'साहित्य तक: बुक कैफे टॉप 10' की वर्ष 2023 के सूची की यह आखिरी कड़ी है. इस शृंखला में हमने कुल 17 श्रेणियों में टॉप 10 पुस्तकों की चर्चा की. आज उन श्रेष्ठ '10 उपन्यास' का जिक्र, जो भारतीय साहित्य-जगत को विस्तार देते हैं. इस सूची में शिवमूर्ति, उषा प्रियंवदा, अलका सरावगी, गरिमा श्रीवास्तव, भगवानदास मोरवाल और गीताश्री तो हैं ही, इनके अलावा और किन कथाकारों की कृतियां शामिल हैं.
***
शब्द की दुनिया समृद्ध हो और बची रहे पुस्तक-संस्कृति इसके लिए इंडिया टुडे समूह के साहित्य, कला, संस्कृति और संगीत के प्रति समर्पित डिजिटल चैनल 'साहित्य तक' ने पुस्तक-चर्चा पर आधारित एक खास कार्यक्रम 'बुक कैफे' की शुरुआत वर्ष 2021 में की थी... आरंभ में सप्ताह में एक साथ पांच पुस्तकों की चर्चा वाला यह कार्यक्रम आज अपने वृहद स्वरूप में सर्वप्रिय है.
साहित्य तक 'बुक कैफे' में इस समय पुस्तकों पर आधारित जो कार्यक्रम प्रसारित हो रहे हैं, उनमें 'एक दिन, एक किताब' के तहत हर दिन एक पुस्तक की चर्चा, 'शब्द-रथी' कार्यक्रम में किसी लेखक से उनकी सद्य: प्रकाशित कृति पर बातचीत और 'बातें-मुलाकातें' कार्यक्रम में किसी वरिष्ठ रचनाकार से उनके जीवनकर्म पर संवाद होता है. इनके अतिरिक्त 'आज की कविता' के तहत कविता-पाठ का विशेष कार्यक्रम भी बेहद लोकप्रिय है.
भारतीय मीडिया जगत में जब 'पुस्तक' चर्चा के लिए जगह छीजती जा रही थी, तब 'साहित्य तक' हर शाम 4 बजे 'बुक कैफे' में प्रसारित कार्यक्रमों के साथ सामने आया. हमारे इस कार्यक्रम को प्रकाशकों, रचनाकारों और पाठकों की बेपनाह मुहब्बत मिलती रही है. अपने दर्शक, श्रोताओं के अतिशय प्रेम के बीच जब पुस्तकों की आमद लगातार बढ़ने लगी, तो यह कोशिश की गई कि कोई भी पुस्तक; आम पाठकों, प्रतिबद्ध पुस्तक-प्रेमियों की नजर से न छूट जाए. आप सभी तक 'बुक कैफे' को प्राप्त पुस्तकों की जानकारी सही समय से पहुंच सके इसके लिए सप्ताह में दो दिन- हर शनिवार और रविवार को - सुबह 10 बजे 'किताबें मिलीं' कार्यक्रम भी शुरू किया गया. यह कार्यक्रम 'नई किताबें' के नाम से इस वर्ष भी जारी रहेगा.
'साहित्य तक' ने वर्ष 2021 में ही पूरे वर्ष की चर्चित पुस्तकों में से उम्दा पुस्तकों के लिए 'बुक कैफे टॉप 10' की शृंखला शुरू की थी, ताकि आप सब श्रेष्ठ पुस्तकों के बारे में न केवल जानकारी पा सकें, बल्कि अपनी पसंद और आवश्यकतानुसार 'विधा' और 'विषय' विशेष की पुस्तकें चुन सकें. तब से हर वर्ष के आखिरी में 'बुक कैफे टॉप 10' की यह सूची जारी होती है. 'साहित्य तक बुक कैफे टॉप 10' की यह शृंखला अपने आपमें अनूठी है, और इसे भारतीय साहित्य जगत, प्रकाशन उद्योग और पाठकों के बीच खूब आदर प्राप्त है.
'साहित्य तक' के 'बुक कैफे' की शुरुआत के समय इसके संचालकों ने कहा था, "एक ही जगह बाजार में आई नई पुस्तकों की जानकारी मिल जाए, तो पुस्तकों के शौकीनों के लिए इससे लाजवाब बात क्या हो सकती है? अगर आपको भी है किताबें पढ़ने का शौक, और उनके बारे में है जानने की चाहत, तो आपके लिए सबसे अच्छी जगह है साहित्य तक का 'बुक कैफे'".
वर्ष 2021 में 'साहित्य तक- बुक कैफे टॉप 10' की शृंखला में केवल अनुवाद, कथेतर, कहानी, उपन्यास, कहानी श्रेणी की टॉप 10 पुस्तकें चुनी गई थीं. वर्ष 2022 में लेखकों, प्रकाशकों और पुस्तक प्रेमियों के अनुरोध पर कुल 17 श्रेणियों में टॉप 10 पुस्तकें चुनी गईं. साहित्य तक ने इन पुस्तकों को कभी क्रमानुसार कोई रैंकिंग करार नहीं दिया, बल्कि हर चुनी पुस्तक को एक समान टॉप 10 का हिस्सा माना. यह पूरे वर्ष भर पुस्तकों के प्रति हमारी अटूट प्रतिबद्धता और श्रमसाध्य समर्पण का द्योतक है. फिर भी हम अपनी सीमाओं से भिज्ञ हैं. संभव है कुछ बेहतरीन पुस्तकें हम तक पहुंची ही न हों, संभव है कुछ श्रेणियों में कई बेहतरीन पुस्तकें बहुलता के चलते रह गई हों. संभव है कुछ पुस्तकें समयावधि के चलते चर्चा से वंचित रह गई हों. पर इतना अवश्य है कि 'बुक कैफे' में शामिल ये पुस्तकें अपनी विधा की चुनी हुई 'साहित्य तक बुक कैफे टॉप 10' पुस्तकें अवश्य हैं. हमें खुशी है कि हमारे इस अभियान में प्रकाशकों, लेखकों, पाठकों, पुस्तक प्रेमियों का बेपनाह प्यार मिला. हमने पुस्तक चर्चा के कार्यक्रम को 'एक दिन, एक किताब' के तहत दैनिक उत्सव में बदल दिया है.
पुस्तक संस्कृति को बढ़ावा देने की 'साहित्य तक' की कोशिशों को समर्थन, सहयोग और प्यार देने के लिए आप सभी का आभार.
***
साहित्य तक बुक कैफे टॉप 10: वर्ष 2023 के श्रेष्ठ 10 उपन्यास और उनके कथाकार हैं:
***
* 'अगम बहै दरियाव' - शिवमूर्ति
कृषिप्रधान कहे जाने वाले देश भारत का एक आम किसान जिसके पास सौ-दो सौ बीघा जमीन, लाइसेंसी बन्दूकें-राइफलें और पुलिस-फौज में नौकरी पाए बेटे नहीं हैं, अपने दुख में अकेला और असहाय एक ऐसा जीव है, जो लगता है पूरी व्यवस्था का देनदार है. राजनीति के लिए वोट-बैंक और नौकरशाही के लिए एक दुधारू गाय. थाने, तहसीलें, अदालतें, अमीन, पटवारी, वकील, गन्ना मिलें, आढ़ती, कर्जे और खर्चे, राजनीति और नौकरशाही, ये सब मिलकर एक ऐसा महाजाल बुनते हैं जिसके निशाने पर किसान ही होता है. यह अगम दरियाव उसी भारतीय किसान के दुखों का है, बेशक उसकी वह ताकत भी यहां मौजूद है जो राष्ट्रीय उपेक्षा के आखिरी सिरे पर पड़े रहने के बावजूद न केवल उसे बचाए हुए है, बल्कि बचाए हुए है उसकी संस्कृति, उसकी मनुष्यता और उसका जीवट. हमारे समय के ग्रामीण जीवन के समर्थ किस्सागो की अनुभव-सम्पदा और कथा-कौशल का शिखर है यह उपन्यास. कल्याणी नदी के कंठ पर बसे बनकट गांव की इस कथा में समूचे उत्तर भारत के किसानों और मजदूरों की व्यथा समायी हुई है. इस दुनिया में सब शामिल हैं अगड़े, पिछड़े, दलित, अल्पसंख्यक सब. और सब इसमें बराबर के हिस्सेदार हैं. जिन्दगी के विविध रंगों, छवियों और गीत-संगीत से समृद्ध इस उपन्यास में 'लोक' की छटा कदम-कदम पर दृश्यमान है, और ग्रामीण जीवन की शान्त सतह के नीचे खदबदाती लोभ-लालच, प्रेम-प्यार, छल-प्रपंच और त्याग-बलिदान की धाराएं भी जो जमाने से बहती आ रही हैं. कथा-साहित्य में लम्बे समय से अनुपस्थित किसान को यह उपन्यास वापस एक त्रासदी-नायक के रूप में केंद्र में लाता है. देश के नीति-नियंता चाहें तो इस आख्यान को एक 'ग्राउंड रिपोर्ट' की तरह भी पढ़ सकते हैं.
- प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन
***
* 'अर्कदीप्त' - उषा प्रियंवदा
इस उपन्यास का नायक अर्कदीप्त अपने आप में डूबा, बहुत थोड़े में सन्तुष्ट, और जीवन को नितान्त अपनी दृष्टि से देखने वाला बच्चा है; जिसे कुछ नहीं चाहिए, जो मिलता उसी में सन्तुष्ट. फिर उसके जीवन में प्रेम आया, जिसने उसके अंतस को उस ऊर्जा से भरना शुरू किया; जो उसके अस्तित्व की वास्तविक ज़रूरत थी. पूर्ण प्रेम, अकुंठ समर्पण, सर्वांग साहचर्य की अनूठी कथा में परदेसी भूमि के मुक्त वातावरण में उसके जीवन में सौदामिनी आती है और वे एक-दूसरे के मन, आत्मा और देह में वह स्थान पाते हैं, जो नियति ने उन्हें उपहार की तरह दिया था. लेकिन सौदामिनी जब अपने अतीत से उत्पन्न कमिटमेंट फ़ोबिया के चलते कुछ पल अज्ञात में विलीन हुई; तो अर्कदीप्त अपने इस पहले प्रेम की टूटन से बिखरा, जला और फिर राख हो गया, जिसे परिवार और शुभचिन्तकों ने परम्परा को सौंप दिया. लेकिन उसने दुख के सूरज को बुझने नहीं दिया, उसे अपनी आत्मा के क्षितिज पर अक्षुण्ण रहने दिया और फिर, जैसे ब्रह्मांड के आदेश पर, उसे अपनी खोई दिशा के संकेत मिलने लगे, और वह सब कुछ जहां का तहां छोड़कर चला गया; सबके लिए विलुप्त. जीवन के सूक्ष्मतम विवरणों से समृद्ध और उन्हीं के बीच आत्मोपलब्धि के निर्णायक पलों को रेखांकित करती हुई एक समर्थ, परिपक्व लेखनी की रचना. यहां उपन्यास विधा अपने पूरेपन में घटित होती प्रतीत होती है. भाषा के उदार और सजीव विस्तार में कथा को अपने सम्पूर्ण में खुलने का अवकाश देती हुई. भारत, जर्मनी, डेनमार्क और अमेरिका के कई शहरों में फैली यह कथा प्रेम के विराट को उद्घाटित करती है और अनेकानेक पात्रों के माध्यम से जीवन के तमाम पहलुओं से होकर गुज़रती है.
- प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन
***
*'आउशवित्ज़: एक प्रेम कथा' - गरिमा श्रीवास्तव
- यह उपन्यास विश्व साहित्य में युद्ध विरोधी लेखन की एक मिसाल है. द्वितीय विश्व युद्ध और बांग्लादेश मुक्ति युद्ध की स्मृतियों के तनाव के बीच यह बहुस्तरीय उपन्यास लिखा गया है, जो कभी-कभी आत्मकथा का भ्रम देने लगता है. यह स्मृतियों के आर्केटाइप जैसा कुछ है जो अपने संरचनात्मक रूप में बहुस्तरीय है. स्वीडन के यूनिवर्सिटी ऑफ उप्पसला के प्रोफ़ेसर हेइंज वेर्नर वेस्लर के शब्दों में- 'राजनीति से क्रूर और असभ्य होते लोग हर समय अपने देश के हिटलरों के साथ खड़े रहते हैं, इसलिए आज भी हिटलर अपना काम किए जा रहा है.' स्त्री के प्रेम और स्वाभिमान के तन्तुओं से बुने इस उपन्यास के पात्र और घटनाएं सच्ची हैं, इतिहास इन घटनाओं का मूक गवाह रह चुका है. हिटलर की नात्सी सेना द्वारा यहूदियों के समूल खात्मे के लिए बनाये यातना शिविरों में से एक है आउशवित्ज़- जो अब संग्रहालय में तब्दील कर दिया गया है. युद्ध के निशान ढूंढने पहुंची प्रतीति सेन, अपने जीवन को फिर से देखने की दृष्टि आउशवित्ज़ में ही पाती है. प्रतीति कब रहमाना ख़ातून हो उठती है और कब रहमाना ख़ातून प्रतीति- पहचानना मुश्किल है. इतिहास और वर्तमान के बीच आवाजाही करती यह कृति कथा शिल्प की दृष्टि से बेहद प्रभावशाली है.
- प्रकाशक: वाणी प्रकाशन
***
* 'गांधी और सरलादेवी चौधरानी: बारह अध्याय' - अलका सरावगी
- ये हमारे समय कि एक ऐसी कहानी है, जिस पर हमेशा विवाद रहा. महात्मा का कद उनके चाहने वालों में, समर्थकों में, दुनिया भर के अनुयाइयों के बीच इतना बड़ा है कि वे हमेशा उन्हें अतिमानव के रूप में देखते रहे हैं. यह तबका यह समझ ही नहीं पाता कि राष्ट्रपिता, संत, महात्मा और महामानव के रूप में समादृत मोहनदास करमचंद गांधी ने भी अपनी मनुष्यता को और एक मानव के रूप में अपनी कमियों और परिष्कार को कभी छिपाया नहीं... इसीलिए साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित लेखिका ने जब यह उपन्यास लिखा तो लोग यह भूल गए कि यह एक गल्प कृति है, जहां पात्र भले ही ऐतिहासिक हैं, पर यह इतिहास नहीं है. यह उपन्यास गांधी जी और गुरुदेव रबींद्रनाथ टैगोर की भांजी के अनूठे और निश्छल प्रेम पर आधारित है. गांधी जी ने सरला देवी चौधरानी को अपनी 'आध्यात्मिक पत्नी' कहा था, पर उनके बारे में कितने लोग जानते हैं? कौन थीं सरला देवी? कहां पैदा हुईं? उनकी कहां महात्मा से मुलाकात हुई? जिस सरलादेवी चौधरानी की बौद्धिक प्रतिभा और देश की आज़ादी के यज्ञ में ख़ुद को आहुति देने के संकल्प ने गांधी जी को अपनी ओर आकर्षित किया, उनका नाम आखिर इतिहास के पन्नों में कहां दर्ज है? जिस सरलादेवी की शिक्षा और तेजस्विता से मुग्ध हो स्वामी विवेकानन्द उन्हें अपने साथ प्रचार करने के लिए विदेश ले जाना चाहते थे, इतिहास ने बड़े नामों की कथा लिखते समय हाशिए तक पर उन्हें जगह क्यों नहीं दी? यह उपन्यास उसी सरला देवी को समझने में, उनके प्रेम को समझने में, गांधी को समझने में; और तो और भारतीत स्वतंत्रता संग्राम को करीब से जानने में मदद करता है. यह उपन्यास सौ साल पहले घटे जलियांवाला बाग़ के समय के उन विस्मृत किरदारों की भी एक गाथा है, जो इतिहास की धूप-छांव के बीच अपनी जगह बनाने में, अपने रूपक की तलाश में नये अध्याय रचते हैं.
- प्रकाशक: वाणी प्रकाशन
***
* 'महाब्राह्मण' - त्रिलोक नाथ पांडेय
'ऐसा खतरा कौन मोल लेना चाहेगा! कौन अपनी खाल खुद अपने हाथों उतारना चाहेगा- ऐसी खाल जिससे लोग जनम भर बड़े जतन से चिपके रहते हैं! दुनिया के सतरंगे रंगमंच से उतरकर कौन नेपथ्य के स्याह बियाबान में गुम होना चाहेगा! लोग अपनी पहचान को काल के कपाल पर ऐसी मजबूती से मढ़ देना चाहते हैं कि वह अनन्त काल तक चमकता रहे. लेकिन मैं अपनी पहचान खुद मिटाना चाहता हूं, क्योंकि मुझे डर है कि अगर मैं पहचान लिया गया कि असल में मैं कौन हूं तो मैं हमेशा के लिए मर जाऊंगा- कम से कम उनके लिए जो मुझे कुछ और ही समझ बैठे हैं.'.. यह 'महाब्राह्मण' उपन्यास की शुरुआती पंक्तियां हैं. भारतीय खुफिया सेवा के बड़े पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात लेखन क्षेत्र में उतरे कथाकार का यह नवीनतम उपन्यास जातियों में जकड़े भारतीय समाज का अनदेखा सच बयान करता है. 'जाति' एक ऐसा शब्द है, जिसे कुछ लोग सीना ठोक कर बताते हैं तो कुछ बताने से डरते हैं. जाति के नाम पर भेदभाव से पीड़ित महापातर, महाब्राह्मण भारतीय समाज का ऐसा आवश्यक हिस्सा हैं, जिनके कर्मकांड और तुष्टि के बिना बड़े से बड़े रसूखदार और बड़े से बड़े रईस की आत्मा की मुक्ति नहीं होगी. यह उपन्यास सदियों से विभिन्न जातियों-उपजतियों में बंटे भारतीय समाज का सटीक और मार्मिक विश्लेषण है. कई वर्षों के शोध और फील्ड वर्क के बाद लिखी गई यह कृति इस समाज को बहुत करीब से दिखलाती है और उस चित्रण के माध्यम से तमाम विसंगतियों और क्रूर जातीय संरचना के अनछुए पहलुओं और विडम्बनाओं को परत दर परत खोलती है.
- प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन
***
*'मोक्षवन' - भगवानदास मोरवाल
यह उपन्यास वृंदावन जैसे विभिन्न धार्मिक-स्थलों में मुक्ति की कामना से भटकते हुए उन सफेद पुतलों की कथा है, जो अवसर मिलने पर अपने-अपने क्षेत्रों में चमक सकते थे. इस औपन्यासिक कृति में बिजली घोष का हरिदासी में तब्दील होना एक ऐसी ही त्रासद-कथा है, जो शांतिनिकेतन में रहते हुए एक उम्दा बाउल गीतिका थी. उसके सहयोगी-प्रेमी-पति अरुणाभ की मृत्यु होते ही समाज का पितृसत्तात्मक चेहरा अपनी पूरी दानवता के साथ उभर आया. फिर वह अपने परिवार तक के लिए एक अपशगुन बन गयी. बाद में उसे वृंदावन की उन कुंज-गलियों में निरीह अवस्था में अपना जीवन गुजारना पड़ा, जिनमें प्राकृतिक धूप तक ठीक से नहीं पहुंच पाती. इन गलियों में मेधु दासी जैसी अनेक दासियां अपनी देह तक को बाजार में नीलाम करने पर विवश हो जाती हैं. अनेक दासियां मोक्ष की तलाश में यहां आती हैं, किंतु उन्हें जाने कब-कब अपनी कोख तक को चंद पैसों के लिए गिरवी रखने के लिए तैयार कर लिया जाता है. इन दासियों का लॉकडाऊन जैसी परिस्थितियों में तो और भी भयानक हाल होता है. समाज के दोमुंहे पन को उजागर करता यह उपन्यास ऐसे ही अनेक विषयों को परत-दर-परत खोलता है. इस उपन्यास को मोक्ष की भव्य मंडी बनाकर पोषित किए जा रहे धार्मिक-स्थलों के भीतर पसरे स्याह सत्य को जानने के लिए पढ़ा जाना चाहिए.
- प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन
***
* 'हेति- सुकन्या: अकथ कथा', सिनीवाली
- यह वृद्ध ऋषि च्यवन और उनकी सर्वांग सुंदरी युवा पत्नी सुकन्या की कथा है. कहते हैं कि भृगु मुनि के पुत्र और प्रजापिता ब्रह्मा के पौत्र ऋषि च्यवन ने अपनी तपस्या से इतनी शक्ति अर्जित कर ली थी कि वे इन्द्र के वज्र को भी पीछे धकेल सकते थे. यही ऋषि च्यवन तप करने बैठे तो हजारों वर्ष बीत गए. उनके शरीर पर दीमक-मिट्टी चढ़ गई और लता-पत्तों ने उन्हें ढंक लिया. उन्हीं दिनों राज्य के राजा शर्याति अपनी चार हजार रानियों और एकमात्र रूपवती पुत्री सुकन्या के साथ वन में भ्रमण के लिए आए. सुकन्या अपनी सहेलियों के साथ घूमते हुये दीमक-मिट्टी एवं लता-पत्तों से ढंके दीमक-मिट्टी के टीले के पास पहुंची, और कौतूहलवश दो गोल-गोल छिद्रों में कांटे गड़ा दिए. वे ऋषि च्यवन की आंखें थीं. कांटों के गड़ते ही उन छिद्रों से रुधिर बहने लगा. सुकन्या भयभीत हो चुपचाप वहां से चली गई. इधर कांटे गड़ने से ऋषि अन्धे हो गये. उन्हें इतना क्रोध आया कि उन्होंने तत्काल शर्याति की सेना का मल-मूत्र रुक जाने का शाप दे दिया. राजा शर्याति के पूछने पर सुकन्या ने सारी बातें पिता को बता दी. शर्याति ने ऋषि से क्षमायाचना की, पर दंड स्वरूप च्यवन ऋषि ने सुकन्या का हाथ मांग लिया. उनका विवाह हो गया. बाद की कथा सुकन्या के पतिव्रता होने की गाथा है. एक दिन च्यवन ऋषि के आश्रम में दो अश्वनीकुमार पहुंचे. उन्होंने सुकन्या की कथा जानी, और पता नहीं उनके सौंदर्य से प्रभावित हो या उनकी पीड़ा पर द्रवित हो च्यवन ऋषि की आंखों में पुनः इस शर्त पर दीप्ति प्रदान कर दी कि उनका रूप-रंग, आकृति अश्वनीकुमारों जैसी हो जाएगी, और सुकन्या अगर अपने पति को पहचान लेंगी, तो उसे आश्रम ले जा सकती हैं. सुकन्या ने अपनी तेज बुद्धि से पति को पहचान लिया... इसी विषय पर लेखिका का यह प्रथम उपन्यास ही उन्हें हिंदी जगत में स्थापित करने के लिए पर्याप्त है. यह कृति अपनी लालित्यपूर्ण भाषा, अद्भुत कथा शैली, सधे हुए कथानक, प्रकृति और परिवेश के अविस्मरणीय वर्णन, राजकुमारी सुकन्या के अप्रतिम सौंदर्य, अल्हड़ता, स्वप्न, प्रेम, प्रेम-भंग, शापित विवाह, त्याग, स्त्री की पीड़ा, ऋषि के अहंकार, स्त्री तन के प्रति उनके आकर्षण और एक राजा की बाध्यता के बीच समकालीन स्त्री के संघर्ष और विजय की अकथ गाथा है.
- प्रकाशक: रुद्रादित्य प्रकाशन
***
* 'रंग पुटुसिया' - अमरेश द्विवेदी
ऐसा बहुत कम होता है कि कोई कथाकार अपनी पहली ही कृति से न केवल अपने लिए विशाल पाठकवर्ग खड़ा कर ले बल्कि आलोचकों का ध्यान भी अपनी तरफ खींचे. द्विवेदी का यह पहला उपन्यास अपने कथ्य, शिल्प और प्रस्तुति के साथ यही करता है. लेखक झारखंड के एक बेहद पिछड़े इलाके के गंवई-कस्बाई माहौल से शुरू करता है और बचपन के प्रेम को किशोर उम्र तक पहुंचने के बीच स्थानीय स्तर पर गांव, समाज, सियासत और परिवार के स्तर पर, स्कूल, कॉलेज और छोटे कस्बों में पलती-बढ़ती दबंगई के बीच भी प्रेम के कोमल तंतुओं को बेहद तटस्थ पर सशक्त अंदाज में रखने में कामयाब रहता है. फिल्मकार तिग्मांशु धूलिया कहते हैं- "उन सभी मिले-जुले लोगों के लिए जिन्होंने एक-दूसरे की ज़िन्दगी जी है. फ़िल्म 'काला पत्थर' के रिलीज़ के दौर में लौटकर ओढ़ लीजिए उन यादों की गुनगुनी रज़ाई जिसमें क़स्बाई बारीकियों को छांट-छांट कर पिरोया गया है. ये कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि ये उपन्यास रोचकता में कुछ-कुछ श्रीलाल शुक्ल की कथा-शैली की याद दिलाता है." सच कहें तो यह उपन्यास केवल रोचकता और शैली में ही नहीं अपने परिवेश के सूक्ष्म और जीवंत चित्रण के लिए भी सराहा जाना चाहिए.
-प्रकाशक: वाणी प्रकाशन
***
*'अक्षि मंच पर सौ सौ बिंब'- अल्पना मिश्र
- इस उपन्यास में 'नीली' है. रंगहीन बीमार आंखों से रंग-बिरंगी दुनिया देखने की कोशिश करती, स्लीप पैरॉलिसिस जैसी बीमारी से जूझती नीली, जिसके लिए चारों ओर बहता जीवन, बाहर से निरोग और चुस्त दिखता जीवन अपना भीतरी क्षरण उधेड़ता चला जाता है. नीली कथा का केंद्र है, अक्षम होने की नियति के हज़ार हाथों में फंसी छटपटाती नीली के ज़रिये हम दुनिया की उलट-पुलट और आयरनी का हर कोना देख आते हैं. उसी में टकराती और बहती जीवन की वे गतियां हैं जो किसी को बहा ले गयी हैं तो किसी में जूझने का हौसला देखना चाहती हैं. जीवन के बहुरंग के बीच मनुष्य का अपनी परंपराओं से जूझना और अवरुद्ध होकर भीतरी बाहरी बीमारियों के ढंग का हो जाना इस कृति का केंद्रबिंदु हैं. और इसी के भीतर भूला-बिसरा सा वह साथ चलता समय टंगा है जिसमें जारी उथल-पुथल, आतंक और मनुष्य को निहत्था बनाने वाली प्रवृत्तियों का घेराव है. गैंगवार ही नहीं, धरकोसवा और मुड़कटवा जैसे भयकारी प्रायोजित यातना प्रसंग भी इसमें हैं, जिनका आना जैसे अनिष्ट का रूप बदल-बदल कर आना है और आकर इन्सानियत को तार-तार कर देना है. छोटे से कलेवर में बड़ा वृत्तान्त रचता यह उपन्यास अपने दिलचस्प कथ्य, भाषा में 'विट' के कौशल और शिल्प के अनूठे प्रयोग से बांधता है तो चमत्कृत भी करता है.
- प्रकाशक: वाणी प्रकाशन
***
* 'कैद बाहर' - गीताश्री
- प्रेमी जहां पति मैटेरियल में बदलने लगता है और प्यार विवाह नाम के नरक में - क़ैद की दीवारें वहीं उठना शुरू होती हैं, जिनसे निकलने का संघर्ष इस उपन्यास की स्त्रियां कर रही हैं. लेकिन इस मुक्ति का निर्वाह क्या इतना आसान है? प्रेम से रहित हो जाना और अपने एकान्त के वैभव को चारों तरफ जगमगाती-दहाड़ती पारिवारिकताओं के ठीक सामने खड़ा कर देना; क्या यह उतना ही सरल है जितना विचार के रूप में सोच लेना! यह एक मुश्किल फ़ैसला है, एक कठिन इरादा जिसके लिए अपने आप से भी लड़ना होता है, और अपने आसपास की दुनिया से भी, उन मूल्यों-मान्यताओं से भी जिन्हें जीवन की एकमात्र और स्वीकृत पद्धति के रूप में स्थापित कर दिया गया है. लेकिन आज की स्त्री को यह संघर्ष, यह ख़तरा, यह बहुआयामी युद्ध फिर भी वरेण्य लगता है, बनिस्बत उस 'सुख', 'संतोष' और 'पूरेपन' के जिसकी गारंटी विवाह नाम की संस्था देती रही है, और बदले में स्त्री से ही नहीं, कई बार पुरुष से भी उसकी आज़ादी को छीनती रही है. स्त्री-स्वातंत्र्य की अवधारणाओं को अपने लेखन धार देने वाली लेखिका का यह उपन्यास कथाओं और उपकथाओं में चलती एक बहस ही है. यह उन स्त्रियों के अंतर्बाह्य संघर्षों का कोलाज है जो समाज को पारम्परिक परिवार के स्थान पर एक नया केंद्र देना चाहती हैं, जहां किसी की संवेदना को रौंदा न जाए, न स्त्री की, न पुरुष की.
- प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन
***
वर्ष 2023 के 'साहित्य तक बुक कैफे टॉप 10' में शामिल सभी पुस्तक लेखकों, प्रकाशकों, अनुवादकों और प्रिय पाठकों को बधाई!