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निखिल सचान का कहानी संग्रह 'जिंदगी आइस पाइस'

निखि‍ल सचान अपना कहानी संग्रह 'जिंदगी आइस पाइस' लेकर आ रहे हैं. 100 रुपये मूल्य की इस किताब का प्रकाश दिल्ली के हिंद युग्म प्रकाशक ने किया है. पुस्तक की प्रीबुकिंग शुरू हो चुकी है और यह 25 मई से ऑनलाइन स्टोर पर उपलब्ध हो जाएगी.

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किताब का कवर
किताब का कवर

किताब: जिंदगी आइस पाइस (पेपरबैक, कहानियां)
लेखक: निखिल सचान
पेज: 144
मूल्य: 100 रुपये
प्रकाशक: हिंद युग्म, दिल्ली

निखि‍ल सचान अपना कहानी संग्रह 'जिंदगी आइस पाइस' लेकर आ रहे हैं. 100 रुपये मूल्य की इस किताब का प्रकाश दिल्ली के हिंद युग्म प्रकाशक ने किया है. पुस्तक की प्रीबुकिंग शुरू हो चुकी है और यह 25 मई से ऑनलाइन स्टोर पर उपलब्ध हो जाएगी.

पेश है इस किताब के कुछ अंश...

ये एक फंडामेंटलिस्ट स्कूल था. यहाँ दूबे माठ साब कोर्स के हिसाब से जब भी प्रेम पर कुछ 'इंटेंस'-सा पढ़ाया करते, तो हमेशा यही कहते थे कि प्रस्तुत पंक्तियाँ आत्मा और परमात्मा के मिलन को बयाँ करते हुए कही गई हैं. लफ्ज चाहे जितने भी नग्न हों, उघारे हों और पन्नों की सेज पर अपने प्रियतम को चूम लेने की हरारत में बेक़रार कसमसा रहे हों, लेकिन लऊँडों को हमेशा यही बरगलाया जाता था कि प्रस्तुत पंक्तियों में 'आत्मा' चाहती है कि वो टूटकर-बिखरकर 'परमात्मा' में समा जाए. एकाकार हो जाए.

बस, 'अल्टीमेटली' उसे जीवन-मरण के चक्कर से मुक्ति मिल जाए. ऐसे में, क्लास में दो तरह के बच्चे हुआ करते थे. एक वो, जो अपनी टीनेजरी की दहलीज पर उकड़ूँ बैठे अपने सपनों की श्वेत मुर्गियों को प्रणय-बाँग दे रहे होते थे और खूब समझ रहे होते थे कि 'मरी’ आत्मा को ऐसी कौन-सी आग लगी पड़ी है जो जब देखो परमात्मा की बाँहों में समाने को पगलाई रहती है. आत्मा जो न पानी से गीली हो सकती है और न आग से जल सकती है, वो आशिक़ी क्या घंटा करेगी! दूसरी तरह के बच्चे वो हुआ करते थे जो सच में हाथ जोड़कर भरे मन से ये प्रार्थना कर रहे होते थे कि आत्मा और परमात्मा का मिलन किसी तरह बस हो ही जाए. वो 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे' के ट्रेन वाले आखिरी सीन की विवेचना भी इसी तरह करते कि यहाँ पर अमरीश पुरी 'संसार की माया' का प्रतीक है और काजोल 'आत्मा' का प्रतिरूप. हो-न-हो शाहरुख़ 'परमात्मा' है. फ़िल्म के आख़िरी सीन में जब अमरीश पुरी काजोल का हाथ छोड़ कहता है- ' जा सिमरन, जी ले अपनी ज़िंदगी.' तब ये साफ़ हो भी गया था कि वो ट्रेन रूपी अलौकिक-असांसारिक यात्रा के माध्यम से, माया से हाथ छुड़वाकर, आत्मा को परमात्मा से मिलने के लिए भेज रहा था. ये दूसरी तरह के बच्चे बड़े भोले थे. लेकिन दूबे जी की पहली तरह के बच्चों से हमेशा फटी रहती थी. क्योंकि गाहे-बगाहे उनमें से कोई-न-कोई खड़ा होकर पूछ ही देता था- ' माठ साब, प्रस्तुत पक्तियों में कवि आत्मा के माध्यम से ये कौन से मीठे-मीठे दर्द की बात कर रहा है. माने दर्द तो ठीक बात है माठ साब, लेकिन ये कौन प्रकार का दर्द है जो मीठा-मीठा-सा लगता है?'

दूबे जी भी खूब भले मानस थे. बच्चों की क्यूरियोसिटी का भरपूर जवाब देते थे. मिसाल के तौर पर, इस सवाल के जवाब में उन्होंने नीम की पंद्रह बेंत विनोद के पिछवाड़े पर सोंट-सोंट के मारी. और कहा- ' अब ये जो तुम्हारे पिछवाड़े पर हो रहा है न, यही वो मीठा-मीठा दर्द है. जो आत्मा को अक्सर हुआ करता है. अब तो समझ पा रहे हो न बेटा बिनोद?' विनोद हमारी क्लास के सबसे हरामखोर लड़कों में से एक था. इसलिए मैंने मन-ही-मन उसे अपना गुरू मान लिया था. मेरे लिए विनोद उम्मीद की वो किरण था जो मुझे ‘दूसरी तरह’ के बच्चे से ‘पहली तरह’ के बच्चे में तब्दील कर सकता था. मैं पहली तरह का बच्चा इसलिए हो जाना चाहता था क्योंकि मुझे प्यार हो चला था और मैं नहीं चाहता था कि मेरा प्यार भी आत्मा-परमात्मा वाला बकवास प्यार रह जाए. हम सब जानते थे कि विनोद पूरी क्लास में अकेला ऐसा लड़का था जिसके पास गर्लफ्रेंड थी. हालाँकि, विनोद उसे आइटम, फंटी या माल कहलवाना पसंद करता था. लेकिन मुझे ऐसा कहना बिलकुल पसंद नहीं था. क्योंकि मैं नहीं चाहता कि कल को श्रुति मेरी गर्लफ्रेंड बने और कोई उसे माल कहे. मैंने पहले से तय कर लिया था कि मैं उसे ‘जानू’ कहूँगा.

मैं भूगोल के बोरिंग पीरियड में अपनी कल्पना में श्रुति को जानू कहने का अभ्यास किया करता. और इतना सोच भर लेने से मेरे चेहरे का मानचित्र बदलने लगता. मुझे ये सोच कर रोमांच हो जाता कि अगर श्रुति ने पलटकर मुझे भी जानू कह दिया तो मेरे बदन के शुष्क मरुस्थल पर उसकी आवाज़ की नम पछुआ पवन टकराकर, मौसम का पहला मानसून ले आएगी. वहाँ, जहाँ आज तक बारिश की एक बूँद भी नहीं गिरी, आज वहाँ मूसलाधार बरसात आएगी और मेरे बदन के मरुस्थल का रोम-रोम चेरापूँजी के घसियाले मैदानों की हरी दूब-सा खिल उठेगा. श्रुति ने भी हठ पकड़ ली थी. वो हरेक पीरियड में मेरे दिमाग़ का हिस्सा हो लेती. जैसे वो मुझसे कहना चाह रही हो कि मैं क्यों उसके पास पहुँचकर उससे बात नहीं करता.

उस दिन तो हद ही हो गई जब भूगोल की क्लास के बाद अंग्रेजी की क्लास में श्रुति लूसी ग्रे बनकर आ गई. विलियम वर्ड्सवर्थ की कविता की एक-एक लाइन में लूसी का चित्रण, हू-ब-हू श्रुति से मिलता था. अंग्रेजी के बाद, गणित की क्लास में उस दिन कोऑर्डिनेट ज्योमेट्री पढ़ाई गई. श्रुति वहाँ भी थी. पैराबोला और इलिप्स के उठान और उभार में. वहाँ मैं भी था. असिम्प्टोट बनकर. त्रिपाठी माठ सा'ब ने बताया कि असिम्प्टोट वो लाइन होती है जो पैराबोला को अनंत पर जाकर मिलती है. मेरे दिल की धड़कनें अचानक और तेज हो गईं. मुझसे रहा नहीं गया और मैंने हाथ खड़ा किया. ' सर?' ' हाँ बालक, कहो क्या प्रश्न है?' 'अनंत पर मिलना क्या होता है?' 'अनंत पर मिलना, मतलब इनफिनिटी पर मिलना.' ' हाँ तो माठ सा'ब, इनफिनिटी पर मिलना क्या होता है?' ' इनफिनिटी पर मिलना मतलब अनंत पर मिलना.' त्रिपाठी जी ने चीखते हुआ कहा. ' सर आप समझ नहीं रहे हैं. मैंने ये तो समझ लिया कि इनफिनिटी मतलब अनंत होता है. लेकिन ये ‘मिलना’ क्या होता है?' ' पगला गए हो क्या बालक? बिना बात दिमाग़ ख़राब कर रहे हो. इधर आकर मुर्गा बन जाओ.' ' सर आप तो बिला वजह नाराज़ हो रहे हैं. मन में सवाल था तो पूछ लिया.'

'सवाल गया बाबा जी की लंगोटी में. अब इधर आकर सीधी तरह मुर्गा बनते हो या नहीं?' ' इनफिनिटी पर मिलना भी कैसा मिलना हुआ सर! ऐसे तो फिर असिम्प्टोट पैराबोला से कभी नहीं मिल सकेगा. सीधे-सीधे आप ये क्यों नहीं कह देते कि दरअसल दोनों कभी मिलते ही नहीं हैं. ऐसा बस प्रतीत होता है कि दोनों कहीं मिल रहे हैं.' मैंने मुर्गा बने हुए घुटनों के बीच से त्रिपाठी जी को घूरते हुए, दुखी मन से जवाब दिया. मेरा दिल टूट चुका था. साथ में मेरी टाँगें भी. आधा घंटा लगातार मुर्गा बने रहना कितना कष्टदायक होता है इसका असली अंदाज़ा तब होता है जब आप कुक्कड़ योनि से मनुष्य योनि में वापस आते हैं. चलना शुरू करते ही घुटनों की गेंद ग्रैविटी और फ्रिक्शन से झगड़ना शुरू करती हैं जिसमें बीच-बीच में ऐसा महसूस होता है कि अभी अचानक घुटनों की दोनों गेंदें पॉप करके बाहर आ जाएँगी.

न्यूटन ने भले ही सेब को गिरता देख ग्रैविटी को हेलो बोला होगा. लेकिन ग्रैविटी से हमारी नमस्ते तो त्रिपाठी माठ सा'ब ने ही कराई थी. अगर इस वक़्त श्रुति मेरी क्लास में होती तो वो मुझे मुर्गा बने देखकर ज़रूर दुःख ज़ाहिर करती. वो मेरे क्लास की लड़कियों की तरह निर्मम और शैलो नहीं थी जो मुझे मुर्गा बने देखकर होंठों पर रुमाल लगाकर हँस रही थीं. ख़ास तौर पर वो प्रियंका सिंघानिया और ईशा कपूर जैसी तो बिलकुल नहीं थी, जिन्हें जितना गुरूर अपनी ख़ूबसूरती और एक्सेंट वाली अंग्रेजी का था उससे कहीं अधिक गुरूर उन्हें सिंघानिया और कपूर होने का था.

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