचपन की यादें फिर से ताजा हो जाएं और आज के बचपन से जुड़कर एक नया संसार रचें.
प्रकाश मनु की कई कहानियों में उनके बचपन की झलक है. उन्हें लगता है, "बचपन की दुनिया सचमुच अमोल है. वह कल भी थी, आज भी है. बचपन ऐसा अनमोल खजाना है, जिसे खोजने निकलो तो पैर परिचित पगडंडियों और रास्तों पर चलते जाते है, चलते ही जाते है और फिर वापस आने का मन ही नहीं करता!"
***
आत्मकथा में प्रकाश मनु ने अपनी माँ का बहुत भावुक होकर होकर वर्णन किया है. बचपन में उन्हें घर में सबसे अच्छी लगती थीं माँ. अपनी माँ से बहुत प्रेम था उन्हें. इसलिए दिन भर वे माँ के आसपास ही घूमते रहते. माँ थीं भी एकदम सीधी-सरल. दिन भर 'पुत्तर-पुत्तर' कहकर बलैयां लेतीं. मनु को लगता कि माँ के होते जीवन में कोई डर नहीं है. कोई अभाव भी नहीं. माँ उनके लिए आस्था का समंदर थीं. बरसों बाद, जब वे साहित्यकार प्रकाश मनु हो चुके थे, उन्होंने अपने गुरु देवेंद्र सत्यार्थी से एक पुरानी कहावत सुनी कि 'ईश्वर ने माँएं बनाईं, क्योंकि वह सब जगह उपस्थित नहीं रह सकता था.' सुनकर उनका मन और आत्मा शीतल हो गई. उन्हें लगा कि यही तो वे भी सोचते हैं.
ऐसे ही सत्यार्थी का उपन्यास 'दूध-गाछ' पढ़ते हुए प्रकाश मनु रोमांचित हो गए. इसलिए कि उन्हें पता चल गया था कि दूध-गाछ या 'दूध का पेड़' तो असल में माँ ही है. पूरी दुनिया को तृप्त करने वाली माँ, जिससे यह दुनिया इतनी खूबसूरत है. उन्हें लगा, माँ सचमुच ईश्वर द्वारा भेजा गया इस सृष्टि का सबसे सुंदर उपहार है.
प्रकाश मनु की बचपन की बहुत सारी यादें माँ से ही जुड़ी हैं. जब वे बहुत छोटे थे, तब उनकी माँ अपनी सहेलियों और पड़ोसियों के साथ कपड़े की पोटली लेकर, तालाब के किनारे धोने के लिए जाती थीं. तब नन्हा कुक्कू भी उनके साथ जाता था. सर्दियों के शुरूआती दिनों में जब तालाब के किनारे गुनगुनी धूप रहती, वह सरसों के खेतों में पीले फूलों के साथ खेलता था. खेत के किनारे बेशरम की जंगली झाड़ियों में पीली तुरही जैसे फूल उसे बहुत अच्छे लगते थे. तालाब के किनारे प्रकृति का इतना विस्तार था कि लगता, वह तो किसी और ही दुनिया में आ गया. उसका मन होता कि वह आनंद में किलकने लगे. कुक्कू अभी छोटा ही था, पर उसे महसूस हुआ कि उसके नन्हें मन में कोई कविता आकार ले रही है. मन का आऩंद ही मन की कविता बन गया. अभी उसने ठीक से अक्षर पढ़ना भी नहीं सीखा था, पर कविता क्या होती है, यह अहसास उसे हो गया था.
प्रकृति का यह अद्भुत सौंदर्य कुक्कू को इस कदर भा गया कि उसने बड़े होकर इस पर कहानी भी लिखी, 'नन्हा खुश्शू खरगोश', जिसमें बचपन के उसी तालाब और दूर-दूर तक फैली प्रकृति के विस्तार का जिक्र था. और हां, सर्दियों की उस गुनगुनी और प्यारी-प्यारी धूप का भी, जिसे उसने जीवन में पहली बार महसूस किया था.
ऐसे ही माँ से जुड़ी प्रकाश मनु की और भी बहुत सी यादें आत्मकथा के पन्नों से रह-रहकर झांकती हैं. ऐसी भावनापूर्ण यादें, जिन्हें मनु कभी नहीं भूल पाए. 'मैं मनु' पढ़ते हुए वे पाठकों को अपने साथ बहा ले जाती हैं. सच पूछिए तो पाठकों को वे बिल्कुल अपने जीवन का हिस्सा लगने लगती हैं. फिर एक बात और. माँ को देख-देखकर ही मनु ने बचपन में अच्छे और बुरे की पहचान सीखी. माँ के जीवन से ही उन्होंने जीवन के ऊंचे आदर्शों को जाना और उन्हें अपने जीवन में उतारने की ललक उनके मन में पैदा हुई.
प्रकाश मनु बचपन से ही कितने संवेदनशील हैं, 'मैं मनु' में कई जगह इसकी भी झलक है. वे देखते कि माँ के जीवन में दुख, निराशा और परेशानियां कम नहीं हैं, लेकिन उनके उत्साह में कभी कोई कमी नहीं आती थी. वे हर दिन को नए उत्साह व उमंग के साथ जीती थीं. ईश्वर में उनकी अटूट आस्था थी और अपने सारे दुख-सुख वे ईश्वर के चरणों में अर्पित कर देती थीं. कुक्कू को बड़ा अच्छा लगता था, जब सुबह-सुबह माँ बहुत जल्दी उठकर, अपनी मीठी सी आवाज में भोर का बड़ा मधुर गीत गुनगुनाया करती थीं. कुक्कू ने भी यह गीत याद कर लिया था और वह भी उनके साथ-साथ दोहराया करता था. माँ के स्वर में गुड़ जैसी मिठास थी, इसलिए गीत के स्वर भी मीठे हो गए थे. उस गीत की शुरुआत कुछ इस तरह होती थी-
उठ जाग सवेरे,
गुराँ दा ध्यान, गंगा इश्नान.
हाथ विच लोटा, मोढे लोई,
रामजी दी गाउआँ
सीता दी रसोई...!
अर्थात, सुबह हो गई, अब जागो. अपने गुरुओं को याद करो, गंगा स्नान करो. हाथ में लोटा और कंधे पर कंबल लिए रामचंद्र जी गायें चराने निकल पड़े हैं. सीता जी अपनी रसोई की तैयारियां कर रही हैं.
अहा, सुबह का कैसा पवित्र, कैसा निर्मल चित्र उभरता है इस गीत में! सुनकर मनु पुलकित हो उठते. फिर माँ सिर्फ यह गीत ही नहीं, बल्कि गायत्री मंत्र भी तो अपनी इसी मीठी, खरखरी आवाज में दोहराया करती थीं. शायद माँ को उनके पिता जी, यानी कुक्कू के नाना जी ने यह याद करवाया था. और माँ धीरे-धीरे, छोटे-छोटे टुकड़ों में यह गायत्री मंत्र कुक्कू को सिखा रही थीं. कुक्कू ने इसे अच्छी तरह याद कर लिया. फिर पूरा गायत्री मंत्र उसने माँ को सुनाया, तो माँ के चेहरे पर खुशी का आलोक सा नजर आया. उन्होंने कुक्कू को छाती से लगा लिया.
प्रकाश मनु की माँ में बड़ी उदारता थी. यह बात उन्हें भी अच्छी लगती. माँ कहतीं, जीवन में पैसा बहुत बड़ी चीज नहीं है, सुख-संतोष ज्यादा बड़ी चीज है. इसलिए आदमी को लालच नहीं करना चाहिए. ठीक है, पैसा कमाओ, लेकिन संतोष से रखना भी सीखो. फिर जो कुछ तुम्हारे पास है, उसका एक हिस्सा गुरु, संन्यासी या जरूरतमंद लोगों को जरूर दो. एक-दूसरे के साथ सुख-दुख बांटो और अनावश्यक लालसाएं छोड़ दो.
इस चीज ने धीरे-धीरे मनु के मन पर गहरी छाप छोड़ी और धीरे-धीरे उनका पूरा जीवन ही बदल गया. उन्हें ज्यादा दुनियादारी अच्छी नहीं लगती थी, इसलिए कल्पना में उन्होंने अपनी एक अलग दुनिया बसा ली. फिर बरसों बाद वही दुनिया अचानक बदलकर साहित्य की दुनिया हो गई.
प्रकाश मनु जी की माँ शिवभक्त थी, इसलिए उन्होंने उनका नाम रखा, शिवचंद्रप्रकाश. यानी शिवजी के माथे पर विराजने वाले चंद्रमा का प्रकाश. स्कूल में दाखिले के वक्त हैड मास्टर साहब ने इस लंबे नाम को छोटा करके चंद्रप्रकाश कर दिया. फिर मनु साहित्य की दुनिया में आए तो उन्होंने खुद चंद्रप्रकाश को प्रकाश मनु कर लिया. अब चंद्रप्रकाश को कोई नहीं जानता, पर प्रकाश मनु को जानने वाले तो दूर-दूर तक हैं.
मनु को माँ की एक और बात अच्छी लगती है, कि माँ का अपने सब बच्चों पर अटूट विश्वास था कि मेरे बेटे कभी कोई गलत काम नहीं कर सकते. माँ के इस विश्वास ने उन्हें कई दफा भटकने से बचाया. उन्हें लगता, मैं कुछ गलत करूंगा तो भला माँ को कितनी ठेस लगेगी! यह बात बड़े होने पर भी उनके अंदर से कभी नहीं गई. उन्हें लगता, माँ की आँखें उन्हें देख रही हैं, और माँ बिन कहे ही कह रही हैं कि बेटा, अपने जीवन में कभी कुछ ऐसा न करना कि मेरी आँखें झुक जाएं.
प्रकाश मनु की माँ अनपढ़ थीं, पर उनमें गहरी अंतर्दृष्टि थी, जिससे परिवार में हर किसी के सुख-दुख वे को जान लेती थीं. फिर जितना हो सके, उतना उसके लिए करती भी थीं. मनु ने जब आगरा कॉलेज से एम.एस-सी. करने के बाद हिंदी से एम.ए करने का निर्णय लिया, तो घर में सबने विरोध किया. हर किसी को यह पागलपन लगा. तब मनु की अनपढ़ माँ ने ही उनका साथ जिया. उनके शब्द थे, "ठीक है पुत्तर! तुझे जो ठीक लगता है, कर. फीस के पैसे मैं दूंगी, चाहे जहां से इंतजाम करूं!"
फिर उस कसबाई बच्चे कुक्कू ने प्रकाश मनु बनकर, साहित्य की दुनिया में अपना नया सफर शुरू किया, तो माँ पूरी हिम्मत और विश्वास से उसके साथ खड़ी थीं, और अंत तक साथ देती रहीं.
आत्मकथा में मनु जी की अनपढ़ लेकिन भोली-भाली, और हर क्षण प्यार बरसाने वाली उदार माँ का चित्रण पढ़कर मन भीगने लगता है. 'मैं मनु' के सबसे अच्छे हिस्से मुझे यही लगे.
***
प्रकाश मनु की माँ जिस तरह 'ममता और वात्सल्य की मूरत' थीं, पिता वैसे तो न थे और खुलकर प्यार भी नहीं करते थे. पर बच्चों को आगे बढ़ते देखकर उनकी आँखों में चमक आ जाती और बड़ी-बड़ी मूंछें फड़कने लगती थीं. पिता बहुत मेहनती थे, और काम करने में उन्हें आनंद आता था. कर्म ही उनके लिए सबसे बड़ी पूजा थी.
मनु को भी उन्होंने यही बात सिखाई कि अपने काम में शर्म कैसी? आदमी को स्वाभिमानी होना चाहिए. लेकिन उसे मेहनत करने में शर्म नहीं करनी चाहिए. खूब मेहनत करो, पर किसी से मांगो नहीं, किसी के आगे सिर न झुकाओ. यही उनकी नजरों में स्वाभिमान था. वे अकसर कहा करते थे कि मेहनत करने से स्वाभिमान पर चोट नहीं आती, दूसरों के आगे हाथ पसारने से स्वाभिमान पर चोट पड़ती है. इसलिए आदमी को जिंदगी भर इस चीज से बचना चाहिए. इस बात का बहुत गहरा असर कुक्कू पर पड़ा.
फिर मनु के पिता धुन के बड़े पक्के थे. जिस बात की धुन लग जाए, उसे रात-दिन लगकर पूरा करके ही मानते थे. मनु जी ने यह बात उनसे सीखी और अपने जीवन में उतारी. इसके लिए सच ही वे पिता के प्रति बहुत कृतज्ञता महसूस करते हैं.
'मैं मनु' में प्रकाश मनु के बचपन की बहुत मोहक छवियां हैं. उन्हें बचपन में कहानियां सुनना बहुत अच्छा लगता था. कहानी सुनते हुए वे जैसे किसी और ही दुनिया में पहुंच जाते. यों भी बचपन की दुनिया का मतलब ही है, किस्से-कहानियां की दुनिया. हर किसी का बचपन ऐसे ही बीतता है, लेकिन आमतौर से लोग बड़े होकर उन किस्से-कहानियों को भूल जाते है, पर मनु जी के साथ ऐसा नहीं हुआ. उलटा इन्हीं किस्से-कहानियों ने उनके व्यक्तित्व को गढ़ा है. बाद में लेखक होने पर उन्होंने बचपन में सुनी इन कहानियों को अपनी कलम से उकेरा, तो लोग मुग्ध हो उठे.
मनु को बचपन में जो कहानियां पसंद थीं, उनमें एक हाथ, एक पैर वाले अधकू की विचित्र कहानी थी तो उस राजकुमार का किस्सा भी, जो एक महल में रह रहा था. उस राजकुमार से कहा जाता है कि वह महल की सात कोठरियां तो खोल ले, पर आठवीं न खोले. राजकुमार ने एक-एक कर सात कोठियां खोलकर देखीं. फिर उसका मन हुआ कि आठवीं कोठरी भी खोलकर देखूं. लेकिन आठवीं कोठरी खोलते ही एक के बाद एक भीषण विपत्तियां उस पर टूट पड़ीं, और एक रोमांचक कथा का जन्म हुआ. कुक्कू ने सोचा, अगर उस राजकुमार ने आठवीं कोठरी न खोली होती तो भला कहानी कैसे पूरी होती? और कौन उसे पढ़ना चाहता? तभी उसे समझ में आया कि लेखक होना भी आठवीं कोठरी खोलने जैसा ही है. इसमें तकलीफें कम नहीं हैं. पर आखिर इन तकलीफों का ही तो मजा है!
बचपन में प्रकाश मनु को जिन लोगों ने रास्ता दिखाया, बल्कि एक मिट्टी के ठीकरे से इनसान बनाया, उनमें उनके अध्यापक भी हैं, जो विद्यार्थियों को अपने ज्ञान का एक-एक कतरा दे देना चाहते थे. इन्हीं में कच्ची क्लास के चश्मे वाले मास्टर जी भी थे, जिनके प्यार और स्नेहिल व्यवहार को याद करके, उनकी आँखें भर आती हैं. बाद में मनु ने बड़े होकर 'चश्मे वाले मास्टर जी' कहानी लिखी, तो उनका पूरा अक्स उसमें उतार दिया.
ऐसे ही मनु के मन में माँ, बुआ और पड़ोस की स्त्रियों के मिलकर चरखा कातने की भी बड़ी साफ छवियां हैं. बाद में उन्होंने गांधी जी को पढ़ा तो उन्हें बड़ा अचरज हुआ कि गांधी बाबा ने चरखे के जरिए पूरे देश को जगाने की जो मुहिम छेड़ी थी, वह कितनी कारगर थी. जाने-अनजाने उसमें स्वदेशी के साथ-साथ स्त्री-स्वातंत्र्य का भी तार जुड़ गया था. हालांकि बाद में कोई वैसा महानायक हुआ ही नहीं, जिसकी जनता के मानस तक सीधी पहुंच हो. तो चरखा पहले बरामदे की खूंटी पर टंगा, और फिर एकदम गायब ही हो गया.
बचपन में जब बिजली नहीं थी, तो मनु ने अपने घर में एक बड़ा अनोखा सीलिंग फैन देखा था. छत से दो हुकों के सहारे लटकते तख्तों पर कपड़ा लपेट लिया जाता था. पर उसकी एक झालर सी नीचे लटकी रहती. इस अद्भुत पंखे को एक डोरी से हिलाया जाता, तो गरमी की दोपहर में बड़ी ठंडी हवा आती थी. मनु इस शानदार पंखे को कभी भूले नहीं, और न उस हरी लालटेन को, जिसकी चिमनी को खूब चमकाने के बाद बत्ती जलाई जाती, तो ऐसा मुलायम प्रकाश उसमें से फूट पड़ता, जिससे आँखों को बड़ी ठंडक मिलती थी.
आगे चलकर मनु ने विष्णु खरे की कविता 'लालटेन जलाना' पढ़ी तो उन्हें लगा, अरे, विष्णु खरे ने तो इस कविता के जरिए उनके बचपन का हू-ब-हू चित्र सामने रख दिया है! इसलिए इस कविता को पढ़ना उनके लिए बड़ा रोमांचक अनुभव था. जैसे किसी ने चंद शब्दों में उनके बचपन का चित्र उकेर दिया हो.
***
अरे, लीजिए, प्रकाश मनु के श्याम भैया का जिक्र तो छूट ही गया, जो उनसे कोई चार साल बड़े थे और उन्हें बहुत प्यार करते थे. बड़े होकर मनु ने जो कहानियां लिखीं, उनमें नंदू भैया का जिक्र अकसर आता है. खूब गोल-मटोल से नटखट और शरारती नंदू भैया खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने और हर चीज के शौकीन थे. ये नंदू भैया असल में मनु के बड़े भाई श्याम भैया ही हैं, जो बचपन में उनके गाइड भी थे, हीरो भी, और झटपट उसकी सारी परेशानियों को सुलझा देते थे. 'नंदू भैया की कहानी' के नायक भी श्याम भैया ही हैं.
श्याम भैया हर कला में निपुण थे. वे 'क्राफ्ट' भी बहुत अच्छे से जानते थे. दीवाली पर बनाया गए उनका कंदील तो दूर से ही मन को आलोकित कर देता था. हालांकि हर बार श्याम भैया अपने बनाए कंदील में कुछ न कुछ नयापन जरूर ले आते थे, और एक बार तो उन्होंने हवाई जहाज के आकार का बड़ा सुंदर कंदील भी बनाया था, जो बरसों से मनु के मन में ज्यों का त्यों बसा है और उसकी छवि जरा भी धुंधली नहीं हुई.
कुछ बरस पहले प्रकाश मनु ने 'दीवाली के नन्हे मेहमान' कहानी लिखी तो उनके श्याम भैया फिर से एक बार नंदू भैया बनकर समा गए. कहानी क्या थी, मनु के बचपन का ही एक मनोरम पन्ना था. 'बालवाटिका' के संपादक ने कहानी पढ़ी, तो यह कहे बगैर नहीं रह पाए, "यह तो आपके अपने जीवन की कहानी लगती है." सचमुच वास्तविकता भी यही थी.
मनु ने बचपन में श्याम भैया के साथ फिल्में भी बहुत देखीं. उनमें 'भाभी' और 'छोटी बहन' की तो उन्हें बहुत अच्छी तरह याद है. 'छोटी बहन' फिल्म को देखकर वे इतने भावुक हो गए थे कि आधी से ज्यादा फिल्म उन्होंने रोते-रोते ही देखी. फिल्म में छोटी बहन के साथ हुआ अन्याय और उसका दुख उनसे बर्दाश्त नहीं हो रहा था. श्याम भैया के बहुत डांटने पर भी उनका सुबकना बंद नहीं हुआ.
यों श्याम भैया ने ही मनु को प्रेमचंद की श्रेष्ठ कहानियां पुस्तक लाकर दी, तो उन्हें यह इतनी अच्छी लगीं कि उन्होंने ढूंढ़-ढूंढ़कर प्रेमचंद और कई दूसरे लेखकों का साहित्य पढ़ा. फिर साहित्य पढ़ते-पढ़ते अचानक खुद भी लिखने लगे. मनु जब सातवीं कक्षा में थे, तब चीन ने भारत पर हमला किया था. उस समय पहले पहल उन्होंने देशभक्ति की कुछ कविताएं लिखी थीं. फिर कुछ अरसे बाद तो नियमित लिखने का सिलसिला शुरू हो गया. यों कुक्कू को जाने-अनजाने साहित्यकार प्रकाश मनु बनाने वाले असल में उसके श्याम भैया ही हैं.
बचपन में मनु को अकसर लगता कि हमारा समाज एक बहुत बड़ी मशीन है, जिसका इंजन खराब हो गया है, जिससे मशीन ठीक से काम नहीं कर रही है. उनका मन कहता, 'चंदर, क्या तुम इसे ठीक नहीं कर सकते?' तब से उन्होंने बहुत बड़ी-बड़ी बातों पर सोचना शुरू कर दिया. एक बार तो अपनी मांगें पूरी न होने पर उन्होंने कॉलेज में अनशन कर दिया, जिससे पूरे कॉलेज में हलचल मच गई.
फिर उन्होंने विवेकानंद को पढ़ा तो वे उसके आदर्श बन गए. एक दिन किसी बात से उन्हें इतनी ठेस लगी कि वे संन्यासी बनने के लिए घर से भाग निकले. राह में गांव की एक भली सी स्त्री ने भूखे बालक प्रकाश को रोटियां खिलाईं तो उन्हें माँ की बेतरह याद आई. उन्हें लगा, माँ आँखों में आंसू भरे, बड़ी विकलता से उसे बुला रही हैं. तब वे घर लौटे और माँ की छाती से लगकर फफकने लगे.
बरसों बाद प्रकाश मनु ने अपना पहला बाल उपन्यास 'गोलू भागा घर से' लिखा, तो इसमें बचपन की वह घटना ही एक नए रूप में ढल गई. उपन्यास बहुत मर्मस्पर्शी है, क्योंकि उसमें शब्दों के बीच में खुद कुक्कू के आँसू भी पिरोए हुए हैं.
***
'मैं मनु' में ऐसे कई प्रसंग हैं, जिन्हें पढ़कर यह बात अच्छी तरह समझ में आ जाती है कि बचपन से ही प्रकाश मनु भावुक और स्वप्नदर्शी हैं. यही चीज उन्हें धीरे-धीरे किताबों के नजदीक खींच लाई. वे किसी किताब में डूबते तो उन्हें होश न रहता कि वे कहां बैठे हैं, और कब से पढ़ रहे हैं. उनके बड़े भाई जगन भाईसाहब ने हिंद पॉकेट बुक्स की घरेलू लाइब्रेरी योजना के तहत कोई सौ-दौ सौ किताबें घर पर ही मंगवाईं, तो यह उनके लिए एक दुर्लभ उपहार से कम न था. तभी उन्होंने प्रेमचंद, शरतचंद्र और रवींद्रनाथ ठाकुर को जमकर पढ़ा. और पढ़ते-पढ़ते न जाने कब लेखक बनने की चाह उनके मन में घर कर गई. लेखक बनने का सपना हर पल उनके मन में हलचल मचाए रखता.
कभी-कभी वे सोचते, पता नहीं यह सपना पूरा हो भी पाएगा या नही? लेकिन धीरे-धीरे साहित्य पढ़ते-पढ़ते हालत यह हुई कि साहित्य ही उसका ओढ़ना, साहित्य ही बिछौना हो गया. यों साहित्य पढ़ते-पढ़ते ही वे एक छोटे से कसबाई कुक्कू से साहित्यकार प्रकाश मनु बने, जिन्हें अब पूरा देश जानता है.
आखिर कुक्कू ने लंबे संघर्ष और अंतहीन तकलीफों के बाद अपनी मंजिल पा ही ली.
आज प्रकाश मनु का साहित्य जगत में एक सम्मानपूर्ण स्थान है. वे एक प्रतिष्ठित कवि-कथाकार तथा बच्चों के प्रिय लेखक हैं, जिनके बाल उपन्यास 'एक था ठुनठुनिया' को साहित्य अकादेमी के पहले बाल साहित्य पुरस्कार से सम्मानित किया गया है. बच्चे और किशोर पाठक उनकी किताबें खोज-खोजकर पढ़ते हैं. मनु का साहित्य उन्हें आनंदित करता है और अपने साथ बहा ले जाता है. बचपन में मनु ने कुक्कू के रूप में कहानियां सुनते हुए जो आनंद हासिल किया था, वही आनंद अब दोगुना होकर उनके पाठकों को भावमग्न कर देता है.
पुस्तकः मैं मनु
रचनाकार: प्रकाश मनु
भाषाः हिंदी
विधाः आत्मकथा
प्रकाशक: श्वेतवर्णा प्रकाशन
पृष्ठ संख्याः 320
मूल्यः 399 रुपए
***
# अपनी लंबी रचनाओं से हिंदी साहित्य में विशिष्ट स्थान बनाने वाले रचनाकार प्रकाश मनु की आत्मकथा के पहले खंड 'मैं मनु' की यह समीक्षा नमिता शुक्ला ने की है. नमिता अहिल्याबाई होलकर विश्वविद्यालय इंदौर की शोध छात्रा हैं, जो मनु के साहित्य कर्म पर शोध भी कर रही हैं. उनका पता है- 33 व्यासफला जूनीइंदौर, (पोटली वाले गणेश मंदिर के पास) इंदौर- 452007 (म.प्र.), मो. 09926118409