किताब 'वो इस्लाम जो हम से कहीं छूट गया' के लेखक रज़ी अहमद चिश्ती पहले पन्ने पर ही स्पष्ट कर देते हैं कि 'पवित्र कुरआन के बारे में कुछ भी लिखना तलवार की धार पर चलने जैसा है.' पेशे से जज रहे चिश्ती की साफगोई में कोई डर नहीं है, बल्कि जिम्मेदारी बयां हो रही है. यूं तो बहुत आसान होता किसी सामाजिक विषय पर लिखी गई किताब का रिव्यू करना, लेकिन जैसा कि लेखक ने स्पष्ट किया है, तो मैं भी कर दूं कि इस किताब का रिव्यू करना भी तलवार की धार पर चलने से कम नहीं है. यह किताब इस्लाम से जुड़ी कई कहानियों और संदर्भों से भरी हुई है. इस्लाम के पैगाम को बेहद सरलता से पेश करती हुई. बहुत ही आसान शब्दों में. इसलिए अपनी बात को कहने के लिए मैंने भी किताब से कुछ संदर्भों का जस का तस इस्तेमाल किया है.
इस किताब को पढ़ लेने के बाद इतना तो साफ है कि यदि इस किताब को किसी पूर्वाग्रह से पढ़ा गया तो न सिर्फ इस किताब के साथ अन्याय होगा बल्कि शायद इस्लाम के बुनियादी उसूलों की भी अनदेखी होगी. लेखक रज़ी अहमद साहब ये जानते हैं कि वो जितनी सरलता से समझा रहे हैं, उसे समझने वाला समुदाय, या समुदाय का हिस्सा कई जटिलताओं में जकड़ा हुआ है. वह इस्लाम की एक ऐसी तस्वीर को मन में बिठाए हुए है, जिसका इस मजहब की नींव रखने वालों के पैगाम से दूर दूर तक वास्ता नहीं है. 208 पन्नों की यह किताब ढूंढने की कोशिश है 'वो इस्लाम जो हमसे कहीं छूट गया'.
किताब में दस चैप्टर हैं. ये सभी इस्लाम से जुड़े उन विषयों पर केंद्रित हैं, जिस पर सबसे ज्यादा गफलत और गलतफहमियां हैं. मोटा-मोटा जोर इस बात पर है कि जब कुरआन सभी मुसलमानों के लिए है तो उसे पढ़ना-समझना डेढ़ हजार साल बाद भी इतना कठिन क्यों है? लेखक के अपने शब्दों में कहूं तो ''आज के समय में इस्लाम धर्म पर चलने वालों का मूल सिद्धांत तक़लीद करना है, अर्थात धर्म के सिद्धांतों का, जो पहले ही तय किये जा चुके हैं, उनमें बिना किसी फेर बदल के, आँख बंद करके उनका अनुपालन करते रहना है. तक़लीद का उसूल कुरआन में वर्णित व्यक्तिगत स्वतंत्रता के बिलकुल विपरीत है. पैगंबर मुहम्मद और शुरू के चार खलीफाओं के बाद जो लोग सत्ता में आए और उनके बाद जो आते रहे, उनको यह डर हुआ कि अगर इंसान को व्यक्तिगत स्वतन्त्रता दी गयी तो उसको गुलाम बनाकर रखना संभव नहीं होगा. इस कारण मुसलमानों को धीरे-धीरे पवित्र कुरआन में जो ज्ञान है, जो रोशनी है, उससे दूर कर दिया गया. कुछ तो हमारी नासमझी और कुछ पवित्र कुरआन को न समझने की लापरवाही ने हमको इसके ज्ञान से महरूम रखा. पाबंदी ऐसी नहीं है कि कोई डन्डा लेकर खड़ा हो कि इस को न समझो बल्कि पवित्र कुरआन को समझने से हमको डरा दिया गया कि यह एक बहुत मुश्किल किताब है, मुमकिन है कि समझने में ग़लती हो जाय और इसका अज़ाब हो. हमको यह समझा दिया गया कि कुरआन को समझकर पढ़ो या बे समझे सवाब बराबर मिलेगा. इस सोच को अक़ीदा बनाकर हमको पाबंद कर दिया गया.''
लेकिन, इससे हासिल क्या हुआ? गफलतें बढ़ीं... जटिलताएं बढ़ीं... गलतफहमियां बढ़ीं... जहां सबके लिए एक दीन था, वो फिरकों में बंट गया!
किताब में शेख अकबर मोहियुद्दीन इब्ने अरबी के एक कथन का उल्लेख है, जिसमें समझाया गया है कि 'दीन दो किस्म पर है: दीन-ए हक़ और दीन-ए ख़लक़. दीने-ए हक़ वह है जो अल्लाह के पास है. अल्लाह ने उसकी तालीम पैगंबरों को दी और पैगंबरों ने विद्वानों और अल्लाह के वलियों को, जो हम तक पहुंची. दीन-ए ख़लक़ वह है जिसको विद्वानों और अल्लाह के करीबी बंदों ने पवित्र कुरआन व शरीयत की रोशनी में हालात के मुताबिक बनाया. पवित्र क़ुरआन में अल्लाह ने फरमाया है कि उसने सभी ईशदूतों को एक ही तरह का दीन दिया, यानी जो दीन उसने नूह को दिया वही दीन हज़रत इब्राहीम, हज़रत मूसा, हज़रत ईसा और हज़रत मुहम्मद स.अ.व. को दिया. अल्लाह ने फ़रमाया है कि दीन एक है. इस तरह देखें तो यहूदियत और ईसायत दीन नहीं हैं बल्कि फिरके हैं जो राहिबों और रब्बियों ने बना लिये. दीन तो एक ही है और वो है इस्लाम. पवित्र कुरआन में अल्लाह ने इन दोनों (यहूदियत और ईसायत) की मज़म्मत (निन्दा) करते हुये मुसलमानों को आगाह किया कि वो दीन पर कायम रहें. पिछली कौमों की तरह उसमें फूट न पड़े.'
लेकिन, क्या ऐसा हो पाया?
पवित्र कुरआन फ़रमाता है कि दीन एक है. फिर जो हर फिरके के पास है वो क्या है? शिया का दीन, सुन्नी का दीन, देवबंदी का दीन, बरेल्वी का दीन, वहाबी का दीन, अहले हदीस का दीन, क़ादयानी का दीन और अहमदियों का दीन. इसके अलावा शियाओं में भी बहुत से फिरके हैं. हर एक फिरके का यही दावा है कि सच्चा दीन सिर्फ उन्हीं के पास है बाक़ी सारे फिरने वाले अधर्मी हैं. लेकिन कमाल है कि पवित्र क़ुरआन ने यह पहले ही ऐलान कर दिया कि हर फिरके वाले उसी से खुश रहेंगे जो उनके पास होगा. आज ठीक वैसा ही हो रहा है.
तो इसका असर क्या हुआ?
किताब का निष्कर्ष ये है कि मुसलमानों के फिरकों में बदल जाने का का नतीजा ये हुआ कि कोई मुसलमान बचा ही नहीं. क्योंकि हर फिरके वाला बाकी के फिरके वालों को काफिर और अधर्मी कह रहा है. किताब के लेखक इसे एक दिलचस्प किस्से से समझाते हैं-
देश के बंटवारे से पहले लाहौर से 'प्रताप' नाम का एक अख़बार प्रकाशित होता था, जो प्रताप नाम के एक हिन्दू का था. वही उसका मालिक भी था और चीफ एडिटर भी. एक दिन प्रताप ने यह शीर्षक लगाकर ख़बर छाप दी कि "सभी मुसलमान काफिर हैं". लाहौर में तहलका मच गया. प्रताप के दफ्तर के बाहर एक भीड़ इकट्ठा हो गयी जो मरने मारने को तैयार थी. शांति भंग होने के डर से अंग्रेज़ कमिश्नर ने पुलिस बुला ली. भीड़ को यकीन दिलाया गया कि इंसाफ होगा और मुजरिम को सजा दी जायेगी. सभी समूहों के लोगों की सर्वसम्मति से 50 आदमियों के कहने पर पर्चा कटवा दिया गया.
कोर्ट में चालान पेश हुआ. मजिस्ट्रेट जो अंग्रेज़ था, उसने प्रताप से पूछा कि यह अख़बार आपका है? प्रताप ने कहा, जी मेरा है. मजिस्ट्रेट ने पूछा, इसमें जो यह खबर छपी है कि सारे मुसलमान काफिर हैं, आपके इल्म व इजाज़त से छपी है? प्रताप ने जवाब दिया कि जी मैं ही इस अख़बार का मालिक हूं और चीफ एडिटर भी तो मेरे इल्म और इजाज़त के बिना कैसे छप सकता है. मजिस्ट्रेट ने पूछा आप अपना जुर्म स्वीकार करते हैं? प्रताप ने जवाब दिया कि जब यह जुर्म है ही नहीं तो मैं इसे कैसे स्वीकार कर सकता हूँ, मुझे तो जो मुसलमानों ने बताया वह मैंने छाप दिया.
सुबह होते ही तो यह लोग स्पीकर खोल कर कहने लगते हैं कि सामने वाली मस्जिद वाले काफिर हैं, वो ज़ोहर के बाद आरंभ करते हैं तो ईशा की नमाज़ तक हमें यक़ीन दिला देते हैं कि फलां मस्जिद वाले काफिर हैं और इतनी बेजोड़ दलीलें देते हैं कि मैं तो मान लेता हूं कि यह वाकई काफिर हैं. जब यही बात शिकायत करने वाले समूहों से अलग अलग पूछी गई, तो वे भी मान गए कि ऐसा ही होता है. सबने अपने अपने फिरके हक में दलीलें दीं. मतलब ये हुआ कि आखिर में कोई मुसलमान बचा ही नहीं. मजिस्ट्रेट ने लिहाजा मुकदमा खारिज कर दिया. यह किस्सा भले पुराना लगे, लेकिन लेखक अपनी किताब में चिंता के साथ यह लिखते हैं कि मुसलमानों में एक दूसरे को काफिर व मुशरिक कहने का धंधा आज भी जोरों से चल रहा है.
तो कौन है मुसलमान? उसको असली खतरा किससे है?
किताब के लेखक इसके लिए पैगंबर मुहम्मद का उद्धरण पेश करते हैं जिन्होंने सूरह माऊन में फरमाया है कि केवल रस्मी तौर पर नमाज़ पढ़ लेना इस बात की ज़मानत नहीं है कि वो व्यक्ति मोमिन भी है. गौर करने की बात यह है कि वह कौन लोग थे और हैं, जिन्होंने पवित्र कुरआन में ग़ौर व फिक्र करने से कौम को हटा दिया. पवित्र कुरआन ने ऐसे लोगों की तरफ़ इशारा किया है. सूरह बक़रा में अल्लाह ने फरमाया है, "मोमिन वो हैं जो हिदायत पर हैं और नेजात पाने वाले हैं और काफिर वो हैं जिन्हें तुम नसीहत करो या न करो उन पर कोई असर होने वाला नहीं है" (2:5,6). मोमिन और काफिर के अलावा एक तीसरा गिरोह भी है जिनको कुरआन ने मुनाफ़िक़ फ़रमाया है. मुनफिक़ वो हैं जिनके दिल में कुछ और है और जुबान पर कुछ और. यही गिरोह बाक़ी दोनों गिरोहों से ज़्यादा ख़तरनाक है. इनका लिबास और जाहिरी सूरत मोमिनों के जैसी हैं. यह वो लोग हैं जो जुबान से कहते हैं कि हम अल्लाह पर और आख़रत पर ईमान ले आये हालांकि वो अपने दिल में कुछ और ही योजना बनाये रहते हैं.
अपने गिरेबां में झांकने को मजबूर करती किताब
दूसरों पर इल्जाम धर देना बहुत आसान होता है. दुनिया में इस्लाम और मुसलमानों पर अंगुली उठाने वाले आज तमाम हैं. क्या उन सभी सवालों को 'इस्लामोफोबिया' कहकर नकारा जा सकता है? किताब 'वो इस्लाम जो हमसे छूट गया' इस्लाम को लेकर चल रही पॉलिटिकल बहस में नहीं जाती है, बल्कि इस्लाम के बुनियादी उसूलों को उभारती है. जिसका सही-सही पैगाम पहुंचाकर, उसके उसूलों पर चलकर तमाम बहस को ध्वस्त किया जा सकता है. लेकिन, इसके लिए एक राय कैसे कायम होगी? कौन बांधेगा बिल्ली के गले में घंटी? जबकि समाधान आसान है. कुरआन और उसके उसूलों को मुसलमानों तक सरलता से पहुंचने दिया जाए.
लेखक अपनी इस किताब में कई सवालों और मुद्दों को डील करते हैं, जिन पर मुसलमान ही नहीं, बल्कि गैर-मुस्लिम भी जिज्ञासा रखते हैं. और यकीन मानिये, इन सवालों के वो जवाब तो बिल्कुल नहीं हैं, जैसे दुनिया में प्रचलित हैं. जैसे-
सबसे बड़ा सवाल, कौन है काफिर? पवित्र कुरआन की नजर में किसी खास कौम, अकीदे या मजहब को मानने वाला काफिर नहीं है. बल्कि वो है जो ग़ौर व फिक्र करने, सोचने और समझने से संबंध न रखता हो. चिश्ती साहब इस पर पवित्र कुरआन ही नहीं, बल्कि कई इस्लामिक स्कॉलर के हवाले से रेफ्रेंस देते हैं. ये सभी संदर्भ वैमनस्यता के जहर को नाकाम करते हैं. दीन में इल्म के महत्व को समझ लिया गया तो सारे काम आसान हो जाएंगे. अल्लाह दुनियावी पढ़ाई से दूरी बनाने को नहीं कहता है. संन्यास के लिए तो कभी नहीं.
क्या कुरआन को सिर्फ अरबी भाषा में ही पढ़ना चाहिए?
लेखक इसे लेकर कई विचारों को सामने रखते हैं, और इनके आपसी द्वंद्व को भी. दो बातें साफ हैं:-
1. कुछ लोगों का यह कहना कि क़ुरआन को अरबी में पढ़ना ज़रूरी है, तर्जुमा पढ़ लें तो बेहतर है; क्रूरआन में अक़्ल मत लगाओ नक़ल करो क्योंकि समझकर पढ़ो या बिना समझे सवाब (पुण्य) पूरा मिलेगा.
2. अल्लाह का यह फ़रमाना है कि क़ुरआन को समझना ज़रूरी है जो नहीं समझेगा वह नुक़सान में रहेगा; हमने क़ुरआन को समझने के लिये आसान कर दिया है, यह तुमको अंधेरे से निकालकर रोशनी में ले जायेगा.
अब आप ही बताइये, कि कौन सा रास्ता चुनेंगे? जाहिर है कि जो भी अमल का रास्ता चुनेंगे उसका फायदा नुकसान खुद को ही होना है. आयतों को अंधे-बहरे की तरह पढ़ते रहें या अल्लाह पर यकीन करते हुए अंधेरे से निकलकर रोशनी में आ जाएं.
लेखक कहते हैं कि हमारे जहनों में बैठा दिया गया है कि पवित्र कुरआन को बिना समझे पढ़ लेने से ही सवाब मिल जाता है. बस यही गलती हो रही है कि हम अपनी समझ से सवाब कमाकर संतुष्ट हो जा रहे हैं. तर्जुमा पढ़ने की न तो हमें जरूरत रही, और न ही फुर्सत.
लेखक ने यूं तो किताब में इस्लाम से जुड़े सभी मुद्दों को छुआ है, लेकिन उनका फोकस सबसे ज्यादा इल्म और तालीम पर ही है. यही कारण है कि 200 पन्नों की इस किताब में 50 पन्ने अकेले इसी चैप्टर को कवर करते हैं. एक झकझोर देने वाले शीर्षक के साथ - 'जो नहीं समझते वो जहन्नुम के लिए पैदा हुए हैं'.
क्या इस्लाम में हिंसा और कट्टरता ज्यादा है?
यह एक दूसरा गंभीर विषय है, जिसमें मुसलमान और बाकी दुनिया आमने-सामने खड़ी है. किताब में इसे समझाने के लिए यूं तो कई रेफ्रेंस हैं. लेकिन, सबको सरल बनाते हुए कहा गया है कि जिस व्यक्तिगत स्वतंत्रता की बात पवित्र गीता कर रही है, उसी आजादी की बात पवित्र कुरआन भी कर रहा है. इसलिये यह कहना कि इस्लाम मज़हब में कट्टरपन है और ज़ोर ज़बरदस्ती है, ग़लत है. पवित्र कुरआन ने यह स्पष्ट कर दिया है कि सीधा रास्ता दिखाना अल्लाह के ज़िम्मे है, इन्सान के जिम्मे सिर्फ़ अल्लाह के पैग़ाम (संदेश) को लोगों तक पहुंचा देना है.
कौन किस रास्ते पर चलेगा यह अल्लाह के अधिकार में है. अल्लाह मुसलमानों से फ़रमा रहा है कि उनको एक संतुलित क़ौम बनाया है इसलिये उनको चाहिए कि समाज में संतुलन बनाये रखें और अल्लाह की मंशा में हस्तक्षेप न करें. अल्लाह ने यह तय कर दिया कि कौन किस रास्ते पर चलेगा. इस बात पर गौर करें कि जिस क़ौम को समाज में संतुलन बनाये रखने पर गवाह बनाया गया हो उसको यह अधिकार ही कब है कि वह इंतेहापसंदी से काम ले. अल्लाह फ़रमा रहा है; "उसने (अल्लाह ने) हर चीज़ को उसकी सूरत व शक्ल बख़्शी फिर उसको रास्ते पर लगा दिया" (20:50). अब जोर व जबर्दस्ती की गुंजाइश बाकी ही नहीं रही.
कुरआन की आयतों ही नहीं, देश-विदेश के कई स्कॉलर के हवाले इस्लाम, हिंसा, जिहाद आदि विषयों को समझाया गया है. ऐसे जटिल विषय पर जिस तरह गहराई चाहिये होती है, वह इस किताब में उपलब्ध कराई गई है. यह भी बताया गया है कि खुद को शरई निजाम वाला बताने वाले मुस्लिम देश बर्बाद क्यों हुए? क्योंकि वे इस्लाम के असली उसूलों पर नहीं चल सके.
'वो इस्लाम जो हम से कहीं छूट गया' किताब इस्लाम से जुड़ी तमाम बहस में मजबूत तर्क रखती है. जाहिर है एक पूर्व जज जब इसे लिख रहे हैं तो आप समझ सकते हैं कि दलीलों की कोई कसर तो नहीं ही छोड़ी गई है.
तो आखिर में जाकर असली सवाल कि ये किताब है किसके लिए?
क्या यह किताब सिर्फ मुसलमानों के लिए है, क्योंकि वह कई गफलतों में डूबकर फिरकों में बंटे हुए हैं? या, ये किताब गैर-मुस्लिमों के लिए है? जो इस्लाम को लेकर तमाम तरह की गलतफहमियां और मुसलमानों को लेकर कई तरह के पूर्वाग्रह से ग्रसित हैं?
मेरा जवाब है कि इस किताब को दोनों समूहों को पढ़ने चाहिए. मुसलमानों को यह अपने भीतर झांकने की गुंजाइश देती है. जबकि गैर-मुस्लिमों के मन में मंडराते कई सवालों के जवाब मुहैया कराती है. आज के भारत के लिए यह एक बेहद जरूरी किताब है. आसान हिंदी में लिखी गई है. कहीं कहीं कठिन उर्दू या अरबी शब्दों का इस्तेमाल हुआ है, तो उसे सरल बनाकर समझाया भी गया है.
चलते-चलते: इस किताब के बारे में लिखते हुए मैं खुद को एक पाठक के रूप में नहीं देख रहा था, बल्कि आज का दौर भी मेरे जहन में था. जहां अपनी बात को जायज ठहराने के सारे उपक्रम इस्तेमाल हो रहे हैं. ऐसे में रिटायर्ड जज रजी अहमद चिश्ती को इस किताब को लिखने के लिए एक सलाम बनता है. और शुक्रिया चिश्ती साहब के दोस्त मुनीर अहमद चिश्ती को भी जिन्होंने इस किताब को लिखने के लिए जज साहब से बार-बार आग्रह किया.