महात्मा गांधी की जिंदगी पर कई बेहतरीन किताबें लिखी गई हैं. इसी कड़ी में नया नाम 'गांधी भारत से पहले' का जुड़ गया है. 'गांधी भारत से पहले' इतिहासकार रामचंद्र गुहा की किताब 'गांधी बिफोर इंडिया' का हिंदी अनुवाद है. इंग्लिश में लिखी इस किताब का बेहतरीन और सरल हिंदी अनुवाद सुशांत झा ने किया है. आगे पढ़िए किताब का एक ऐसा अंश, जिसके जरिए आप गांधी जी के कुछ अंजान दोस्तों के बारे में जान सकेंगे.
महात्मा गांधी ने जो संबंध विकसित किए वो निजी तो थे ही, उपयोगी भी थे. उन्हें अपने बेटों से, भतीजों से और अपने भारतीय और यूरोपीय दोस्तों से अपार स्नेह था. लेकिन उनके लिए ज्यादा महत्वपूर्ण था कि ये लोग उनके सामाजिक और राजनीतिक कामकाज में मदद करते थे. वो उनके अखबार और उनकी वकालत के काम में सहयोग करते थे. वो सामुदायिक कल्याण के काम के लिए समर्थन जुटाते थे. साधन होने पर वो उनकी सार्वजनिक और सामाजिक गतिविधियों के लिए आर्थिक मदद करते थे और वो उनके साथ जेल जाने के लिए भी तैयार रहते थे.
ये ‘सहायक’ चरित्र अपने आप में महत्वपूर्ण हस्तियां थीं. ये विद्वान और समर्पित लोग थे और इन्हीं के जरिए हम गांधी के व्यक्तित्व और ऐतिहासिक चरित्र को बेहतर तरीके से जानते हैं. हेनरी पोलक, थंबी नायडू, एएम केचेलिया, सोन्जाश्लेजिन और पारसी रुस्तमजी के साथ उनके रिश्तों के जरिए ही हम गांधी के राजनीतिक अभियान का सही मूल्यांकन कर सकते हैं. हरमन कालेनबाख के साथ उनके प्रयोगों की वजह से हमें टॉल्सटॉय और उनके अनुयायी लोगों के साथ उनके वाद-विवाद और आत्म-सुधार की उनकी कामना के बारे में पता चलता है. रायचंद भाई, जोसेफ डोक और सीएफ एंड्रयूज के साथ उनके वार्तालाप के जरिए हम यह समझ पाते हैं कि किस तरह गांधी ने धार्मिक बहुलता को लेकर अपनी समझदारी विकसित की. प्राणजीवन मेहता के साथ उनकी दोस्ती और पत्रचार के जरिए हम उनके खुदकी मातृभूमि के लिए उनके बड़े लक्ष्यों को समझ पाते हैं. कस्तूरबा, हरिलाल और मणिलाल के साथ उनके रिश्तों के जरिए हम उस गांधी को बेहतर तरीके से समझ पाते हैं, जिसकी पारिवारिक संबंधों में असफलता उसके सामाजिक और आध्यात्मिकसफलता के साथ-साथ खड़ी दिखती है.
विरोधियों की भी अहम भूमिका
जैसा कि साफ दिखता है, हम गांधी को उनके दक्षिण अफ्रीका में उनके विरोधियों के जरिए भी बेहतर तरीके से जान पाते हैं. संकीर्ण सोच वाले मोंटफोर्ड चेमनी, अहंकारी जनरल स्मट्स, ईस्ट रैंड के उन्मादी सदस्य और नटाल के उन्मादी श्वेत लोगों ने गांधी की दुनिया और दुनिया के बारे में उनकी सोच को आकार दिया था. इसमें उग्र पठानों और डरबन के ईर्ष्यालु संपादक पीएस अय्यर का भी योगदान था.
दोस्तों और प्रशंसकों की ही तरह आलोचकों और शत्रुओं ने 1893 में डरबन में आने वाले एक गंभीर और निष्कपट वकील को सन 1914 में उसके केपटाउन से भारत लौटते वक्त तक एक तीक्ष्ण, चतुर और जागरूक चिंतक आंदोलनकारी में तब्दील कर दिया था. उनके इन विरोधियों में दो सबसे ताकतवर लोग थे दक्षिण अफ्रीका में साम्राज्य के एक प्रशासक (प्रो-काउंसल) अल्फ्रेड मिलनर और विद्वान और योद्धा यान क्रिश्चियन स्मट्स. इतिहास ने गांधी को स्मट्स से कहीं ऊंचा और मिलनर से तो काफी ऊंचादर्जा प्रदान कर दिया है. लेकिन दक्षिण अफ्रीका में गांधी के बिताए दिनों में ये दोनों उनके मुकाबले कहीं महत्वपूर्ण हस्तियां थीं. हैसियत की इसी असमानता की वजह ये दोनों गांधी की मामूली मांगों को भी उपेक्षा और अपमान की निगाह से देखते थे.
अगर इनमें से कोई भी थोड़ा नरम होता और भारतीय दृष्टिकोण की परवाह करता तो फिर कौन जानता है कि गांधी को लेकर इतिहास का फैसला क्या होता? यदि 1904 में मिलनर, ट्रांसवाल में भारतीय कारोबारियों के तत्कालीन अधिकारों को कानूनी दर्जा देने पर राजी हो जाता तो गांधी के मन में वतन-वापसी तक सविनय अवज्ञा का विचार दूर-दूर तक नहीं आता. यदि तीन साल बाद स्मट्स ने एशियाटिक एक्ट वापस ले लिया होता और करीब एक हजार भारतीयों के बोअर युद्ध पूर्व केअधिकारों पर राजी हो जाता तो वतन वापसी के बाद तक गांधी को कभी ये पता नहीं चल पाता कि वे अपने समर्थकों का मनोबल कब तक कायम रख सकते हैं!
साल 1903 में डेली टेलीग्राफ के जोहांसबर्ग संवाददाता ने लॉर्ड मिलनर के प्रतिबंध (उसने भारतीयों के रहने के लिए खास-खास 'लोकेशंस' तय कर दिए थे) के बारे में कहा कि ‘इससे उत्पन्न विवाद सिर्फ ट्रांसवाल तक सीमित नहीं रहेगा, बल्कि यह इंग्लैंड और भारत तक फैल जाएगा’. 1907 में नटाल मरकरी ने जनरल स्मट्स की जिद के बारे में लिखा कि यहां और भारत दोनों जगहों में इसके अनपेक्षित परिणाम होंगे.
दोनों ही बयान भविष्य को बतलाने वाले थे. यदि मिलनर या स्मट्स ने शुरुआत में ही गांधी के साथ समझौता कर लिया होता,तो उन्हें कभी भी सत्याग्रह की तकनीक विकसित करने का मौका नहीं मिलता, ना ही इस बात का विश्वास जगता कि यह भारत जैसे वृहद और विभाजित देश में भी काम कर सकता है. इस मामले में ब्रिटिश साम्राज्यवादियों और बोअर नस्लवादियों ने गांधी को दक्षिण अफ्रीका में और बाद में उनकी मातृभूमि में भी एक जननेता के तौर पर उभरने का भरपूर मौका दे दिया.
सपाट वक्ता थे गांधी
दक्षिण अफ्रीका में ही गांधी ने एक लेखक और संपादक के तौर पर महारत हासिल की. उनकी शुरुआत हुई थी इंग्लैंड में, जहां उनके सहयोगियों ने उन्हें एक पत्रिकानिकालने की खुली छूट दी थी. नटाल में अपने शुरुआती दिनों में, उन्होंने अखबारों को चिट्ठियां और सरकार को ढेर सारे आवेदन लिखे. सन 1903 में उन्होंने अपना पत्र शुरू कर दिया. इसका उद्देश्य दस्तावेजी और राजनीतिक था. यह पत्रिका गांधी के हितों को आगे बढ़ाने के लिए नहीं बल्कि नटाल और ट्रांसवाल में भारतीयों के हितों के लिए निकाली गई थी. गांधी ने इसके लिए गुजराती और अंग्रेजी में कई लेख लिखे. वो हफ्ते दर हफ्ते इसकी छपाई पर नजर रखते और इसके लिए पैसे जुटाने की मुख्य जिम्मेदारी भी उन्हीं की थी. एक लेखक और संपादक के तौर पर गांधी की कुशलता लाजवाब थी. लेकिन जहां तक भाषण देने की बात है तो वह एक बहुत खराब नहीं तो एक सपाट वक्ता जरूर थे.
उनके मित्र और प्रशंसक जोसेफ डोक ने लिखा कि ‘जोहांसबर्ग में ही कई ऐसे भारतीय थे जो वक्ता के तौर पर गांधी से कहीं बेहतर, स्वाभाविक और अप्रभावित थी’. गांधी धीमे स्वर में बोलते थे और उनका भाषण नीरस होता था. डोक ने लिखा कि भाषण देते समय वे कभी भी हाव भाव का प्रदर्शन या हाथ नहीं लहराते थे और ‘कभी-कभी ही अपनी उंगलियां हिलाते थे’. लेकिन इसके बावजूद भारतीय उन्हें ध्यान से सुनते थे क्योंकि भले ही बोलने का तरीका नीरस हो, उनके शब्दों में दृढ़ता होती थी. गांधी ने अपने लेख और भाषणों से उतने समर्पित कार्यकर्ता नहीं तैयार किए, जितने अपनी जीवनशैली और व्यवहार से किए. उनका संयम, उनका परिश्रम, उनका साहस अलग-अलग पृष्ठभूमि के लोगों को आकर्षित करने के लिए काफी था. चाहे वो मुस्लिम हों या यहूदी, ईसाई हों या तमिल, व्यापारी हों या फेरीवाले और पुजारी हों या बंधुआ मजदूर. अलग-अलग पृष्ठभूमि के लोगों को प्रभावित कर उन्होंने एक नैतिक और फिर राजनीतिक समुदाय तैयार कर लिया, जिसके सदस्य उनके नेतृत्व और दिशा-निर्देशों के तहत गरीबी भरा जीवन जीने और जेल जाने के लिए सहर्ष प्रस्तुत रहते थे.
गांधी के प्रति उनके दोस्तों की प्रतिबद्धता सचमुच आश्चर्यजनक थी. एलडब्ल्यू रिच के लिए वो हमेशा ही ‘बड़े सरदार’ थे. पोलक ने गांधी के प्रति सम्मान की वजह से अपनी पत्नी और बच्चों से दूर होकर महीनों एक अनजान जगह में उनके साथ यात्र करना पसंद किया था. थांबी नायडू बार-बार गिरफ्तारी देने और गांधी की जिंदगी बचाने के लिए अपनी जिंदगी को दांव पर लगाने में भी खुशी महसूस करते थे. पीके नायडू जब भी कैद से बाहर आते, वो सबसे पहले गांधी से मिलना पसंद करते थे. ऊर्जावान सोन्जा श्लेजिन सारा दिन गांधी के दफ्तर में काम करती थीं और इसके बाद भी तमिल महिलाओं की मदद करने और उनके पतियों को जेल में खाना पहुंचाने के लिए समय और ऊर्जा निकाल लेती थीं और हरमन कालेनबाख की निष्ठा तो इन सबसे बढ़कर थी.
साभार- पेंगुइन बुक्स इंडिया