किताबः अंधविश्वास उन्मूलन (पहला भाग)
प्रकाशकः सार्थक प्रकाशन
लेखकः नरेंद्र दाभोलकर
संपादकः डॉ. सुनील कुमार लवटे
अनुवादकः डॉ. चंदा गिरीश
कीमतः 150 रुपये
पढ़े लिखे लोग चाहे वो वैज्ञानिक हो या डॉक्टर, क्योंकि अंधविश्वास के शिकार हो जाते हैं. दूसरी ओर वैज्ञानिक बातों के संस्कार आज की शिक्षा में अथवा समाज में नजर नहीं आते और वैज्ञानिक विपरीत व्यवहार करते हैं. इससे अगर बचना है, तो एक व्यूह निर्माण करना होगा, जिसकी रूपरेखा इस प्रकार होगी.
1. मनुष्य का पहला लक्षण तर्कसंगत विचारों के अनुरूप व्यवहार करना है. असंगत विचारों पर आधारित व्यवहार उसको पराजित ही करता है. असंगत विचारों पर आधारित मार्ग भले ही उचित लगे, उन्नति का लगे, फिर भी अवांछित है, इस बात को ध्यान में रखना चाहिए.
2. अंधविश्वासी व्यवहार शोषण को खुलेआम बढ़ावा देता है, तो वहां कानून की आवश्यकता होती है. भगवान की आज्ञा का अंदाज लगाकर ही चुनाव में खड़ा होने या न होने का निर्णय लेना अंधविश्वासपूर्ण कार्य है. कोई व्यक्तिगत स्वतंत्रता कहकर इसे सही साबित केरगा. लेकिन कोई व्यक्ति चोर है अथवा नहीं, यह साबित करने के लिए किसी जाग्रत देवता के सामने उसे उबलते तेल में हाथ डालने के लिए मजबूर करना न केवल अंधविश्वास है, बल्कि शोषण है. इसके विरुद्ध कानून होना ही चाहिए. अभी तक ऐसा कानून समूचे भारत में कहीं भी नहीं बनाया गया है. महाराष्ट्र में यह 2013 में बना है. ऐसे समाज में रहने वाले वैज्ञानिक अगर दोहरा अवैज्ञानिक व्यवहार करते हैं, तो इसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए.
3. अंधविश्वास के विरुद्ध जनजागरण का कार्य निःसंकोच निडरता से और प्रभावी ढंग से होना चाहिए. यह जागृति विज्ञान का प्रसार है. इस कार्य की कुछ सीमाएं भी होती हैं. अधिकांश समय, प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप में, इसमें धर्म की चर्चा होती है. इसीलिए इस कार्य का विरोध किया जाता है. बचपन से ही मनुष्य पर घर और समाज में सर्वत्र धर्म और परंपरागत आचार-विचारों के वातावरण का प्रभाव होता है. टेलीविजन चैनलों पर निरर्थक, अवैज्ञानिक धारावाहिकों का निरंतर प्रसारण होता रहता है. पाठशालाओं में सर्वधर्म समभाव की आड़ में किसी भी धर्म की चर्चा को टाला जाता है. वैज्ञानिक के अवैज्ञानिक व्यवहार को सुधारने के लिए जागरुकता अनिवार्य हो गई है. लेकिन कटु सत्य यह है कि जनजागरण के प्रमुख स्थानों पर ही अंधविश्वास का डेरा है.
4. मनुष्य के मन में बचपन से ही अवैज्ञानिक विचारों के संस्कार गहराई से जमे होते हैं. इस अंतर्मन में प्रवेश करने के लिए केवल जनजागरण पर्याप्त नहीं है. बल्कि अपने कार्य से उदाहरण पेश करने की भी आवश्यकता है. स्वयं में वह निडरता होनी चाहिए, विपरीत परिणामों का डर मन में नहीं होना चाहिए. आज की शिक्षा व्यवस्था ऐसी बातों का सर्वे तक करने के लिए राजी नहीं है. गाड़ी दुर्घटनाग्रस्त न हो इसलिए उस पर नींबू और मिर्च बांधी जाती है. ऐसा करने वाले और न करने वाले गाड़ियों का सर्वे कर इस अंधविश्वास को दूर किया जा सकता है.
- नरेंद्र दाभोलकर की किताब 'अंधविश्वास उन्मूलन' से