किताब: मोहनदास
लेखक: उदय प्रकाश
पब्लिशर: वाणी प्रकाशन
कवर: पेपरबैक
कीमत: 125 रुपये
डर का रंग कैसा होता है. सोचने पर डर के लम्हे तो याद आते हैं लेकिन डर का रंग आंख मीचने के बाद भी नहीं दिखता. डर का सामना कर चुके मन को कभी फुर्सत और हिम्मत ही नहीं मिली कि वो डर का रंग देख सके. लेकिन 'मोहनदास' हमें वो रंग दिखाता है जो यूं ही कभी भी हमें दिख सकते हैं अपने आस-पास. जरूरत होगी तो सिर्फ एक मानवीय नजर की.
मोहनदास एक छोटी मगर गहरी कहानी है, जिसे सफेद पन्नों पर उदय प्रकाश ने गढ़ने का काम किया है. 'मोहनदास' की कहानी इसके मुख्य किरदार मोहनदास, उसकी पत्नी कस्तूरी, टीबी के मरीज पिता, आंखों की रोशनी खो चुकी बूढ़ी मां, बच्चे और उसके जीवन के सच के इर्द-गिर्द घूमती है. सच जो कि सिर्फ उसके लिए या खुदा की नजरों में सच होता है. चूंकि समाज की नजरों में सच वो होता है जो दिख और बिक रहा होता है. मोहनदास दिख नहीं पा रहा था और न ही बिक पा रहा था. वो बस अपनी उधड़ी जिंदगी जी रहा था कुछ सपनों और ज्यादा तकलीफों के बीच.
मोहनदास एक युवा जो अपनी जात बिरादरी इलाके का पहला बीए पास लड़का होता है. बीए वो भी फर्स्ट क्लास. स्कूल में हमेशा टॉप आने वाला मोहनदास जिंदगी की परीक्षा को भी स्कूल में आने वाली परीक्षा ही मान लेता है, जिसमें थोड़ी मेहनत और सब्र के बाद सफलता पाई जा सकती है. लेकिन मोहनदास ने स्कूल का सबक तो किताबी पन्ने पलटकर सीख लिया लेकिन जिंदगी का सबक सीखने के लिए उसको अपनी जिंदगी के कुछ कीमती पन्ने उधेड़ने पड़े. ऐसे पन्ने जो अगर उधेड़े या फाड़े न गए होते तो शायद जिंदगी ज्यादा बेहतर और सपनों की मीठी चादर से भिगा देने वाली होती. मोहनदास नौकरी की कई परीक्षाएं देता है लेकिन उसे कहीं भी सफलता नहीं मिलती है. हालांकि समाज का कड़वा सच 'मोहनदास' की कहानी में दिखता है. सच ये कि अगर आपकी पहुंच और सही वाला जुगाड़ है तो आपका काम बन सकता है. प्रतिभा पहली प्राथमिकता नहीं है, प्राथमिकता है जुगाड़ होना.
नौकरी की एक परीक्षा में पूरी सफलता मिल जाने के बाद भी किन्ही वजहों से मोहनदास को वो नौकरी नहीं मिल पाती है, जिसका वो हकदार होता है. आखिर में जातिवाद, जुगाड़वाद और बुरे लोगों के बीच अच्छे लोगों के होने के अपवाद के बीच 'मोहनदास' की कहानी आगे बढ़ती है. इस बीच मोहनदास का परिवार गरीबी को झेल अपनी जिंदगी बिताने की बजाय 'काट' रहा होता है. काबिल होने के बाद भी अपनी जरूरतों के मुताबिक, खुशियां पाने के सुख से दूर मोहनदास और उसका परिवार हिम्मत हारने के बजाय वो सब काम करता है, जिसे कोई भी स्वाभिमानी परिवार अपना पेट भरने के लिए करता है.
मोहनदास में क्या है खास
उदय प्रकाश ने कहानी के बीच में किसी हालात का जिक्र उस वक्त के समाजिक परिदृश्य से भी करते हैं. मसलन, मोहनदास की नौकरी के चल रहे केस के बाद अखबारों की खबरों को बताते हुए उदय इस बात को भी बयां करते हैं कि उस वक्त देश की बाकी जनता किन बातों(मुन्नाभाई एमबीबीएस फिल्म देखने) में उलझी और मस्त थी. उदय किताब में देसी भाषा का इस्तेमाल करते हैं, जिससे पाठक कहानी और किरदारों को बेहतर तरीके से खुद से जोड़ पाता है. हालांकि इसे दाल में नमक की तरह ही देखा जाना चाहिए क्योंकि उदय कई जगह उन देसी संवादों की हिंदी भी साथ बताते चलते हैं. कहानी के किरदारों के नाम दिलचस्प और जाने-माने हैं. लेकिन हकीकत और कहानी उसने काफी परे है.
मोहनदास को हम क्यों न पढ़ें
मानिए या न मानिए लेकिन ये सच्चाई है कि हमारे समाज में कुछ जगह आज भी जाति का बोलबाला है. ज्यादातर मौकों पर तूती उसी की बोलती है, जिसका जुगाड़शास्त्र फिट रहता है. तो ऐसे में अगर आप भी जुगाड़शास्त्र, जातिवाद के समर्थक हैं तो माफ कीजिएगा आप कुछ और ट्राई कीजिए. दूजा वो लोग इस किताब को कतई न छुएं, जिनके अंदर संवेदनाएं नहीं हैं. अगर आप 'हाहाहा, लोल' टाइप किताबों के शौकीन हैं तो मोहनदास की बिखरती जिंदगी की कहानी आपने पल्ले पड़ना मुश्किल है. मोहनदास के बारे में एक बात बता देना बेहतर रहेगा कि इसकी एंडिंग फिल्मों के माफिक ही है, तो अगर आप फिल्मी टाइम एंडिंग के शौकीन हैं तो देर मत कीजिए एक हिंदी फिल्म की कहानी जैसा ही कुछ है अपना ये 'मोहनदास.'