शुक्रिया इमरान साहब
लेखिकाः इंदिरा दांगी
प्रकाशकः सामयिक
कीमतः 300 रु.
बकौल नामवर सिंह, इंदिरा दांगी में साहस है और इनकी कहानियां बेहद सशक्त हैं, भाषा इतनी अच्छी है, वाक्य इतने गठे हुए हैं कि लगता ही नहीं कि यह किसी नये कथाकार का संग्रह है. इन कहानियों को पढ़ते हुए ऐसा ही एहसास होता है. ये कहानियां रोजमर्रा की जिंदगी, रिश्तों की उलझनों और त्रासदियों से उबरते हुए आखिरकार उम्मीदों पर खत्म होती हैं. प्रस्तुत संग्रह की शीर्षक कहानी 'शुक्रिया इमरान साहब' में भी यह साहस दिखता है, जिसमें स्कूल बस के एक मामूली ड्राइवर इमरान की अपनी हैसियत से ऊंची और तिसपर दूसरे धर्म की शादीशुदा युवती के साथ इश्क की खूबसूरत कहानी है.
अपनी बीवी और मामूली हैसियत को लेकर शिथिल इमरान अपने बच्चे को स्कूल बस पर चढ़ाने आने वाली शादीशुदा सिम को देख-भर लेने से तकलीफें भूल जाता है. इसी तरह 'पहाड़' कहानी का मुन्ना हो, 'हमें मुस्कराना आता है' का अहम हो या 'उस रात वे अकेली लड़कियां' की शीतल और संगीता, सब अपनी पेचीदगियों और डर से पार पाकर उम्मीद में बदलते हैं.
संग्रह में 13 कहानियां हैं. सबका कथानक और दायरा विविध है, तो भाषा कसी हुई. मसलन पहली कहानी में जहां तीसेक साल के इमरान की ख्वाहिशें हैं, तो बूढ़े अब्बास चाचा और उनकी बीवी का संघर्ष जिन्हें उनके बेटे ने ठुकरा दिया है. वहीं 'पहाड़' 9 साल के होने जा रहे बच्चे की मनोदशा का सूक्ष्म चित्रण है. लेखिका वेटिंग टिकट तक में कहानी तलाश लेती हैं और उसके जरिए रौब-दाब का मनोविज्ञान रच डालती हैं ('बीसवां अफेयर और वेटिंग टिकट'). 'हमें मुस्कराना आता है' भी बढिया कहानी है, जिसमें एक बलात्कार पीड़िता को प्रेमिका या पत्नी के तौर पर स्वीकारने की उलझन का मार्मिक चित्रण है. जैसा कि 'शुक्रिया इमरान साहब' को लेकर असगर वजाहत कहते हैं कि लेखिका धैर्य से एक-एक कदम आगे बढ़ाती हैं, धीरे-धीरे एक जटिल, मार्मिक और नाजुक रिश्ता बनता चला जाता है. ठीक ऐसे ही लेखिका अन्य कहानियों में भी सधी हुई हैं.