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बुक रिव्यू: चाय की टीपरी के किस्से, कुछ अतिरिक्त मसालों के साथ

नए दौर का युवा हिंदी नहीं पढ़ना चाहता या हिंदी में युवाओं के लिए अलग से कोई साहित्य नहीं आ रहा, जैसे सवालों के बीच दिव्य प्रकाश दुबे की यह किताब उम्मीदों का रौशनदान बनकर आई है. वे जो खुद को युवा समझते हैं, जिनकी रुचि अपनी दुनिया की कहानियों में है और जो सब कुछ खारिज करने के बौद्धिक दंभ से नहीं भरे हैं, उन्हें यह किताब जरूर पढ़नी चाहिए.

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किताब का कवर पेज
किताब का कवर पेज

कल्पना कीजिए कि 'सेटल' होने के कुछ साल बाद आप स्कूल या कॉलेज की एक 'गेट-टुगेदर' में कुछ पुराने और पक्के दोस्तों से मिलते हैं तो माहौल कैसा होता है. बेवकूफाना लेकिन खूबसूरत हरकतों और शरारतों का एक पिटारा ही खुल जाता है. उस दिन जितने ठहाके लगते हैं, याद नहीं आता कि इससे पहले कब लगे थे. आदमी नॉस्टैल्जिक हो जाता है. लगता है कि तकनीक के विशेषज्ञ कोई परमानेंट सिस्टम क्यों नहीं बना देते कि जब चाहें, एक बटन दबाएं और सारी बीती यादें हमारे दिलो-ज़ेहन पर छा जाएं.

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कौन किसे लाइक करता था, कौन प्रपोज करते-करते रह गया, किसके बैग से गंदी वाली किताब पकड़ी गई, मैम की कुर्सी पर बोर्ड पिन किसने रखी थी, फिजिक्स वाले लेक्चरर 'स्माइल दरबार' क्यों कहलाते थे; 'और वो याद है..' जैसे कंजक्शन के साथ ऐसी तमाम बातें जुड़ती चली आती हैं और किस्सों की एक लड़ी बन जाती है. ये यादें महफिल में मौजूद हर शख्स के चेहरे पर लगभग समान त्रिज्याओं वाली मुस्कुराहटें बिखेर जाती हैं.

ठीक ऐसी ही यादों और किस्सों को सहेजे-समेटे हुए है किताब 'मसाला चाय'. नए दौर का युवा हिंदी नहीं पढ़ना चाहता या हिंदी में युवाओं के लिए अलग से कोई साहित्य नहीं आ रहा, जैसे सवालों के बीच दिव्य प्रकाश दुबे की यह किताब उम्मीदों का रौशनदान बनकर आई है. दिव्य पेशे से मार्केटिंग मैनेजर हैं, लेकिन उनके दफ्तर के लोगों का मानना है कि वह बेसिकली एक लेखक हैं जो मार्केटिंग भी कर लेते हैं. शुक्र है कि दिव्य ने अपनी किताब में 'दिव्य' किस्म के साहित्यिक प्रयोगों की कोशिश नहीं की है. उन्होंने कंटेंट ऐसा रखा है कि युवा इससे खुद को जोड़ पाएंगे और इस जुड़ाव की इंटेंसिटी 'थ्री इडियट्स' सरीखी फिल्मों जैसी ही मजबूत होगी. इसे पढ़ते हुए कई बार आपको लगेगा कि ऐसा कुछ आपके साथ या आपके आस-पास हो चुका है.

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नाम कैसा है, मसाला चाय!
नए जमाने के लड़कों के साथ जो घटनाएं उनके सामाजिक और निजी हालात और सुविधाओं-अभावों की पृष्ठभूमि में घटती हैं और जिन्हें जीवन के किसी और दौर में वे एक-दूसरे को सुनाना या सुनना पसंद करते हैं, 'मसाला चाय' उसी का लिखित रूप है.

स्कूल, कॉलेज, इंजीनियरिंग, प्लेसमेंट, बैक पेपर, इश्क, अफेयर, लिव इन, ब्रेक अप, कुछ आखिरी किस, ट्रेन में मिली अनजान लड़की, इंग्लिश स्पोकेन क्लास, सातवीं के बच्चे का 'बालिग' सवाल, अपने 'एक्स' के साथ 'एनकाउंटर', नामर्दी का विज्ञापन, लव मैरेज की फील देने वाली अरेंज्ड मैरेज; और ऐसा ही बहुत कुछ. किताब में छोटी-छोटी 11 कहानियां हैं, जिनका सब्जेक्ट ऊपर लिखी गई चीज़ों के इर्द-गिर्द घूमता है. बेहद आसान भाषा में लिखी गई 176 पन्ने की इस किताब को आसानी से दो से तीन दिन में पढ़ा जा सकता है. अंग्रेजी के शब्दों को रोमन लिपि में ही लिख दिया गया है. भाषाई शुद्धतावादी इससे क्रोधित हो सकते हैं, लेकिन पढ़ते चले जाने की गति में युवाओं को यह तरीका उपयोगी लगेगा.

'देजा वू' की फीलिंग कराते किरदार
कहानियां किरदारों के भरोसे ही याद रखे जाने के काबिल बनती हैं. आपको लगेगा कि इन कहानियों में दर्ज लोग आपकी जिंदगी में रह चुके हैं. मसलन, स्कूल के कुछ बच्चे हैं जो चोरी की हुई गेंद की पूछताछ के दौरान एक-दूसरे को 'विद्या कसम' खिलवाते हैं और फिर 'अंडी बंडी संडी' पर आ जाते हैं. या 27 साल का एक लड़का है, जिसके दो ब्रेकअप हुए और दोनों बार उसकी प्रेमिकाओं ने आखिरी मुलाकात में माथा चूमकर एक ही बात कही.

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फलाना कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग
इस नाम से भी एक कहानी है किताब मे. इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने वाले दो पक्के दोस्त हैं और फिर प्लेसमेंट और नौकरी के सीन की एंट्री है. कैसे कॉलेज की कैंटीन 'लवर्स' और 'जस्ट फ्रेंड्स' वाले हिस्सों में बंटी होती है. इंजीनियरिंग कॉलेजों की लव स्टोरीज कैसे किसी शाम प्लेसमेंट के बाद, सूरज के साथ और कैंटीन के बाहर डूब जाती हैं, जानना तो इसे जरूर पढ़ें.

इश्क के रिवाज क्या क्या हैं!
स्कूली दिनों की मासूम जिज्ञासाओं और सेक्सुएलिटी से परिचय जैसे विषयों पर भी दिव्य ने ईमानदारी से और सावधानी से लिखा है. एक कहानी में वे मासूम बच्चे हैं जो 'प्यार' का मतलब जानना चाहते हैं और तमाम कोशिशों के बाद अंतत: एक सीडी देखते हुए कुछ 'अजीब' कर बैठते हैं.

या ट्रेन से शुरू हुई एक लव स्टोरी है जो लड़की की शादी और 'लव यू फॉरेवर' के सांत्वनापरक नारे के साथ खत्म हो जाती है. 15 साल का एक बच्चा है जिसके लिए उसकी पड़ोसी भाभी एक भावनात्मक वजह से उसके 'भाभी से ज्यादा कुछ' हो जाती हैं. या परिवार के ताने सहने वाला एक इंजीनियरिंग का एक स्टूडेंट जिसे मरना नहीं था, बल्कि म्यूजिक इंस्टीट्यूट खोलना था. अपने भांजे पर पढ़ाई का रौब झाड़ने वाले टॉपर मामा भी हैं जो रात में 'वैसी' वाली फिल्में देखा करते थे.

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'मसाला चाय' मूल रूप से शहरी युवाओं के उन किस्सों का संग्रह है जिन्हें आम तौर पर चाय की टीपरी पर सुनाया जाता है. दिव्य ने कुछ अतिरिक्त मसाला डालकर इन किस्सों को एक कुशल क्राफ्टमैन की तरह कहानियों में गढ़ लिया है. कई जगह तो लगता है कि मसाले की मात्रा थोड़ी भी इधर या उधर हो गई होती तो मज़ा कम हो जाता. यह एक मजेदार किताब है जो आपके बीते हुए सच को बार-बार याद दिलाती है. जिस तरह वह कहानियों को शुरू और खत्म करते हैं या 'देजा वू' का एहसास कराते हैं, उससे लगता है कि वह दृश्यों में सोचते हैं और आगे चलकर फिल्मों के लिए भी लिख सकते हैं या लिखना चाहते होंगे.

क्यों पढ़ें:
वे जो खुद को युवा समझते हैं, जिनकी रुचि अपनी दुनिया की कहानियों में है और जो सब कुछ खारिज करने के बौद्धिक दंभ से नहीं भरे हैं, उन्हें यह किताब जरूर पढ़नी चाहिए. अगर आप इंजीनियरिंग स्टूडेंट हैं या थे, तो यह किताब आपको शर्तिया पसंद आएगी. इंजीनियरिंग की पढ़ाई नहीं की तो पता चलेगा कि कैसे इस देश में एग्जाम से एक रात पहले इंजीनियर तैयार हो रहे हैं. स्कूली दिनों में सेक्सुएलिटी से अपने परिचय को याद करते हुए मुस्कुराना चाहते हैं या अपने जैसे युवाओं के राज़दाराना किस्सों में दिलचस्पी है तो यह किताब पढ़ डालिए.

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क्यों न पढ़ें:
पारंपरिक साहित्य के लिहाज से यह कोई अद्भुत किताब नहीं है और शायद लेखक उसे ऐसा बनाना भी नहीं चाहते थे. सिंपल और मजेदार किताब है. 'संस्कृति के कथित रक्षकों' और सामाजिक सच्चाइयों की शुतुरमुर्ग की तरह अनदेखी करने वालों को यह किताब थोड़ी ठेस पहुंचा सकती है. लिहाजा वे लोग दूर रहें. 'सरोकार' की तलाश करने वाले इसे समाजशास्त्रीय तरीके से देखेंगे तो पाएंगे कि कुछ कहानियों में अंतत: समाज की 'हिपोक्रेसी' ही उजागर होती है.

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