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तीसरी ताली: समाज के लिए असामाजिक

तीसरी ताली.... यानी ऐसी ताली जिसे समाज में कभी मान्‍यता नहीं मिली. जिनकी दुआएं पाने के लिए लोगों में इच्‍छा जरूर है, लेकिन उन्‍हें देखकर दूर हट जाने वाले लोगों की लंबी जमात भी हमारे समाज में मौजूद है.

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Teesri Taali Book
Teesri Taali Book

किताब का नाम: तीसरी ताली
प्रकाशन: वाणी पब्लिकेशन
लेखक: प्रदीप सौरभ
कीमत: 350 रुपये

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तीसरी ताली.... यानी ऐसी ताली जिसे समाज में कभी मान्‍यता नहीं मिली. जिनकी दुआएं पाने के लिए लोगों में इच्‍छा जरूर है, लेकिन उन्‍हें देखकर दूर हट जाने वाले लोगों की लंबी जमात भी हमारे समाज में मौजूद है.

इसी सच को प्रदीप सौरभ की कलम ने 'मुन्‍नी मोबाइल' के बाद अपनी दूसरी किताब 'तीसरी ताली' में उजागर किया है. यह किताब उभयलिंगी, हिजड़ों और लेस्बियन की हाशिये पर बसर हो रही जिंदगी की कहानी बयां करती है.

किताब को पढ़कर जो बात सामने आती है वह यह कि ऐसे लोगों के पास समाज में अपनी पहचान से ज्‍यादा बड़ा संकट अपनी जीविका को लेकर है. किन्‍नरों का जीवन क्‍या है और कैसे गुजर-बसर होता है, इसी पर आधारित है तीसरी ताली. तीसरी ताली में अकेलापन है, जिसे सभी चरित्रों के जीवन में देखा जा सकता है.

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यह हिंदी का एक साहसी उपन्‍यास है, जो जेंडर को लेकर समाज में मौजूद अलगाव को दर्शाता है. किताब के बारे में किताब के फ्लैप पर लिखी पकंज पचौरी की टिप्‍पणी बहुत सटीक है. वह कहते हैं, 'यह उभयलिंगी सामाजिक दुनिया के बीच और बरक्‍स हिंजड़ों, लौंडों, लौंडेबाजों, लेस्बियनों और विकृत-प्रकृति की ऐसी दुनिया है जो हर शहर में मौजूद है और समाज के हाशिये पर जिंदगी जीती रही है.'

कहानी की शुरुआत गौतम साहब के चरित्र से होती है, जिनके घर बेटा हुआ लेकिन वे हिजड़ों के लाख तीसरी ताली बजाने-गाने के बाद भी दरवाजा नहीं खोलते हैं. क्‍योंकि गौतम साहब, आनंदी आंटी के किरदारों ने उन मां-बाप का दर्द भी बयां किया है, जिन्‍हें बच्‍चा होने पर खुशी मनाने का हक बच्‍चे के लिंग पर निर्भर करता है. बच्‍चा उभलिंगी है तो यह एक महापाप है. जिसे दुनिया से बचाते-छिपाते गौतम साहब, आनंदी आंटी अपनी जिंदगी के कई साल तो काटते हैं. लेकिन समाज उनके दर्द को समय के साथ नासूर बना देता है, जिसका अंत आत्‍महत्‍या जैसे कृत्‍य पर होता है.

यूं तो हर किरदार बहुत ही बखूबी से एक नए सच और दर्द को बयां करता है, लेकिन सबसे अंत तक एक किरदार जीवंत होकर भी मृत होने की कहानी बयां करता है वो है विनीत, नहीं विनीता. हां, यही है उसके जीवन का अधूरा सच जो उसे कामयाब भी बनाता है. लेकिन उसे दे जाता है जीवन का खालीपन.

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किताब का आखिरी पन्‍ना खत्‍म होता है विजय की कहानी पर जो एक पत्रकार है. सारी दुनिया के सामने अन्‍याय की लड़ाई लड़ने और हर जोखिम उठाने का उसमें जज्‍बा है. मगर एक सच है जो वह दुनिया से छिपाकर रखता है और यही वजह है कि वह समाज में इज्‍जतदार लोगों में गिना जाता है. लेकिन अंत में वह सच कहता है कि वह एक मुकम्‍मल पुरुष नहीं बल्कि हिजड़ा है.

किताब के आखिरी पन्‍ने के साथ बेशक कहानी खत्‍म हो जाती है, लेकिन ऐसे कई सवाल समाज पर उठाती है. जिसके चलते एक तबके की जिंदगी नर्क बन चुकी है.

इस नॉवेल में कई रोचक बातें भी सामने निकलकर आती है, जिनसे सामान्‍य वर्ग पूरी तरह से बेखबर है. जैसे कि हिजड़े जिनसे शादी करते हैं या कहें जिन्‍हें अपना पति मानते हैं उन्‍हें गिरिया कहते हैं. उनके नाम का करवाचौथ भी रखते हैं.

कई बार हिजड़े शादी नहीं करते लेकिन एक दिन की सुहागन बनकर दूसरे दिन विधवा जरूर बन जाते हैं. यह प्रथा है जिसके बारे में कुवागम मेले से शुरुआत होती है .यह मेला तमिलनाडु के विल्‍लूपुरम में आयोजित होता है. इस मेले में देश भर से हजारों हिजड़े आते हैं. रिश्‍ते-नाते से दूर रहने वाले तीसरी योनी के ये लोगों को यहां एक दिन के लिए सुहागन बनने का मौका मिलता है. इस तरह उनकी शादी करने की मुराद पूरी होती है.

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यह रस्‍म यहां खत्‍म नहीं होती क्‍योंकि इसके बाद मंगलसूत्र तोड़ने की रस्‍म होती है और सारे हिजड़े विधवा होने के विलाप में लग जाते हैं. इस रस्‍म में सभी बढ़-चढ़ कर हिस्‍सा लेते हैं. अगर किसी ने इस परंपरा को तोड़ने की जुर्रत भी की तो परिणाम बेहद गंभीर होते हैं.

लेखक ने समाज में तीसरे लिंग के रूप में पहचान रखने वालों के जीवन को इतने करीब से छुआ है कि शायद ही कोई रेशा हो जो हाथ नहीं लगे. सबसे खास बात यह है कि इस समाज में जिसे हम समाज का हिस्‍सा नहीं मानते उनकी अपनी समस्‍याएं हैं. जैसे कि हिजड़ों के बूढ़े हो जाने पर गद्दी के उत्‍तराधिकारी की समस्‍या, आधुनिक समाज की रिवायतों के चलते हिजड़ों का सेक्‍स रैकेट में जुड़ना.

यह हिन्दी का एक साहसी उपन्यास है, जो जेंडर के अकेलेपन और जेंडर के अलगाव के बावजूद समाज से जीने की ललक से भरपूर दुनिया का परिचय कराता है. जीवन में ऐसे तमाम सच होते हैं, जिसे हम माने या नहीं माने लेकिन उनका अपना वजूद है, क्‍योंकि उन पर समाज की मुहर भ्‍ाले ही नहीं लगी हो लेकिन वक्‍त ने बेवक्‍त मुहर जरूर लगाई है.

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