आपहुदरीः एक जिद्दी लड़की की आत्मकथा
लेखकः रमणिका गुप्ता
प्रकाशकः सामयिक प्रकाशन
कीमतः 795 रु.
रमणिका गुप्ता आपहुदरी से पहले अपनी आत्मकथा के पहले खंड हादसे को लेकर चर्चित रही हैं जिसे एक वरिष्ठ साहित्यकार ने ''एक महिला राजनैतिक कार्यकर्ता की कथा" कहा था. अब उन्होंने अपने जीवन के अंतरंग प्रसंगों के इर्दगिर्द जो कुछ बुना है उसे एक जिद्दी लड़की की आत्मकथा कहकर आपहुदरी नाम से प्रकाशित किया है. बकौल लेखिका के, आपहुदरी का समय बहुत लंबा है और भूगोल विशाल. अब वे अपनी उम्र के 86वें वर्ष में हैं और इस पुस्तक में उन्होंने 1970 तक के अपने अंतरंग क्षणों का जिक्र किया है. उस समय उनकी उम्र महज 40 साल की ठहरती है. इस तरह उनकी उम्र के लंबे हिस्से का विवरण छपना बाकी है जिसके और दिलचस्प होने के आसार हैं.
रमणिका गुप्ता ट्रेड यूनियन से जुड़ी कार्यकर्ता रही हैं लेकिन उनके जीवन की अपनी खोज सत्ता तक पहुंचकर अपनी उपस्थिति का एहसास कराना भर न था बल्कि वे खुद की आकांक्षा के बारे में इसी आत्मकथा में कहती हैं, ''मैं अब सब परिधियां बांध सकती थी, सीमाएं तोड़ सकती थी. सीमाओं में रहना मुझे हमेशा कचोटता रहा है, सीमा तोडऩे का आभास ही मुझे अत्यधिक सुखकारी लगता है. मैं वर्जनाएं तोड़ सकती हूं...अपनी देह की मैं खुद मालिक हूं. मैं संचालक हूं. संचालित नहीं."
इस पूरी आत्मकथा में रमणिका एक जिद्दी लड़की की भूमिका के साथ-साथ स्त्री की कामना की स्वतंत्र अभिव्यक्ति की खोज में निकल पड़ती हैं. वे जहां-जहां जाती हैं वहां उनके संबंध बनते चलते हैं—कहीं भी वे छली नहीं जातीं लेकिन अपने इन संबंधों के बारे में जब वे लिखती हैं तो पुरुष प्रधान समाज के तिलिस्म को रेशा-रेशा कर डालती हैं. वे अपने अनुभव का बखान इन शब्दों में व्यक्त करती हैं, ''यौन के बारे में भक्ष्य-अभक्ष्य क्या है, समाज इसका फैसला तो करता रहा है, पर उसने समझ के साथ अपने मानदंड नहीं बदले...व्यक्ति बदलता रहा, प्यार की परिभाषाएं, सुख की व्याख्या, यौन का दायरा सब तो देशकाल के अनुरूप बदलता है. रिश्ते भी सापेक्ष होते हैं. दुर्भाग्यवश समाज ने अपना दृष्टिकोण नहीं बदला खासकर भारतीय समाज ने."
इस भारतीय समाज के जिन पुरुषों से रमणिका गुप्ता का साबका पड़ता है उनमें उनका पति, पति के दोस्त, नेता, नेता के साथ चलने वाले छुटभैये, ओहदेदार पुरुषों की भी लंबी फेहरिस्त है.
आपहुदरी से गुजरते हुए यह साफ महसूस होता है कि सेक्सुअलिटी की खोज उत्सवधर्मिता में तब्दील होती है. पूरी आत्मकथा में स्त्री का दैन्य कहीं नहीं है. जहां हादसे में बोल्डनेस के बावजूद एक राजनीति-विमर्श भी साथ चलता है वहीं आपहुदरी में रमणिका गुप्ता अंतरंगता के विमर्श में भिन्न-भिन्न आयामों की पड़ताल कर स्त्री को अपने बदन का खुदमुख्तार बनने की राह तैयार करती हैं.
पिछले दस साल में प्रकाशित स्त्री लेखकों की आत्मकथाओं की कडिय़ों से यह आत्मकथा नहीं जुड़ती क्योंकि उन लेखिकाओं ने अपना विपुल समय साहित्य-रचना को भी दिया है. रमणिका ने हिंदी की सेवा एक सामाजिक कार्यकर्ता की तरह की है लेकिन अंततः यह पूरी किताब उनकी अपनी निजी-यात्रा है इसमें समाज कहीं पीछे छूटा रह गया लेकिन यह पठनीय तो है ही इसके अलावा एक निर्भीक स्त्री ने अपने जीवन की अंतरंगताओं को बेहद बोल्ड नजरिए से पेश किया है.