आज 26 नवम्बर है. 2008 में मुंबई में हुए आतंकी हमले के बाद से 26/11 को स्याह दिन की तरह याद किया जाता है. बहुत लोगों को याद होगा कि इस घटना के मुख्य आरोपी डेविड हेडली के साथ अनजाने में जुड़े होने के कारण राहुल भट्ट का नाम शक के घेरे में आया था. राहुल भट्ट फिल्मकार महेश भट्ट के बेटे हैं. बाद में अपने उन अनुभवों को आधार बनाकर उन्होंने अपराध-कथा लेखक एस. हुसैन जैदी के साथ अंग्रेजी में एक किताब लिखी थी. जिसका हिंदी अनुवाद 'हेडली और मैं' हार्पर हिंदी से छपकर आया है. इसका अनुवाद प्रभात रंजन ने किया है. भूमिका लिखी है महेश भट्ट ने. पढ़िए बेटे की किताब पर भट्ट साहब के विचार.
‘तुम्हारे पास एक विकल्प है, बेटे. या तो तुम अपनी जिंदगी एक पीड़ित की तरह जियो, अपने खराब बचपन को अपनी बाँह पर तमगे की तरह पहनो, उन लोगों से सहानुभूति पाते रहो जो तुम्हारे लिए कुछ नहीं हैं, या फिर इन सबसे निकल जाओ. अपने दर्द और अपने गुस्से का रचनात्मक इस्तेमाल करो और आगे बढ़ जाओ. मैंने बाद वाला किया. इसीलिए मैं वहां हूं जहां आज हूं. क्या तुम जानते हो, तुममें और मुझमें एक बात सामान्य है. एक ऐसा बचपन जिसमें पिता नहीं थे...’
मैं राहुल से बात कर रहा था जब मैं स्पीति के विशाल, भव्य मैदानों से गुजर रहा था. वह सचमुच ईश्वर की भूमि थी. शुक्रगुजार हूं अपनी बेटी पूजा का, जो अपने निर्देशन में बनने वाली पहली फिल्म की शूटिंग कर रही थी, और हम किब्बर में थे, जो दुनिया का सबसे ऊंचा गाँव है जहाँ गाड़ी से जा पाना संभव है. यह राहुल और मेरे लिए बहुत दुर्लभ अवसर था जब हम दोनों कई सालों बाद साथ साथ थे. वास्तव में, 1985 की उस दर्द भरी रात के बाद जब मैं उसके घर से बाहर निकल गया था, जब वह मुश्किल से तीन साल का था. तब मैं कहाँ जानता था कि जीवन उसकी परीक्षा लेगा और उसको मजबूर होकर उस विकल्प को चुनना पड़ेगा.
‘तुम उसे मोहम्मद क्यों कहना चाहते हो, बेटा?’ मेरी मां ने पूछा, जिसने सारा जीवन अपनी मुस्लिम पहचान को छिपाने में लगाया था. उसको डर था कि इस तथाकथित धर्मनिरपेक्ष देश में भी मुसलमानों को ‘अन्य’ के रूप में देखा जाता था.
‘क्योंकि मैं चाहता हूं कि आपकी मुसलमान विरासत मेरे बेटे के माध्यम से किसी रूप में चलती रहे’, मैंने जवाब दिया.
मेरी मां की बात आखिरकार चल निकली जब उन्होंने मेरी एंग्लो-इन्डियन पत्नी और मेरे बेहद तर्कशील संत सरीखे महाराष्ट्रियन ब्राह्मण पड़ोसी के साथ मिलकर दबाव बनाया, तो मेरे बेटे का नाम राहुल उर्फ सनी रखा गया.
पीछे मुड़कर देखने पर डर लगता है कि 2009 में मेरे बेटे के साथ क्या हुआ होता अगर उसका नाम मोहम्मद भट्ट रखा गया होता. राहुल का जन्म बचपन की मेरी प्रेमिका लौरेन ब्राईट (किरण भट्ट) के साथ मेरे रिश्तों को रफू करने के क्रम में हुई थी, जो तब तक तार-तार हो गया था. और मुझे याद है कि मैंने एक बार फिर पितृत्व को पूरे दिल और दिमाग से अपनाया था.
सन्नी और मेरे साथ होने की दुर्लभ और आरंभिक यादें उभर पड़ीं. पाली हिल पर भोर फूट रही है. मैं एक बेरोजगार, और संघर्षरत फिल्मकार हूं. मैं सन्नी को सम्भ्रान्त पाली हिल में प्रैम पर लेकर घूमा रहा हूं, उसे सुबह की सैर के लिए ले जा रहा हूं.
एक थोड़ा प्रसिद्ध अभिनेता जो अच्छी तरह नशे में है, देर रात की पार्टी से लौट रहा है, जब वह मुझे अप्रत्याशित रूप से पिता के अवतार में अपने छोटे बच्चे के साथ देखता है तो उसका दिल पिघल जाता है. वह सन्नी के ऊपर झुकता है और उसके चारों तरफ अल्कोहल की गंध आ रही है, वह फुसफुसाता है, ‘क्या तुमको यह याद रहेगा कि तुम्हारे पिता तुमको उस समय सुबह की सैर पर ले जा रहे हैं? या सभी बेटों की तरह तुम भी इस बात को भूल जाओगे?’
यह कहते हुए वह मेरा चुम्बन लेता है और अपनी कार की तरफ बढ़ जाता है. पता नहीं क्यों, लेकिन वह मजेदार स्मृति आज मुझे द्रवित कर देती है.
स्मृतियां... स्मृतियां मेरे जीवन की सामग्री रही हैं. इंसान आखिरकार स्मृति ही तो है. जब मैं अपने अन्दर देखता हूं तो पाता हूं कि मेरे अन्दर मेरे बेटे के साथ मेरी स्मृतियां नहीं हैं. एक फलता-फूलता कैरियर, दूसरी शादी, सत्य की मेरी तलाश, इन सबने एक तरह से मेरे जीवन को जकड लिया, और मेरे पास अपने बेटे के साथ बिताने के लिए समय कम से कम होता गया (मैंने अपनी दूसरी शादी से हुई अपनी दो बेटियों के साथ भी इस दौरान शायद ही कोई समय बिताया).
हालांकि मैं हर तरह से उनके लिए प्रबंध करता रहा, और एक ऐसे पिता की तरह से उनके हर बुरे दौर में उपस्थित रहा, मुझे लगता है कि छोटी-छोटी बातों को नजअंदाज कर दिया जाता है. मैं रोज-रोज के कामों में उसको समय नहीं दे पाया, वह सामान्य जीवन जो पिता और बीटा साथ-साथ बिताते हैं. उस तरह से समय जब मैं असफल और बेरोजगार था. कड़वा सच यह है कि मैं वह हो गया जो मैं नहीं बनना चाहता था. पूरे जीवन मैं अपने पिता के ऊपर इन्हों बातों के लिए इल्जाम लगाता रहा. और अब मैं वही कर रहा था. मैं यह चाहता था कि इसको ठीक कर पाऊं. लेकिन नहीं जानता था कि कैसे.
और एक दिन भाग्य ने मुझे उसका मौका दे दिया जो मैं चाहता था. असल में, ऐसा लगा कि पूरी दुनिया ने ऐसा माहौल बनाया कि मुझे मनमाफिक मौका मिलने का समय आ गया.
‘मुझे लगता है कि यह डेविड हेडली जिसके बारे में गुप्तचर एजेंसियां बात कर रही हैं वही आदमी है जिससे मैं अपने फिटनेस ट्रेनर साथी विलास वराक के माध्यम से जानता था.और मैं पक्का हूं कि जिस राहुल के बारे में वे लगातार सन्दर्भ दे रहे हैं वह मैं ही हूं’, मेरे बेटे ने मुझसे फोन पर कहा. यह एक और दिन था, लेकिन मेरे जीवन के सबसे कठिन दिन के परदे खुल गए. दुनिया के लिए यह मनोरंजन था. मेरे लिए, यह किसी प्रलय से कम नहीं था.
‘मुझे क्या करना चाहिए? पूजा और मम्मी कह रही थी कि मुझे आपसे सलाह करके पुलिस के पास जाना चाहिए. मुझे क्या करना चाहिए, पापा?’ उसने पूछा, सामान्य दिखने की कोशिश करता हुआ, लेकिन मैं उसकी आवाज में डर को महसूस कर रहा था.
यह अजीब था. दुनिया के सभी शहरों को छोड़कर ऐसा लगता था कि डेविड हेडली ने इस शहर को चुना. और उससे भी बढ़कर, इस शहर के लाखों लोगों को छोड़कर मेरे बेटे को दोस्ती के लिए चुना! मैं अपने जीवन की सबसे बड़ी दुविधा में था. दुनिया में, जहां हम सहस, और कर्त्तव्य को लेकर बात करते रहते हैं, अभिभावकों को इस तरह से इस तरह से तैयार किया जाता है कि वे खतरों से बच्चों को दूर रख सकें. क्या हम अपने बच्चों को इसके लिए तैयार नहीं करते हैं कि वे अपनी सुरक्षा का ध्यान रखें, अजनबियों से बचकर रहें, अपने सीट बेल्ट बांधकर रखें, और सड़क पार करते समय चारों तरफ देख लिया करें?
लेकिन आप जो करते हैं, वही आप होते हैं, वह नहीं होते जो आप कहते हैं कि आपको करना चाहिए. हमारे पूरे परिवार की परीक्षा की घड़ी थी. क्या हमें चुपचाप बैठकर देखते रहना था, या जनता की नजरों में आने का खतरा उठाकर वह भूमिका निभानी थी जो भाग्य ने हमारे लिए चुना था?
पहली प्रतिक्रिया तो यह थी कि इस सुनामी को दूर भगाना जो धीरे-धीरे हमारी तरफ बढती आ रही थी. हमने ऐसे कई उदाहरण देखे थे कि जिसमें 26/11 के बाद जनता की भावनाओं ने जांच एजेंसियों को अनेक मासूम, तथा खास तौर पर अनेक मुसलमान लड़कों को के खिलाफ अकारण अमानवीय तथा अन्यायपूर्ण ढंग से काम किया था.
साथ ही, यह ख़याल भी आ रहा था कि दक्षिणपंथी ताकतें जिनके साथ मैंने अनेक कटु लड़ाइयाँ लड़ी हैं, इस मौके का फायदा उठाकर मुझे चीर डालेंगे और मेरे बेटे को नुक्सान पहुंचा सकते थे. मैं यह समझ गया था कि यह किसी दुर्भाग्यपूर्ण आदमी के बारे में कोई टेलीविजन शो नहीं था कि मैं एक बटन दबाकर अपने टेलीविजन सेट को बंद कर देता. यह वास्तविक जीवन था, और यह मेरा लड़का था, और वह टेलीफोन की दूसरी तरफ था, उस जवाब के इंतज़ार में जो उसके जीवन को बदल सकता था.
मैंने उससे एक सवाल पूछा, ‘क्या तुमने ऐसा कुछ किया है जो तुम मुझे नहीं बता रहे हो? क्योंकि अगर तुमने किया है तो तुमको अपने कर्मों का फल भुगतना पड़ेगा, बेटे. लेकिन अगर नहीं किया है तो तुमको डरने की कोई जरुरत नहीं है. अपना सर ऊंचा करके पुलिस के पास जाओ.’
रखने से पहले उसने हँसते हुए कहा, ‘पापा, मैंने कुछ भी गलत नहीं किया है. मेरा भरोसा कीजिये.’
उसके बाद जो हुआ वह अच्छा भी था और बुरा भी. बुरा इसलिए क्योंकि वही संस्कृति जो उन लोगों के प्रति श्रद्धांजलि देने का नाटक कर रही थी जिन्होंने 26/11 के कत्लेआम में अपने जान की कुर्बानी दी, वही लोग वापस मुड़कर इन दो लोगों के ऊपर सवाल उठा रहे थे. राहुल, विलास, हमारा परिवार और मैं उस रात के बाद समाचार के भूखों के लिए खाद्य पदार्थ हो चुके थे. दक्षिणपंथी ताकतें समाचार चैनलों के साथ मिलकर जान बूझकर मेरे बेटे के इर्द गिर्द संदेह पैदा करने का काम कर रहे थे और उनको बौना बनाने के काम में लगे थे.
जो बात मैं कभी नहीं समझ सका वह यह कि किस तरह से बजाय इसके कि इन दो साहसी युवकों की तारीफ की जाये कि उन्होंने सूत्रविहीन जांच एजेंसियों की इसके लिए मदद की कि वे इस केस के भीतर जाकर इस डबल एजेंट की कारगुजारियों की जांच कर सकें, सभी इसी नतीजे पर पहुंच गए कि वे देशद्रोह के दोषी हैं. असल में, तो वे नायक थे. विलास को तो अपनी नौकरी से भी हाथ धोना पड़ा और आजतक उसे वापस नहीं मिला है.
यह कहना उचित होगा कि एनआईए, मुंबई पुलिस और गुप्तचर शाखा के अधिकारियों ने इन लड़कों के साथ बहुत सम्मानपूर्वक व्यवहार किया और सार्वजनिक रूप से न सही तो निजी तौर पर उनकी पीठ थपथपाई. लेकिन मेरे तथाकथित दोस्त और रिश्तेदार अचानक कहीं पृष्ठभूमि में छिप गए, उनको डर था कि शायद कहीं कोई भयानक अपराध का पर्दाफाश होने वाला था. मैं, जो किसी के लिए भी खड़ा हो जाता था, अचानक खुद को अकेला महसूस करने लगा. मैं और मेरी बहादुर बेटी पूजा ने सनी के इर्द-गिर्द एक दीवार बना ली और रोज-रोज के आधार पर लड़ाई लड़ी, इस बात का इन्तजार करते हुए कि धारा हमारी तरफ मुड़ जाए.
लेकिन वे हमारे लिए बहुत अच्छा दौर भी था. क्योंकि मेरा बेटा और मैं जीवन में पहली बार इतनी नजदीक आये. उसे यह समझ में आने लगा कि वह आदमी जो 1985 की मध्यरात्रि में दूर चला गया था असल में कहीं गया नहीं था. अजीब विडम्बना की बात थी, मैंने जो साल दूर रहकर बिठाये, अपने लिए नाम बनाने के लिए, उसने उसे बचाने में मेरी मदद की. क्योंकि अगर मैं प्रसिद्ध नहीं होता, कोई नहीं होता जिसका सच बोलने के लिए सम्मान किया जाता था, तो मुझे नहीं लगता कि मेरा बेटा सही-सलामत बाहर निकल पाया होता. अगर वह किसी गुमनाम आदमी का बेटा होता, तो क्या वे उसे उसी तरह से देख पाते? जब मैं यह लिख रहा हूं तो मेरा दिल उन अनेक निर्दोष लोगों के लिए धड़क रहा है जो इतने भाग्यशाली नहीं रहे.
कुछ प्राचीन जनजातियों में, जब बेटा बड़ा होता है तो वह किसी जंगली जानवर को मार देता है अपने पिता को दिखाने के लिए कि वह बड़ा हो चुका है. मेरे लिए, अपने आपको खोल देने की राहुल की तत्परता, और जिस सम्मान और निडरता से उसने उन भयानक दिनों का सामना किया जब उसके ऊपर कुछ लोग देशद्रोही होने के आरोप लगा रहे थे, और इस पूरी कहानी को खोलकर रख देने की उसकी इच्छा इस बात के संकेत हैं कि जिस लड़के को मैं कई गर्मियों पहले सुबह की सैर के लिए ले जाता था वह अब बड़ा हो चुका था.
और उस आदमी की यात्रा अभी शुरू ही हुई है.
महेश भट्ट
मुंबई
अक्टूबर 2012
साहित्यिक ब्लॉग जानकी पुल से साभार.