'सत्य के प्रयोग' महात्मा गांधी द्वारा लिखी वह पुस्तक है, जिसे उनकी आत्मकथा का दर्जा हासिल है. बापू ने यह पुस्तक मूल रूप से गुजराती में लिखी थी. हिंदी में इसके अनुवाद कई लोगों ने किए. यह किताब दुनिया की सर्वाधिक पढ़ी जाने वाली किताबों में से एक है. मोहनदास करमचंद गांधी ने 'सत्य के प्रयोग' अथवा 'आत्मकथा' का लेखन बीसवीं शताब्दी में सत्य, अहिंसा और ईश्वर का मर्म समझने-समझाने के विचार से किया था.
गांधी जी ने 29 नवंबर, 1925 को इस किताब को लिखना शुरू किया था और 3 फरवरी, 1929 को यह किताब पूरी हुई थी. गांधी-अध्ययन को समझने में 'सत्य के प्रयोग' को एक प्रमुख दस्तावेज का दर्जा हासिल है, जिसे स्वयं गांधी जी ने कलमबद्ध किया था. पर यह कितनों को पता है कि पांच भागों में बंटी इस किताब के चौथे भाग के 18वें अध्याय में खुद गांधी जी ने उस किताब का जिक्र किया है, जिसने उन्हें गहरे तक प्रभावित किया.
गांधी जी की पुण्यतिथि पर 'साहित्य आजतक' के पाठकों के लिए वही अध्यायः
एक पुस्तक का चमत्कारी प्रभाव
इस महामारी ने गरीब हिन्दुस्तानियों पर मेरे प्रभाव को, मेरे धंधे को और मेरी जिम्मेदारी को बढ़ा दिया. साथ ही, यूरोपियनों के बीच मेरी बढ़ती हुई कुछ जान पहचान भी इतनी निकट की होती गयी कि उसके कारण भी मेरी जिम्मेदारी बढ़ने लगी.
जिस तरह वेस्ट से मेरी जान पहचान निरामिषहारी भोजनगृह में हुई, उसी तरह पोलाक के विषय में हुआ. एक दिन जिस मेज पर मैं बैठा था, उससे दूसरी मेज पर एक नौजवान भोजन कर रहे थे. उन्होंने मिलने की इच्छा से मुझे अपने नाम का कार्ड भेजा. मैंने उन्हें मेज पर आने के लिए निमंत्रित किया. वे आये.
'मैं 'क्रिटिक' का उप संपादक हूं. महामारी विषयक आपका पत्र पढने के बाद मुझे आपसे मिलने की बड़ी इच्छा हुई. आज मुझे यह अवसर मिल रहा है.'
मि. पोलाक की शुद्ध भावना से मैं उनकी ओर आकर्षित हुआ. पहली ही रात में हम एक दूसरे को पहचानने लगे और जीवन विषयक अपने विचारों में हमें बहुत साम्य दिखायी पड़ा. उन्हें सादा जीवन पसंद था. एक बार जिस वस्तु को उनकी बुद्धि कबूल कर लेती, उस पर अमल करने की उनकी शक्ति मुझे आश्चर्यजनक मालूम हुई. उन्होंने अपने जीवन में कई परिवर्तन तो एकदम कर लिये.
'इंडियन ओपीनियन' का खर्च बढ़ता जाता था. वेस्ट की पहली ही रिपोर्ट मुझे चौंकानेवाली थी. उन्होंने लिखा, 'आपने जैसा कहा था वैसा मुनाफा मैं इस काम में नहीं देखता. मुझे तो नुकसान ही नजर आता है. बही-खातों की अव्यवस्था है. उगाही बहुत है, पर वह बिना सिर पैर की है. बहुत से फेरफार करने होंगे. पर इस रिपोर्ट से आप घबराइये नहीं. मैं सारी बातों को व्यवस्थित बनाने की भरसक कोशिश करूंगा. मुनाफा नहीं है, इसके लिए मैं इस काम को छोडूंगा नहीं.'
यदि वेस्ट चाहते तो मुनाफा न होता देखकर काम छोड़ सकते थे और मैं उन्हें किसी तरह का दोष न दे सकता था. यही नहीं, बल्कि बिना जांच पड़ताल किये इसे मुनाफेवाला काम बताने का दोष मुझ पर लगाने का उन्हें अधिकार था. इतना सब होने पर भी उन्होंने मुझे कभी कड़वी बात तक नहीं सुनायीं. पर मैं मानता हूं कि इस नई जानकारी के कारण वेस्ट की दृष्टि में मेरी गितनी उन लोगों में हुई होगी, जो जल्दी में दूसरों का विश्वास कर लेते हैं.
मदनजीत की धारणा के बारे में पूछताछ किये बिना उनकी बात पर भरोसा करके मैंने वेस्ट से मुनाफे की बात कही थी. मेरा ख्याल है कि सार्वजनिक काम करने वाले को ऐसा विश्वास न रखकर वही बात कहनी चाहिये जिसकी उसने स्वयं जाँच कर ली हो. सत्य के पुजारी को तो बहुत सावधानी रखनी चाहिये. पूरे विश्वास के बिना किसी के मन पर आवश्यकता से अधिक प्रभाव डालना भी सत्य को लांछित करना है.
मुझे यह कहते हुए दुःख होता है कि इस तथ्य को जानते हुए भी जल्दी में विश्वास करके काम हाथ में लेने की अपनी प्रकृति को मैं पूरी तरह सुधार नहीं सका. इसमें मैं अपनी शक्ति से अधिक काम करने के लाभ को दोष देखता हूं. इस लोभ के कारण मुझे जितना बेचैन होना पड़ा है, उसकी अपेक्षा मेरे साथियों को कहीं अधिक बेचैन होना पड़ा है.
वेस्ट का ऐसा पत्र आने से मैं नेटाल के लिए रवाना हुआ. पोलाक तो मेरी सब बातें जानने लगे ही थे. वे मुझे छोड़ने स्टेशन तक आये और यह कहकर कि 'यह रास्ते में पढ़ने योग्य है, आप इसे पढ़ जाइये, आपको पसन्द आयेगी,' उन्होंने रस्किन की 'अनटू दिस लास्ट' पुस्तक मेरे हाथ में रख दी.
इस पुस्तक को हाथ में लेने के बाद मैं छोड़ ही न सका. इसने मुझे पकड़ लिया. जोहांसबर्ग से नेटाल का रास्ता लगभग चौबीस घंटो का था. ट्रेन शाम को डरबन पहुंचती थी. वहां पहुंचने के बाद मुझे सारी रात नींद न आयी. मैंने पुस्तक में सूचित विचारों को अमल में लाने को इरादा किया.
इससे पहले मैंने रस्किन की एक भी पुस्तक नहीं पढ़ी थी. विद्याअध्ययन के समय में पाठ्यपुस्तकों के बाहर की मेरी पढ़ाई लगभग नहीं के बराबर मानी जाएगी. कर्मभूमि में प्रवेश करने के बाद समय बहुत कम बचता था. आज भी यही कहा जा सकता है. मेरा पुस्तकीय ज्ञान बहुत ही कम है. मैं मानता हूं कि इस अनायास अथवा बरबस पाले गये संयम से मुझे कोई हानि नहीं हुई, बल्कि जो थोड़ी पुस्तकें मैं पढ़ पाया हूं, कहा जा सकता है कि उन्हें मैं ठीक से हजम कर सका हूं. इन पुस्तकों में से जिसने मेरे जीवन में तत्काल महत्त्व के रचनात्मक परिवर्तन कराये, वह 'अंटु दिस लास्ट' ही कही जा सकती है. बाद में मैंने उसका गुजराती अनुवाद किया औऱ वह 'सर्वोदय' नाम से छपा.
मेरा यह विश्वास है कि जो चीज मेरे अन्दर गहराई में छिपी पड़ी थी, रस्किन के ग्रंथरत्न में मैंने उनका प्रतिबिम्ब देखा, और इस कारण उसने मुझ पर अपना साम्राज्य जमाया और मुझसे उसमें अमल करवाया. जो मनुष्य हममें सोयी हुई उत्तम भावनाओं को जाग्रत करने की शक्ति रखता है, वह कवि है. सब कवियों का सब लोगोँ पर समान प्रभाव नहीं पड़ता, क्योंकि सबके अन्दर सारी सद्भावनाएं समान मात्रा में नहीं होती.
मैं 'सर्वोदय' के सिद्धान्तों को इस प्रकार समझा हूं:
1. सब की भलाई में हमारी भलाई निहित है
2. वकील और नाई दोनों के काम की कीमत एक सी होनी चाहिये, क्योंकि आजीविका का अधिकार सबको एक समान है
3. सादा मेहनत-मजदूरी का, किसान का जीवन ही सच्चा जीवन है
पहली चीज मैं जानता था. दूसरी को धुँधले रुप में देखता था. तीसरी का मैंने कभी विचार ही नहीं किया था. 'सर्वोदय' ने मुझे दीये की तरह दिखा दिया कि पहली चीज में दूसरी चीजें समायी हुई हैं. सवेरा हुआ और मैं इन सिद्धान्तों पर अमल करने के प्रयत्न में लगा.