गद्य संग्रह: जो गुजरी सो गुजरी
लेखक: मुनव्वर राना
प्रकाशक: वाणी प्रकाशन
मूल्य: प्रत्येक किताब का 175 रुपये. चारों का 700 रुपये.
मेरे सारे गुनाहों को वो इस तरह धो देती है
मां बहुत गुस्से में होती है तो रो देती है
इस दुनिया को ये और ऐसे कई मक़बूल शेर देने वाले मुनव्वर राना से साल भर पहले जब अंबाला में मुलाक़ात हुई थी तो इत्तेफ़ाक़न मैंने पूछ लिया था कि वह अपनी ऑटोबायोग्राफी कब पेश फरमा रहे हैं. होटल के कमरे में पान दबाए हुए मुनव्वर ने कहा था कि ऑटोबायोग्राफी तो नहीं, पर गद्य की एक किताब जल्द और बहुत जल्द आएगी. नाम जो होगा, तुम्हें बताए देता हूं, 'जो गुज़री सो गुज़री.'
तो क़द्रदानों और उर्दू के तालिब-इल्मों के लिए ख़बर ये है कि 'जो गुज़री सो गुज़री' को आए कुछ वक़्त बीत चुका है और इसे पढ़ लेना चाहिए. मुनव्वर राना लौट आए हैं और इस बार उनकी झोली में रदीफ़-काफ़िए, मिसरे और मक़ते नहीं हैं, उनके अस्ल तजुर्बों के लंबे पैराग्राफ हैं. हालांकि मुनव्वर ने पहली बार गद्य नहीं लिखा है. कम लोग जानते हैं कि शायरी शुरू करने से पहले वह अफ़साने और ड्रामे लिखते रहे हैं. उनके उस वक़्त के साथी उन्हें ड्रामानिगार की हैसियत से ही जानते थे. लेकिन 'जो गुज़री सो गुज़री' फिक्शन नहीं है, मुनव्वर के निजी अनुभवों, विचारों और किस्सों में डूबी चार क़िताबों का संग्रह है.
ये किताबें हैं, (1) बगैर नक़्शे का मकान; (2) फुन्नक ताल; (3) सफ़ेद जंगली कबूतर और (4) ढलान से उतरते हुए. इन किताबों की तासीर एक ही है सो ये चार हिस्सों में न भी होतीं तो चलता.
शायर की ज़ुबान से क़िस्से सुनने हैं?
आपने सोचा है कि शायर जब मंच से उतरता है तो कैसे बात करता है? माइक और मंच के ख़ुलूस से दूर
अपने आंगन में खटिया पर पसरे हुए शायर को सुनना, कैसा होता है? उसके क़िस्सों की तासीर क्या होती
है और उन्हें बयान करने का शऊर किस तरह अलहदा होता है? ग़ज़ल की रिदम और शोख़ी बनी रहती है
या नहीं? वह बातें रेडियो के किसी तालीमयाफ़्ता अनाउंसर की तरह करता है या दादी-नानी की गूढ़
लोककथाओं का ही विस्तार या सार होता है? यह सब आप जानेंगे, जब आप मुनव्वर राना का लिखा गद्य
पढ़ेंगे. उन्हें पढ़ना उनके ज़ुबान से क़िस्से सुनने जैसा ही है. मुझे अनुभव है, इसलिए दावे से कह रहा हूं.
बस पढ़ते हुए उर्दू थोड़ा और छनकर आती है.
किस्से सुनने का लालच तो है ही, उर्दू ज्ञान बढ़ाने की उपयोगिता भी है. अगर अरसे से आप हिंदी की इस बहन को अपनी ज़ुबान पर स्थायी जगह देना चाह रहे थे, तो यह बिल्कुल माकूल किताब है. सहूलियत के लिए मुश्किल लफ़्ज़ों के मानी ब्रैकेट में साथ के साथ लिख दिए गए हैं. बोल-बोलकर पढ़िए और तलफ़्फ़ुज़ भी सुधारिए.
मुनव्वर की जिंदगी में जो गुज़रा, वही सब
इसे पढ़कर आप जानेंगे कि तमाम अजीज़ों, अदीबों, शहरों और शायरों के बारे में मुनव्वर क्या सोचते हैं.
वह जोश मलीहाबादी को तरक्कीपज़ीर शायर क्यों कहते हैं और मरहूम हज़रत कृष्ण बिहारी नूर को उनके
ऑफिस के पते पर ख़त क्यों लिखना चाहते हैं. वक्त और संवेदनाओं के विराट अनुभव के बाद जिंदग़ी की
विडंबनाओं पर उनकी क्या राय बनी है और दंगों के ठीक बाद आई ईद पर उनकी आंखें छतों से क्या
देखती हैं. अपने गैर-हिंदू दोस्तों के बारे में उनके तजुर्बात क्या हैं और उर्दू अकादमियों का निज़ाम उन्हें
ग़लीज़ क्यों लगता है.
मुनव्वर ने जो क़िस्से बयान किए गए हैं और जिस लहज़े में बयान किए गए हैं, वे अव्वल तो आज के दौर में कहीं सुनने को नहीं मिलेंगे; और मिले तो फिर मुनव्वर-सी हाज़िरजवाबी उनमें नहीं ही होगी. किताब में रायबरेली के इस शायर का संजीदा रूप ही ज्यादा दिखता है, लेकिन बीच-बीच में वह तंज-ओ-लतीफ़ का ऐसा ट्रेलर देते हैं कि तबीयत हरी हो जाती है. आप यह भी जानेंगे कि लखनऊ में रिश्वत लेते हुए भी कैसे लोग तहजीब की चादर ओढ़े रहते हैं और बनारस में पान के साथ अमुक जर्दा मांग लेने पर जवाब क्या मिलता है. इसलिए मुनव्वर राना की शख्सियत के इस पहलू से नावाकिफ रह गए लोगों को यह किताब जरूर पढ़नी चाहिए. हो सकता है आप इसे उनके सुनाए लतीफ़ों से ही याद रखें.
क्यों पढ़ें:
अगर मुनव्वर राना को पसंद करते हों तो यह किताब आपके मिस करने के लिए हरगिज़ नहीं है. उर्दू से
बहुत तआल्लुक न भी हो, लेकिन घूमना पसंद हो तो कई शहरों की तासीर बताने वाली ये किताब आपको
भा जाएगी. मुनव्वर ने दाग़ देहलवी के लिए जो कहा, वह इस किताब को पढ़ने के बाद मैं उनके लिए
कहना चाहता हूं. कि उन्होंने उर्दू मुहावरों को अपनी उस्तादी फ़न से चौबीस कैरेट का सोना बना दिया है,
जो हर ज़माने में सोना ही रहेगा. बद्ज़ौकों के अह्द में भी पीतल नहीं कहलाएगा.
क्यों न पढ़ें:
अगर नीरस ही हैं तो कोई क्या कर सकता है. किस्से सुनना वक़्त की बर्बादी लगता हो, उर्दू की मिठास
छाती में चुभती हो और शायरों की बातें लफ्फाजी लगती हों तो ज़हमत न कीजिएगा. अगर मसाले वाले
नॉवेल रोमांचित करते हों तो भूल से भी हाथ न लगाएं. मुनव्वर को पढ़ने के लिए थोड़ा उतरना पड़ता है
क्योंकि नए दौर की ये दुनिया काफी ऊंचाई पर बसाई जा चुकी है. लिहाजा बेजा लोड न लें. चेतन भगत
ही आपके लिए ठीक हैं.
किताब के कुछ हिस्से:
1. क़िस्सा-ए-हलीम
रमज़ान के दिनों में हलीम (खिचड़ा) की बहार आ जाती है. बिहारी हलीम, अफग़ानी हलीम, हाशिम
अलीम, साबिर हलीम, पता नहीं कौन-कौन सी हलीम बाज़ार में बिकती हुी दिखाई देती है. अकसर
मौलवी हज़रात नाख़ुदा मस्ज़िद के सामने ही हलीम खाते हैं क्योंकि मुर्गे ज्यादातर उसी मस्ज़िद में शहीद
होते हैं. कुछ पूछिए नहीं साहब. शहर में ऐसे ख़तरनाक हलीम खाने वाले पड़े हैं कि अगर मौक़ा मिल
जाए तो हलीम नाम के अदीबों तक को खा जाएं. ग़ालिबन इसी ख़ौफ की वजह से अपने हाशिम अब्दुल
हलीम साहब रमज़ानों में मग़रिब के बाद घर से बाहर नहीं निकलते.
2. सिगरेट को लब से लगाने तक
बहुत से सिगरेटनोश अपने हाथों से सिगरेट बनाकर अपने नशे को दो-आतिशा बनाते हैं. मसलन गुफ्तगू
की भूलभुलैयों में भटकते हुए अपनी जेब से सिगरेट का कागज़ बनाते हैं. कुछ देर इस कागज़ से गेसू और
रुख़सार की तरह खेलते हैं. फिर तंबाकू से छेड़छाड़ शुरू होती है. तंबाकू हथेलियों पर हरिजन औरत के
जिस्म की तरह मुसलसल मसली और कुचली जाती है ताकि उसका ज़हर और कमज़ोर हो जाए. रौंदी और
कुचली हुई तंबाकू काग़ज़ के बदन पर सजाई जाती है. सिगरेटनोश इन मरहलों से गुज़रने के बाद अपनी
बेचैन उंगलियों से तंबाकू की नोक-पलक दुरुस्त करता है. इस पूरे खेल में गुफ्तगू का कोई तार नहीं टूटता
है और तख़ातुब में रुकावट नहीं आती है. आख़िर में सिगरेटनोश काग़ज़ पर हल्के से गोद पर अपने लब
रख देता है और ऐसे बेख़बर हो जाता है जैसे काग़ज़ पर न हो, रुख़सार-ए-यार पर रख दिए हों. फिर
सिगरेट को इस तरह शोले के हवाले कर देता है जैसे सिगरेट न हो बेवफा महबूब का पुराना ख़त हो.
सिगरेट के साथ-साथ ख़ुद भी सुलगता रहता है. ज़ाहिर है कि आग का पेड़ बहुत देर हरा नहीं रहता,
दुनिया की हर आग ठंडी हो जाती है.
4. रमज़ान की जुदाई
ईद का चांद देहातों में दरख़्तों की आड़ से और शहरों में इमारतों के दरीचों से झांकने लगा है. नन्हे-नन्हे
बच्चे अपने बुज़ुर्गों की लाठी बने हुए छतों पर आ गए हैं. बूढ़ी दादी अपनी झुर्रियों से भरे हुए चेहरे पर
धुंधलाती हुई आंखों से चांद को तलाश करते हुए बड़बड़ा रही है.
जीती रहो मगर मुझे आता नहीं नज़र
बेटी कहां है चांद बताना मुझे किधर
अफसोस अब निगाह भी कमज़ोर हो गई
जो चीज़ कीमती थी बुढ़ापे में खो गई
बच्चे अपनी छोटी-छोटी उंगलियों से चांद की तरफ इशारा करते हैं और चंदा मामा कभी शरमाकर कभी ग़रीबों और नादानों से निगाहें छुपाते हुए बादलों में छुप जाते हैं. ईद का चांद देखने वाले फूट-फूट कर रो क्यों रहे हैं? उनकी फूल जैसी आंखों से आंसुओं की शबनम क्यों बहने लगी है? रमज़ान की जुदाई का ग़म सिर्फ रोज़ादार ही जानता है. फिर सांसों का क्या ऐतबार. ज़िंदग़ी की नाव का कोई मुस्तक़िल साहिल नहीं होता. ज़िंदग़ी तो कठपुतली का एक खेल है, जिसकी डोर रहती दुनिया तक परवरदिगार के हाथों में ही रहेगी. साइंस कितनी भी तरक्की करे, आदमी चांद-सूरज से कितनी ही दोस्ती करे, अस्पताल कितनी ही मशीनों से आरास्ता हो जाएं, ज़िंदग़ी पर किसी का बस नहीं.
5. लाग़र बकरों के किस्से
बकरीद में शायद आपने ये जादू भी देखा हो कि जो बकरा छोटे-मोटे कमरे में नहीं समा सकता था, वही
रेफ्रिजरेटर में समा जाता है. नहीं देखा हो तो किसी भी घर में देख सकते हैं. अकसर ख़रीदार क्वालिटी से
ज्यादा क्वांटिटी पर तरजीह देते हैं. बाद में अहबाब से फ़ख़्रिया बयानी करते हैं कि नौ बकरे खरीद लिए.
हालांकि उन बकरों में से बहुत से बकरे खानदानी मुर्गों के वज़न के बराबर भी नहीं होते. कुछ बकरे तो
इतने लाग़र होते हैं कि ख़रीदार उन्हें स्ट्रेचर पर लादकर ले जाते हैं. ऐसे बकरे भी देखने में आते हैं कि खो
जाएं तो उन्हें तलाश करने के लिए दूरबीन खरीदनी पड़े. बकरों की मंडी में शायरों और सहाफियों से
मुलाकात भी होती रहती है. एक सुबह की बात है बाजिग़ बिहारी से मुलाकात हो गई. कहने लगे कि मेरे
उस्तादे-मोहतरम हजरत कैसर शमीम ने बकरा खरीदने की जिम्मेदारी मुझे सौंपी है. मैने पूछा बाजिग़
साहब आपने बकरे देखे? तो कहने लगे कि नहीं, अभी तक को बकरे ही मुझको देख रहे हैं. तीन-चार दिनों
बाद कोई चीज़ खरीदकर उस्तादे-मोहतरम की ख़िदमत में ले गए. तमाम हवड़ा वालों ने उस जानवर को
पहचानने की कोशिश की मगर उसकी कोई शिनाख़्त नहीं हो सकी. अहसन शफीक ने क़ैसर शमीम साहब
से अर्ज़ किया कि हज़रत अगर इसका कोई नाम अगर समझ में न आए तो 'कूबड़ी बुलंदियां' रख
दीजिएगा. सबसे ज़्यादा दुख हामी गोरखपुरी साहब को हुआ जो जैतून का तेल पानी में खौला रहे थे.
6. लखनऊ की रिश्वत-तलबी
शहरे-लखनऊ अपने आदाब, सलीक़े और मुहज़्जब गुफ़्तगू के लिए बहुत मशहूर है. वहां के लोग रिश्वत भी
इस तरह लेते हैं जिस तरह औरतें बच्चों को गोद में लेती हैं. एक बार मुझे लखनऊ से कलकत्ता आना था. मैं
स्टेशन के रिजर्वेशन काउंटर पर पहुंचा और बुकिंग क्लर्क से कलकत्ता की एक बर्थ की गुज़ारिश की. क्लर्क
ने निहायत शुस्ता लहज़े में मेरा नाम दरयाफ्त किया और मेरे हाथ से ऑर्डिनरी टिकट ले लिया. मैंने
फौरन जेब से छह रुपये निकालकर काउंटर पर रख दिए. बुकिंग क्लर्क ने रिजर्वेशन स्लिप बनाते बनाते
एक बार रुपयों की तरफ देखा और कहने लगा कि रुपयों पर कुछ वज़न रखिए जनाब, वरना नोट उड़
जाएंगे. मैंने फौरन एक रुपये वाले चार सिक्के रुपयों पर रख दिए. उसने टिकट मेरे हाथ में दिया और
मुस्कुराकर शुक्रिया भी अदा किया. इस एक वाक़ये से मैं लखनऊ वालों की शाइस्तगी और रिश्वत-तलबी
का क़ायल हो गया. मेरे एक दोस्त ने बताया कि राना साहब रिश्वत लेते हुए लोग इसलिए पकड़े जाते हैं
क्योंकि वे अपनी औकात से ज़्यादा रिश्वत मांग लेते हैं. और रिश्वत देने वाले इसलिए पकड़ लिए जाते हैं
क्योंकि वे सामने वाली की हैसियत से कम पेशकश कर देते हैं. उन्होंने कहा कि हुक़ूमत को मशविरा देना
चाहिए कि रिश्वत लेने और देने की तालीम और तरबियत का मुनासिब इंतजाम बहुत ज़रूरी है. मैंने कहा,
जनाब अव्वल तो मेरी सुनेगा कौन. मैं गरीब उर्दू का आदमी हूं. दूसरी बात ये है कि अगर ऐसा हो भी
जाए तो इसमें मेरा फायदा क्या होगा. तो मौसूफ मुस्कुराते हुए बोले कि आप किसी एकेडमी के चेयरमैन
बनाए जा सकते हैं. वरना जिन काग़ज़ों पर आप उर्दू में लिख रहे हैं, उसको बनिए भी लिफाफा बनाने के
लिए नहीं खरीदेंगे.