ख्याल तो हरेक जेहन में आते हैं...अच्छे बुरे, छोटे बड़े. लेकिन किसी ख्याल को अल्फाज देने का हुनर हरेक के पास नहीं होता और हुनर भी ऐसा कि जो सुने या पढ़े तो उसे वो अल्फाज खुद अपने लगने लगें. उन अल्फाजों में छुपे जज्बात से वो इस कदर जुड़े मानो वो कहना चाहता हो कि उसके दिल का ख्याल इससे जुदा हो ही नहीं सकता. रुपेश कश्यप की ये कोशिश या यूं भी कहा जाए कि ऐसी ही एक खूबसूरत मिसाल है उनकी काव्य संकलन अलगोजा. जिसमें उन्होंने सबसे पहला काम तो यही किया कि कविता की रीति और रिवाज को दरकिनार कर दिया.
रुपेश कश्यप ने अपने जज्बातों को बड़े ही खूबसूरत तरीके से उसी अंदाज में अल्फाज की शक्ल दे दी जिस अंदाज में वो उनके जेहन में कौंधे होंगे, यानी ये बात कहना लाजिमी हो जाता है कि उन्होंने अपने ख्यालों और अल्फाजों के साथ कोई बेईमानी नहीं की. बड़ी ही ईमानदारी से जो सोचा उसे कागज पर दर्ज कर दिया. उनकी कविताओं की सार्थकता को और भी ज्यादा दिलचस्प बना देती है कवि अशोक चक्रधर की वो तमाम टिप्पणियां जिसमें वो रुपेश की कविताओं से खुद को और खुद की लिखी रचनाओं से जोड़ते दिखाई देते हैं.
एक किस्से का जिक्र करके यहां भी कवि के हक में ही अशोक चक्रधर ने गवाही दी है कि किस तरह रुपेश कश्यप ने कविताओं की ताजगी से न सिर्फ उनका दिल जीता बल्कि उन्हें मजबूर कर दिया कि एक नए रचनाकार को फोन करके उसे बधाई से लबरेज कर दिया जाए. एक गवाही और सामने आई, जिसका जिक्र करना इसलिए भी जरूरी है कि किसी भी हुनर को किसी खास इलाके की जरूरत नहीं हो सकती. बल्कि आमतौर पर यही देखा जाता है कि हुनर उन्हीं इलाकों की पैदावार होता है. जिस इलाके के बारे में लोग शायद ये गुमान पाल लेते हैं कि यहां से सामने क्या आएगा.
लेकिन एक बात जो अखरती है कि कुछ कविताओं को पढ़ने के बाद उसके अधूरे होने का अहसास होने लगता है. ऐसा महसूस होता है कि जिस बात को कवि ने उठाने का प्रयास किया, जिस ताकत और मन से उसने इस बात को कहने का जज्बात दिखाया, वो बात अचानक बीच में ही क्यों छोड़ना मुनासिब समझा. मसलन, नींद आती नहीं... कविता में बात शुरू भी नहीं हुई कि खत्म हो गई. ऐसा लगा कि अभी कुछ और भी है जिसे शायद अल्फाजों की दरकार है. लेकिन बात छन्न से खत्म होने का अहसास करवा देती है, जो खटकती महसूस हो रही है, जैसे उनकी एक कविता है टी-20, यहां उन्होंने टी यानी चाय-20 लिखा और उसे उस घड़ी से जोड़ा जो इन दिनों लोगों के जेहन में जुनून बनकर घूम रहा है. लेकिन उसे मुल्क के एक बंदोबस्त पर कटाक्ष करते हुए अचानक यूं रोक देना भी थोड़ा अखर गया. क्योंकि यहां कवि से उम्मीद कर रहा था कि वो इस बंदोबस्त पर कुछ ऐसा करारा प्रहार कर सकता है जिस पर अक्सर कलम और जुबान दोनों ही खामोश नज़र आते हैं.
लेकिन तारीफ करनी होगी हिन्दी युग्म की जिन्होंने रुपेश कश्यप के इस काव्य को किताब की शक्ल दी और इस किताब अलगोजा का मुख्यपृष्ठ वाकई कमाल है, क्योंकि उसमें जिस तरह से दो बांसुरी के वाद्य को दर्शाया गया है. उसके बारे में शायद यही धारणा बैठती जा रही है कि ये वाद्य अब कहीं इतिहास में खोने लगा है. जितना सुरीला ये वाद्य देखने में लगता है. रुपेश कश्यप की कविताओं को दोहराते वक्त इसके सार्थक होने का गुमान होना लाजिमी है. ये बात यहां कहना गलत नहीं होगा कि उनके जीवन के तमाम तजुर्बों का ही नहीं, बल्कि अपने अनुभवों से आगे की दास्तां दर्ज करने में रुपेश कश्यप कामयाब रहे हैं. जिसे हर उस शख्स को पढ़ने की जरूरत है जो वाकई संघर्ष को जिंदगी का अहम हिस्सा मानता है.