कुछ लोगों का होता है कि वो बस काम को शुरू करते हैं और वो अपने आप अंजाम तक पहुंच जाता है. मानो कोई जादू हो. ऐसा ही कहते हैं पीयूष मिश्रा अपने बारे में 'मैंने पहली बार हारमोनियम छुआ और वो बज गया.' और तबसे उनका हारमोनियम बजता जा रहा है. कभी दुनिया को ठुकराता है तो कभी दूर देस के टावर में एरोप्लेन घुसवाता है. पीयूष मिश्रा उन लोगों की जमात में शामिल हैं जो अपने शब्दों की गहराइयों में खींचकर किसी को डुबो सकते हैं. और फिर जो आदमी उभर कर निकलता है वो कोई और ही हुआ फिरता है.
दरअसल पीयूष मिश्रा 12 नवंबर को 'साहित्य आज तक' के मंच पर नजर आएंगे. 12-13 नवंबर को दिल्ली में हो रहा है साहित्य आज तक. पीयूष मिश्रा से उनके बचपन से अब तक के सफर को लेकर फ़ोन पर बातचीत हुई. बातचीत के अंश नीचे पढ़ें:-
सवाल- आपका साहित्य से पहला मुकाबला कब हुआ?
पीयूष- बचपन से मेरा साहित्य का साथ रहा. बचपन से ही हिंदी साहित्य पढ़ने का बहुत शौक था. मेरे पिता जी की बदौलत. बचपन से नन्दन, पराग और ऐसी तमाम किताबें पढ़ता था. जैसे चंदा मामा. इन्हीं किताबों ने मेरा साहित्य से परिचय करवाया था. इन्हीं किताबों से मैं साहित्य से जुड़ा. फिर न जाने कब मैंने पहली पोएट्री लिख दी. उस वक़्त मैं आठवीं क्लास में था. वो आज पढ़ता हूं तो लगता है अच्छी लिखी थी.
वो पोएट्री याद है?
ज़िन्दा हो हां तुम कोई शक नहीं
सांस लेते हुए देखा मैंने भी है
हाथ और पैरों और जिस्म को हरकतें
खूब देते हुए देखा मैंने भी है.
अब भले ही ये करते हुए होंठ तुम
दर्द सहते हुए सख्त सी लेते हो
अब है इतना भी कम क्या तुम्हारे लिए
खूब अपनी समझ में तो जी लेते हो.
इसे मैंने अपने साथियों को पढ़ाया. मुझसे वो उम्र में बड़े थे. उनकी अपनी समझ थी. उन्होंने कहा कि हां अच्छा है अच्छा है. लेकिन आज की तारीख में इतनी मान्यता मिलती है इस पोएम को तो अब मुझे लगता है कि वाकई अच्छा लिखा था.
सवाल- जिस तरह से लिटरेचर इवॉल्व कर रहा है, अभी आपको फिल्मों में कितना साहित्य मिलता है?
पीयूष- कहीं नहीं चल रहा है. साहित्य कहीं नहीं है.
सवाल- फिल्मों से सब गायब हो चुका है?
पीयूष- बिल्कुल सब गायब है, पहले फिल्मों में उर्दू शायरी ज़िन्दा थी. ये तमाम बेहतर से बेहतर किताबों पर फिल्में बंटी थीं. रे साहब ने क्या कमाल फिल्में बनाई थीं. बेहतरीन स्क्रिप्ट साहित्य के ज़रिये आई थीं. बंदिनी वगैरह ये सब थीं. इस वक़्त तो बिलकुल ही गायब हो गया है. आज कल तो साहित्य से प्रेरित कोई सिनेमा नहीं बन रहा है. ये जो बायोपिक्स आज कल बन रही हैं, इन्हें थोड़ी न तुम साहित्य से जुड़ी फ़िल्में कहोगे. सिनेमा अपने आप में बहुत बड़ा साहित्य है यार. सिनेमा कोस साहित्य से मत जोड़ो. सिनेमा में अपने आप बहुत बड़ा साहित्य है.
राजू हीरानी की सारी फिल्में जो हैं वो मास्टरपीसेज़ हैं. विशाल भाई की तीन फिल्में मक़बूल, हैदर और ओमकारा में साहित्य की झलक है. हिंदी साहित्य से प्रेरित फिल्में नहीं हैं. लेकिन वहां जो लिखा जा रहा है वो अपने आप में साहित्य है. ये सिनेमा साहित्य है. राजू हीरानी की सारी पिक्चरें लगे रहो मुन्नाभाई, मुन्नाभाई एमबीबीएस और थ्री इडियट्स ये सभी सिनेमा की मास्टरपीसेज हैं. ये स्क्रिप्ट्स अगर लोगों को पढ़ाई जायेंगी तो फिर कितना भला हो जाएगा दुनिया का. ये अपने आप में एक साहित्य है.
खोसला का घोसला अपने आप में एक साहित्य है. ब्लैक फ्राइडे अपने आप में एक खांचा है. गैंग्स ऑफ़ वासेपुर अपने आप में एक साहित्य है. तो ये सिनेमा का अपना अलग ही मज़ा है. सिनेमा को स्टोरी से और माहौल से जोड़कर नहीं देखना चाहिए. क्यूंकि वो स्टोरी सिनेमा में तब्दील होते होते बहुत सारे पायदान क्रॉस कर जाती है. तीसरी कसम की बात लो. डेढ़ पन्ने की स्टोरी है मारे गए गुलफ़ाम. वो पिक्चर में कितनी बढ़िया तरह से ट्रांसफॉर्म हुई है.
सवाल- आप हमेशा से लिखते रहे हैं. मगर आपके लिए अब चीज़ें बदल गई हैं. इस बदलाव के बाद आपके पढ़ने और लिखने पर कितना फ़र्क पढ़ा है?
पीयूष- अब पहले के मुकाबले बहुत कम पढ़ता हूं. आज कल तो पढ़ाई बहुत कम हो गयी है. इसका मुझे अफ़सोस है. मै लिख लेता हूं. लेकिन जबसे मैं संतुलित हुआ हूं तबसे मेरी हर चीज में थोड़ी सी कमी आई है. जब मैं बिल्कुल ही पागल था तब बहुत करता था. जबकि ये उल्टा होना चाहिए था. जब आप संतुलित होते हैं तो ज़्यादा चीज़ें करनी चाहिए. लेकिन हम आर्टिस्ट्स का ये दुर्भाग्य है कि ज़िन्दगी असंतुलित थी, जब ज़िन्दगी संभाले नहीं संभल रही थी, उस वक़्त मैंने बहुत बहुत लिखा, क्या ऐक्टिंग करी. बहुत ज़्यादा किया. आज कल थोड़ा कम होता है संतुलन की वजह से. जिसको मैं ग़लत मानता हूं. आज कल जो है मतलब, लिखने से, आर्ट से बेहतर चीज़ें आ गयी हैं. आज कल किसी अल्कॉहॉलिक की मदद कर देता हूं. अगर कोई अल्कॉहॉलिक मेरी वजह से सुधर जाए तो मैं उसे अपने सारे आर्ट से बड़ा अचीवमेंट मानता हूं. आज कल प्रायोरिटी बदल गयी हैं.
सवाल- एक चीज़ जिसने साहित्य में सबसे ज़्यादा इंस्पायर किया?
पीयूष- ऐसा नहीं हो सकता. मैं किसी एक चीज़ से इंस्पायर नहीं हो सकता. ऐसा नहीं हो सकता. बल्कि मैं तो ये कहता हूं कि बेसिकली कोई कसी से इंस्पायर्ड नहीं होता. ये सब बकवास बातें हैं. कि मैं इससे इंस्पायर्ड हूं उससे इंस्पायर्ड हूं. इंस्पिरेशन आपके अन्दर से आती है. जब आपको लगता है कि क्रियेट करना, लिखना ऐक्टिंग करना आपकी ज़रूरत है, आप उसके बिना रह नहीं सकते वरना आपकी सांस घुट जाएगी. तब आप अपने आप उगल देते हैं. ये इंस्पिरेशन वगैरह सब बकवास है. सब अच्छे लगे मुझे. सब अच्छे थे. प्रेमचंद से लेकर टैगोर से लेकर शेक्सपियर से लेकर सब जितने आपके मॉडर्न शायर हैं. इकबाल साहब ने बहुत इंस्पायर किया. साहिर साहब बहुत अच्छा लिखते थे. मजरूह साहब ने तो बहुत इंस्पायर किया. लेकिन मैं ये नहीं कह सकता कि इनसे इंस्पिरेशन लेकर मेरी पोएट्री बनी.
बॉब डिलन को मैंने तब सुना था जब मैं बहुत सारा लिख चुका था. मुझे अंग्रेजी गाने समझ नहीं आया करते थे. तो मैंने उसको तब सुना जब मैं बहुत लिख चुका था ऑलरेडी. जब मैंने देखा उसको तो लोगों ने बतलाया कि तुम तो काफी इंस्पायर्ड हो उससे. मतलब आपका कंटेंट काफी मिलता है. लेकिन मैंने बतलाया कि इसलिए मैं डिलन का नाम लेता नहीं हूं. मैंने बहुत लेट पढ़ा मैंने उसे. सुना मैंने उसे. ये इत्तेफ़ाक था कि दो मानसिकताएं मिल गयी थीं. इत्तेफ़ाक से मैं भी उसी तर्ज पर गाने लगा था और लिखने लगा था. एक शायद ये थे कि वो भी लिखते थे, मैं भी लिखता था. वो भी कम्पोज़ करते थे, मैं भी करता था. वो भी गाते थे, मैं भी गाता था. तो शायद ये भी था. शायद ये मिल गयी हो. वरना मैं कभी किसी से नहीं इंस्पायर हुआ.
इंटरव्यू साभार: www.thelallantop.com