चर्चित लेखिका चित्रा मुद्गल को सामयिक प्रकाशन से छपे उनके 224 पेजों के जिस उपन्यास 'पोस्ट बॉक्स नं- 203 नाला सोपारा' के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार 2018 से सम्मानित किए जाने की घोषणा हुई है. यह कोई आम उपन्यास नहीं है. यह हमारे समाज के उस खास 'किन्नर' तबके को आधार बनाकर रची-बुनी गयी कृति है, जिसकी ज्यादतियों और अजीबोगरीब हरकतों से हम अमूमन दोचार होते हैं, पर उनकी जीवनशैली हमारे लिए रहस्य है. किन्नर भी इनसान हैं. उनमें भी धड़कता है दिल, जिसमें होती है संवेदना और असीम प्यार भी...उनकी होती हैं अपनी यादें, उनका भी होता है अपना बचपन और उनमें असीम प्यार करने वाली मां भी... साहित्य आजतक के पाठकों के लिए पुस्तक के खास अंशः
मेरी बा!
इस संकरी गली के संकरे छोर पर पलस्तर उधड़ी दीवारों वाले घर की सींखचों वाली इकलौती खिड़की के पार, दिल्ली के मेघ बरस रहे हैं.
चित्रा मुद्गलः 2018 की साहित्य अकादमी सम्मान विजेता, कथा ही पहचान है
खिड़की से सटे सघन कचनार के पेड़ को तेज हवा में ऊभ–चूभ होती बारिश की तरंगें उसकी टहनियों को पकड़–पकड़कर नहलाने की कोशिश कर रही हैं. टहनियां हैं कि उन बौछारों की पकड़ से छूट भागने को बेचैन हो रही हैं, जैसे मैं तुम्हारे हाथों से छूट भागने को व्याकुल तुम्हारी पकड़ में कसमसाता पानी की उलीच में ऊभ–चूभ होता रहता था.
‘खुद से रोज नहाता है तो इतना मैल कैसे छूट जाता है?’
‘धप्पऽऽ...’ खीझ भरे धौल मेरे पखोरे हिला देता.
तुझसे कभी नहीं बता पाया, बा! नहाने से मुझे डर लगता था. बाथरूम में तेरे जबरदस्ती धकेलने पर नल खोल, बाल्टी से फर्श पर पानी उलीच मैं नहाने का सिर्फ स्वांग भर रचता था. बस, तौलिए का कोना भिगोकर मुंह–हाथ भर पोंछ लिया करता था ताकि तू छुए तो महसूस करे कि मैं सचमुच बाथरूम से नहाकर निकला हूं. तू तो समझती थी कि नहाने के मामले में मैं नम्बरी आलसी हूं. तेरा भ्रम तोड़ता तो कैसे?
भुलाए नहीं जा सकते 'काल-कथा' और कामतानाथ
खिड़की से सटा खड़ा अब मैं अपने कागज–कलम के पास लौट आया हूं, लेकिन समझ नहीं पा रहा बा! सींखचों से दाखिल हो दिल्ली के मेघ मेरी आंखों में क्यों आ समाये हैं. जब बाहर और भीतर एक साथ मेघ बरस रहे हों तो तुझे लिखी जाने वाली चिट्ठी शुरू कैसे हो सकती है?
मैं कागज पर तेरे पांवों की आकृति उकेरने लगता हूं.
तू विस्मय कर सकती है कि ये पांव तेरे कैसे हो सकते हैं.
मेरे पास इसका जवाब है बा! ये पांव हू–ब–हू तेरे पांव इसीलिए हैं कि मैंने इन्हें यही सोचकर उकेरा है कि तेरे पांव हैं.
डबल रोटी से फूले हुए तेरे थके पांवों को जब भी मैं देखता था, मुझे चिन्ता होने लगती थी. तेरे पांव सूजे हुए हैं. साड़ी की फॉल से ढंकी हुई उनकी सूजन किसी को नजर नहीं आती है. मालूम नहीं कैसे वह मुझे दिखायी दे जाती है. मैं तुझे टोकता. दिनभर घर में डोलती, बाजार से साग–सब्जी ढोकर लाती, देवी के दर्शनों को पास में ही है, कहकर मुंबा देवी के मंदिर जाती, लगभग चार–पांच किलोमीटर का चक्कर तेरा रोज ही लग जाता है. मदद की खातिर तू कोई नौकर क्यों नहीं रख लेती? घर पर तो हँसकर मेरी बात टालते हुए कहती- तू जो पैरों को चांपकर उनकी उंगलियां खींचकर चटखाता है न! चलूंगी नहीं तो तेरे नन्हे हाथों का वह सुख कैसे पाऊंगी.
पुस्तक अंश- मैं हिंदू क्यों हूं: शशि थरूर के शब्दों में हिंदू और हिंदूवाद
तेरे पांव अब भी सूजते होंगे न बा. मैं उनकी उंगलियों को कैसे चटखाऊं. कैसे दूर करूं उनकी थकान. थककर डबल रोटी से सूज जानेवाले तेरे उन पांवों को मैं चूमना चाहता हूं. उनकी टीसें हर लेना चाहता हूं. उन्हें छाती से लगाकर सोना चाहता हूं. हफ्ताभर! नहीं, दस रोज! नहीं, सालभर. नहीं, पूरे वर्ष. संचित कर लेना चाहता हूं ताउम्र की नींद. जितनी भी मिल जाए. फिर चाहे जितनी रातें पलक झपकाये बिना गुजरें. बैठे–बैठे कटें. करवटें मारते बीतें या पूरी रात टहलते हुए. बस सह लूंगा, कष्ट झेल लूंगा. शिकायत नहीं करूंगा किसी से, कि मैं इसलिए अनमना हूं कि रातभर सो नहीं पाया.
तूने फोन पर कहा था न! सुन, जब भी तू अनमना महसूस करे, दीकरा, किसी भी समय ध्यान मुद्रा में बैठकर कृष्ण को याद करना. गहरे, अपनी अंतरात्मा में उतरने का प्रयास करना. दो–चार रोज हो सकता है तेरा प्रयत्न निरर्थक साबित हो, मगर कुछ रोज स्वयं को साधने के बाद तुझे कुछ अनोखा सा अनुभव होगा. कृष्ण की छवि शून्य हो जाएगी और तेरी अंतरात्मा में तुझे कहीं से बांसुरी की मध्यम सुरीली धुन सुनायी देगी, जो तेरे उस शून्य को सैकड़ों अगरबत्ती की सुगन्ध से सुवासित कर देगी. जब तक तू दीकरा, बांसुरी की महक में डूबा हुआ स्वयं को भूला रहेगा, तू गहरी नींद सोता रहेगा.
सुन दीकरा, तेरी बा की लोरी में भी वह सम्मोहन शक्ति नहीं है, जो अपने बच्चों को उस गहरी नींद का सुख दे सके.
बा, मैंने वह कोशिश शुरू कर दी है. रोज नहाने के बाद मैं ध्यान मुद्रा में बैठ जाता हूं, पर विचित्र है बा, ध्यान में तू आ जाती है, तेरे कृष्ण नहीं.
तेरे कृष्ण को कहीं इस जगह से तो परहेज नहीं या आधे–अधूरे मुझसे?
रोज नहाने की आदत पर मेरे संगी–साथी उपहास उड़ाते हैं. ताली बजाकर तल्ख टिप्पणियां करते हैं. किन्नर दूसरों की पूजा–अर्चना नहीं करते. अपनी बिरादरी के कायदे–कानून भूलकर मरी तू संत–महात्माओं जैसा व्यवहार क्यूं कर रही है?
‘क्यों कर रहा है.’ मैं उन्हें सुधारने की हर बार की तरह नाकाम कोशिश जैसी एक ओर कोशिश करता हूं.
उनकी लात, घूंसे, थप्पड़ और कानों में गर्म तेल सी टपकती किसी भी सम्बन्ध को न बख्शने वाली अश्लील गालियों के बावजूद मटक–मटक कर ताली पीटने को न राजी हुआ, न सलमे–सितारे वाली साड़ियां लपेट लिपिस्टिक लगा कानों में बुंदे लटकाने को.
बहुत कुछ अविश्वसनीय वे हरकतें भी, जिसने मुझे बहुत तोड़ने की कोशिश की और जिनका जिक्र मैं बा, तुझसे कैसे कर सकता हूं.
उनसे खूब बहस की है. आठवीं कक्षा तक भी मैं वही था, जो आज हूं.
उस वक्त स्कूल के वार्षिकोत्सव में जब मुख्य अतिथि भाषण देते थे तो सभी अन्य विद्यार्थियों की भांति मैं भी ताली पीटता था. बात–बात पर ताली पीटना मेरी स्वाभाविक प्रकृति नहीं है. स्त्रैण लक्षण मुझमें कभी नहीं रहे. अब भी नहीं हैं और जो लक्षण मुझमें नहीं हैं, उन्हें सिर्फ इसलिए स्वीकारूं कि मेरी बिरादरी के शेष सभी, उन हाव–भावों को अपना चुके हैं?
बैठ जाऊं उन्हीं के संग और रेजर से बांहों और छाती के जंगल को साफ करने लगूं कि उनका प्रतिरूप बने बिना मेरे सामने जीवन जीने के विकल्प शेष नहीं हैं?
बीते पांच वर्षों से मैं उस विकल्प का सिरा तलाश रहा हूं. कुछ सांसें, अधूरी-पूरी. जैसी भी हिस्से में आयें, मैं उनसे अलग जीवन काट लूंगा, मगर बा वे आती क्यों नहीं मेरी मुट्ठियों में.
तुमने स्कूल के लिए निकलते समय, चुपके से मेरी जेब में सरकाये जाने वाले नोट की भांति, ‘खा, लेना, जो तेरे मन में आये, बिन्नी!’ ढेर–सी दिलासा सरकायी थीं मेरे जहन में. भयमुक्त किया था मुझे कि ‘तू तिनका नहीं है. ‘दीकरा’ तू फिजूल की चिन्ता क्यूं करता है कि मैं वैसा क्यों नहीं हूं बा, जैसे मेरे अन्य दोस्त हैं? स्कूल की चारदीवारी से सटकर पैंट के बटन खोलकर खड़े हो जाने वाले?’
‘बावला’, तूने यह भी समझाया था और छोकरों से तू अलग है. यह मान लेने में ही तेरी भलाई है, न किसी से बराबरी कर, न अपनी इस कमी की उनसे कोई चर्चा. समाज को ऐसे लोगों की आदत नहीं है और वे आदत डालना भी नहीं चाहते, पर मुझे विश्वास है, हमेशा ऐसी स्थिति नहीं रहने वाली. वक्त बदलेगा. वक्त के साथ नजरिया बदलेगा.
‘तुझे कैसे समझाऊं! अब देख बिन्नी! आंखों से अन्धा हमारे समय में पाठशाला नहीं जा सकता था. तू बताता है न कि तेरे बड़े स्कूल में आंखों से अन्धे दो बच्चे पढ़ते हैं! बल्कि उनके लिए उनकी जरूरत के मुताबिक अलग से स्कूल हैं. उंगलियों से पढ़ी जाने वाली भाषा है. बिना टांग वाले भी तो नकली टांग पर चलते हैं. हो सकता है. भविष्य में इस अधूरेपन का भी कोई इलाज निकल आये. तेरे पप्पा ने तुझे ले जाकर बड़े स्पेशलिस्ट को दिखाया था न!’
तेरी दिलासा झूठी कैसे हो सकती थी? मैं मानकर चलता रहा. नकली टांग सी, मैं भी उस जरूरी अंग की कमी से एक दिन मुक्त हो जाऊंगा.
मगर बहुत जल्द मेरा भ्रम टूट गया.
तूने, मेरी बा, तूने और पप्पा ने मिलकर मुझे कसाइयों के हाथ मासूम बकरी सा सौंप दिया.
मेरी सुरक्षा के लिए कोई कानूनी कार्यवाही क्यों नहीं की? मनसुख भाई जैसे पुलिस अधीक्षक पप्पा के गहरे दोस्त के रहते हुए? वे अपने आप मुझे बचाने के लिए तो आ नहीं सकते थे. मेरे आंगिक दोष की बात पप्पा ने उनसे बांटी जो नहीं होगी, वरना वे मुझे बचाने जरूर आ जाते.
‘बाऽऽ...बाऽऽ...बाऽऽ...’
क्यों वह अनर्थ हो जाने दिया तूने, जिसके लिए मैं दोषी नहीं था! पढ़ने में अपनी कक्षा में सदैव अव्वल आने वाला. डरते थे लड़के मुझसे. कहते थे, जिस खेल की प्रतियोगिता में खड़ा हो जाता है तू विनोद, प्राइज लेकर ही रहता है. कुछ खेल हमारे छोड़ दे न!
और अगर मान लो बा, मैं अव्वल नहीं आता, तब भी क्या सामान्य लोगों की तरह जीवन जीने का अधिकार न होता मेरा?
जिस नरक में तूने और पप्पा ने धकेला है मुझे, वह एक अन्धा कुआं है, जिसमें सिर्फ सांप–बिच्छू रहते हैं. सांप–बिच्छू बनकर वह पैदा नहीं हुए होंगे. बस, इस कुएं ने उन्हें आदमी नहीं रहने दिया.
जानता हूं बा! तेरे नासूर पर नाखून गड़ा रहा हूं, मगर...
घर में सब लोग कैसे हैं? अच्छा बता पप्पा की तबीयत कैसी रहती है, ‘ब्लड प्रेशर की दवा पप्पा को नियमित दी जा रही है न! घर पर मैं था तो उन्हें मैं देता था सुबह–शाम. अब मंजुल देता होगा. मंजुल मुझसे छोटा जरूर है, उम्र में, मगर समझदार है. वैसे बा, जिम्मेदारी पड़ने पर लापरवाह बच्चे भी समझदार हो जाते हैं. मोटा भाई ने जब मुझे जिम्मेवारी सौंपी थी कि पप्पा को सुबह-शाम दवा अब तुझे खिलानी होगी तो मैं कितना खुश हुआ था. कुछ दिनों बाद मोटा भाई ने उनका ब्लडप्रेशर नापना भी सिखा दिया था, लेकिन पप्पा मुझ पर विश्वास नहीं करते थे. मेरे ब्लडप्रेशर नापकर लिख लेने के बावजूद वे मोटा भाई को अक्सर गुहार लगा बैठते, ‘जरा मेरा ब्लडप्रेशर तो आकर ले लो, सिद्धार्थ. देखो, बिन्नी ने ठीक लिया है कि नहीं. नीचे का कितना है?’
मेरे घर से जाते ही तुम लोगों ने कालबा देवी से नाला सोपारा घर बदल लिया था.
तुम पूछोगी, मुझे कैसे मालूम.
दिल से मजबूर होकर तेरी आवाज सुनने की खातिर डरते–डरते जब एक रोज मैंने कालबा देवी फोन किया तो वहां फोन किसी और ने उठाया. पूछने पर बताया कि पांच वर्ष से यह घर अब उनका है. पुराने मकान मालिक कहां रहते हैं, इसकी उन्हें जानकारी नहीं है. मोटा भाई का नाम लेकर उन्होंने इतनी सूचना भर दी कि उनके पास किंग्सवे कैम्प का उनके दफ्तर का फोन नम्बर है. उन्होंने कहा कि भूले-भटके पुराने पते पर यदि कोई चिट्ठी आदि आती है तो वे उन्हें सूचित भर कर दें. वे स्वयं आकर या किसी और को भेजकर अपनी डाक मंगवा लेंगे.
मैंने मोटा भाई के दफ्तर का फोन नम्बर उनसे मांग लिया था. मोटा भाई के दफ्तर से नाला सोपारा वाले घर का. इतनी दूर जाकर घर क्यों लिया बा? मेरी वजह से!
पहली बार जब चंपाबाई आयी थी अपने घर तो पड़ोसियों ने तुझसे पूछा था, ‘वंदना बेन, ये हिजड़े क्यों आये तेरे घर पर?’
‘गलत खबर थी उनको, सेजल पेट से है...’
...घर की बंद खिड़कियों के भीतर उन्होंने मुझे लेकर कितना घमासान मचाया था. उनके पास पक्की खबर है. वे मुझे देखना चाहते हैं, साथ ले जाना चाहते हैं. साथ ले जाने से उन्हें कोई रोक नहीं सकता. दुनिया की कोई ताकत नहीं. खबर पक्की नहीं है तो बच्चे को सामने करो. हम खुद देख लेंगे. माफी मांग निकल लेंगे घर से.
कांपते स्वर में तूने पप्पा से कहा था, ‘मंजुल को आगे कर देते हैं.’
रसोई से बाहर आ तूने मुझे बाथरूम में बंद कर दिया था. मंजुल को टांगों से चिपकाये हुए तू बैठक में आ गयी थी.
मंजुल की चड्ढी उतरवा चंपा बाई ने साफ कह दिया था. खेल खेल रहे हैं वे लोग उनके साथ. बच्चा इससे बड़ा है.
गनीमत इसी में है, खामोशी से घरवाले असली बच्चे को उनके हवाले कर दें. कोई हंगामा नहीं मचाएंगे वे. जबरदस्ती पक्की खबर को कच्ची साबित करने पर क्यों तुले हुए हैं वे लोग. उनकी इज्जत का उन्हें भी खयाल है. वे खुद भी अपनी इज्जत का खयाल करें?
वे दोबारा आएंगे. संगी–साथियों के साथ आएंगे. उनकी पूरी बिल्डिंग को घर के नीचे इकट्ठा कर लेंगे.
बाथरूम से बाहर आते ही मंजुल ने सारी बातें बयान की थीं मुझसे.
उस रात, सेजल भाभी को छोड़कर घर पर किसी ने खाना नहीं खाया था. मोटा भाई ने बैठक के बेंत वाले सोफे पर करवटें भरते पूरी रात काट दी थी.
रात भर बा, तू मुझे अपनी छाती से सटाये सिसकियां भरती रही थी.
तेरी छाती में सिर दुबकाये हुए मुझे मंजुल के जन्म के समय तेरी कही हुई बात स्मरण हो आयी थी.
मंजुल को गोद में सम्भालते हुए मैंने तुझसे प्रश्न किया था, ‘मेरे नुन्नू क्यों नहीं है बा?’
तो तूने मुझे बहलाया था, ‘बच्चे के जन्मते ही आटे का नुन्नू बनाकर लगाना पड़ता है. नर्स भूल गयी तुझे लगाना. लगवा देंगे तुझे भी.’
सुबह तूने सोकर तनिक देरी से उठे पप्पा को चाय का कप थमाते हुए दृढ़ स्वर में ऐलान किया था, बिन्नी को जल्दी से जल्दी दूर किसी होस्टल में भेजने का प्रबन्ध किया जाए. खर्च सिर पर पड़ेगा तो तू अपने गहने बेच देगी.
बाथरूम से नहाकर निकले मोटा भाई अपने कमरे में घुसते हुए तेरी ओर पलटे थे. चौदह बरस बाद अचानक जिन्न से हिजड़े यहां प्रकट हो सकते हैं तो होस्टल में नहीं प्रकट हो सकते. कोई गारंटी है इसकी.
‘बात फैल गयी तो पूरे खानदान पर दाग लग जाएगा.’
‘अपने दीकरे के बिना मैं प्राण दे दूंगी.’
मोटा भाई बिफरे, ‘अपनी कोख से एक ही औलाद पैदा की है बा तूने? हमें कहीं से पड़ा उठाकर लाई है, जो तू...’
उस रोज ही नहीं, तूने हफ्ते भर तक मुझे स्कूल बस से स्कूल नहीं जाने दिया था. इस भय से कि कहीं चंपा बाई स्कूल न पहुंच जाए.
हफ्ते भर बाद सत्रह रोज तक तू मुझे नियमित स्कूल छोड़ने गयी थी. मेरी कक्षाएं चलने तक तू वहीं बैठी रहती थी और खतम होने पर अपने साथ लेकर घर लौटती थी.
अठारहवें दिन मुझे फिर से छुट्टी करनी पड़ी थी.
तू बार्इं टांग में उठ रही साइटिका की असह्य पीड़ा से बेचैन हो रही थी. तूने सेजल भाभी से आग्रह किया था कि कुछ रोज के लिए वह अपने दफ्तर से छुट्टी ले लें और मेरी हिफाजत का जिम्मा उठा लें. हौम्योपैथी से तुझे एकाध दिन में आराम आ जाएगा. जवाब सेजल भाभी ने न देकर मोटा भाई ने दिया था. जवाब की बजाय सवाल उठा.
‘ऐसे कब तक चलेगा बा ?’
‘जब तलक चल सकेगा.’
कम बोलने वाले पप्पा का सुझाव था, ‘फिलहाल पंद्रह दिन का मेडिकल और भिजवा देते हैं स्कूल में...आगे देखते हैं.’
‘देखते हैं, समाधान तो नहीं है पप्पा!’
‘सेजल छुट्टी ले नहीं सकती. परसों ही उसके नये बॉस ने कार्यभार सम्भाला है और मैं छुट्टी लेकर घर बैठ नहीं सकता.’
पप्पा क्षणांश विचारमग्न हुए. ‘बात खरी है तेरी सिद्धार्थ, पर कोई रास्ता तो सूझे.’
‘ऐसा न करें, जूनागढ़ तेरे भानू मामा से चुपचाप बात करके देखें ? वहीं कहीं किसी होस्टल वाले स्कूल में बिन्नी का दाखिला करवा दें.’
‘फिर वही ढाक के तीन पात.’ मोटा भाई खीझे, ‘हिजड़ों की बिरादरी का नेटवर्क बहुत तगड़ा है.’
‘बीजी बात...भानू मामा को बिन्नी की असलियत बताये बिना जूनागढ़ नहीं छोड़ा जा सकता. असलियत बताते ही वह पूछेंगे नहीं, इतनी बड़ी बात हमने अब तक उनसे छिपायी क्यों?’
‘तब ?’ पप्पा का स्वर डूबा हुआ-सा हो आया.
‘बिन्नी होशियार है पढ़ाई में, तमाम पिंगेज क्लासेस चलती हैं कालबा देवी में. प्राइवेट फार्म भरवा देंगे.’ बा, रह–रहकर उठने वाली पीड़ा की लहर के बावजूद तू शान्तचित्त थी.
अपना स्कूल बैग पीठ पर लादे, उस दिन का टाइम टेबिल लगाये बैठक के कोने में खड़ा छटपटाता मैं सोच रहा था. मेरी स्कूल बस छूट गयी.
भीतर बैठी अनहोनी की मंडराती काली परछाइयों को परे धकेल मैं शक्ति भर चीखा था.
‘पप्पा, मैं घर में बैठकर नहीं पढ़ूंगा । सबके साथ पढ़ूंगा. अपनी ही कक्षा में बैठकर. मुझे स्कूल जाना है. मैं अपना ध्यान रखूंगा. अपनी हिफाजत खुद करूंगा. कब तक मैं अपने सहपाठियों से टेलीफोन पर होमवर्क नोट करता रहूंगा पापा?’
‘मुझे छुट्टी नहीं करनी. मेरी पढ़ाई बर्बाद हो रही है. पिछड़ जाऊंगा मैं अपनी कक्षा में. पिछड़ना नहीं चाहता मैं. मैं बोर्ड टॉप करना चाहता हूं. मैं टॉप कर सकता हूं पप्पा! मैं टॉप करके दिखाऊंगा. मुझे स्कूल जाने दो...प्लीज पापा, प्लीज.’
‘मारे स्कूल जऊ छे’ कहता हुआ मैं अपने कमरे में घुसकर बिस्तर पर ढेर हो गया था.
मंजुल कमरे में नहीं था. उसकी स्कूल बस जा चुकी थी.
...भूलते क्यों नहीं कीलों से चुभते प्रसंग. क्यों घुमड़ आते हैं तेरी स्मृतियों के कन्धों पर दुबके. तेरी स्मृतियां, जो मेरी सांसों में घुली हुई हैं बा! उन्हें अपने से अलग करूं तो कैसे अलग करूं.’
याद रखना चाहता हूं तो बस, बरसों बरस बाद सुनी गयी तेरी टटकार भरी आवाज को, जो मेरी आवाज के ‘बा’ उच्चारते ही गोद में तब्दील हो गयी.
‘दीकरा....मेरा बिन्नी.’
‘तू, तू कहां से बोल रहा है...’
यह पथ अब पूरा नहीं कर पाऊंगा.
सींखचों के बाहर मेघों का बरसना कम नहीं रहा.
भीतर उसे मैं कैसे रोकूं!
कमरे की छत जाने कौन उड़ा ले गया है.
लिफाफे पर पता लिख दिया है, जिसे तूने फोन पर नोट करवाया है.
पता पोस्ट ऑफिस का है, मेरे घर का नहीं.
मेरे घर का पता क्या कहीं कोई है बा ?
कैसी विभ्रम की स्थिति में जीता हूं मैं....
बा, पगे लागूं
तेरा बिन्नी उर्फ बिनोद उर्फ बिमली.
पुस्तक अंशः पोस्ट बॉक्स नं- 203 नाला सोपारा,
पृष्ठ संख्या 7 से 15.
हार्ड बाउंड मूल्य रु. 495, पेपर बैक रु. 250