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जब एक्टर बनने का सपना बताया, तो स्कूल में मिली सजा: दिव्या

साहित्य आज तक 2018 के अहम सत्र 'मेरी मां' में एक्ट्रेस दिव्या दत्ता ने शिरकत की. उन्होंने बताया कि किस तरह उनके एक्टर बनने के सपने में उनकी मां ने उनका साथ दिया.

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साहित्य आज तक में दिव्या दत्ता
साहित्य आज तक में दिव्या दत्ता

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साहित्य आज तक 2018 के अहम सत्र 'मेरी मां' में एक्ट्रेस दिव्या दत्ता ने शिरकत की. उन्होंने बताया कि किस तरह उनके एक्टर बनने के सपने में उनकी मां ने उनका साथ दिया. उनका बाकी परिवार उनके इस सपने के खिलाफ था.

साहित्य आज तक के मंच पर दिव्या दत्ता ने कहा- मैं अमिताभ बच्चन की फैन थी और मैं बच्चों को बुलाकर पार्टी देती थी और उनके सामने डांस करके उन्हें तालियां बजाने के लिए कहती थी. वहीं स्कूल में जब मैंने एक्टर बनने का सपना जाहिर किया तो तो मुझे प्रिंसिपल के पास ले जाया गया, जिन्होंने मुझे सजा दी. इसके 10 साल बाद जब मैं एक्ट्रेस बन गई, उन्होंने मुझे अपने स्टूडेंट से मिलवाया, कि ये मेरी स्टूडेंट रही हैं. मेरी तारीफ की. आपको जो लगता है और जो आप करना चाहते हैं, तो उस ख्वाब को जरूर पूरा करना चाहिए. कोशिश जरूर करनी चाहिए.

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अपनी दिल्ली से जुड़ी यादों के बारे में बताते हुए कहा दिव्या ने कहा- मैं पहले क्नॉट प्लेस और करोल बाग बहुत जाती थी. मुझे जनपथ में शॉपिंग करना अच्छा लगता था. एक बार एक्टर बनने के बाद भी मैं चेहरा ढककर जनपथ गई, जहां मैंने शॉपिंग की और बार्गेनिंग भी की. हालांकि एक दुकानदार ने मुझे पहचान लिया था. साथ ही मुझे चाट बहुत पसंद है. मेरे दिल में लुधियाना और दिल्ली दोनों के लिए जगह है.

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'मां ने एक्टर बनने में दिया साथ'

दिव्या ने बताया, 'मेरे परिवार में सब डॉक्टर थे तो उन्होंने मुझसे पूछा था कि तुम्हें क्या करना है? उसके बाद जब मैंने एक्टर बनने के बारे में बताया तो उन्होंने मेरा साथ दिया और हम दोनों मुंबई गए. एक बार मेरे लिए अमेरिका के एक डॉक्टर से शादी का रिश्ता आया था, उस वक्त पूरा परिवार एक तरफ था और मेरी मां ने मेरे एक्टर बनने का समर्थन किया.'

एक महीने में ल‍िखी पूरी किताब

दिव्या ने कहा- जब मेरी मां ने मुझे भरोसा दिया कि मैं हूं. मैं आपमें और आपके सपनों में भरोसा करती हूं. इस तरह मुझे एक आत्मविश्वास मिला कि मेरे पीछे कोई है. मुझे लगा कि इस रिश्ते को सेलिब्रेट करना चाहिए. मैंने तय किया कि मैं मां पर एक किताब लिखूंगी. इसका नाम होगा मी एंड मां. पेंगुइन इसे छापेगा. उन्होंने कहा कि ठीक है, आप छह महीने में इस किताब को लिख दीजिए. तो पांच महीने तो मैं डिप्रेशन में थी, रोती रही. इसके बाद मैंने मां से कहा कि इसे तो लिखना पड़ेगा. हाथ थामो. फिर पता नहीं कैसे मैंने ये किताब एक महीने में पूरी लिख दी. मेरे एडिटर ने इसे कुछ खास एडिट नहीं किया. मैं चाहती थी शबाना जी इसका फॉरवर्ड लिखें, क्योंकि वे अपनी मां के बहुत करीब हैं. उन्होंने लिखा. चाहती थी कि अमिताभ बच्चन जी इसका विमोचन करें तो उन्होंने किया. मैं इसके लिए जिन लोगों को चाहती थी, वो मुझे मिले.

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अब जब मैं एयरपोर्ट पर जाती हूं, तो लोग मेरे पास आते हैं और कहते हैं- हमने आपकी किताब पढ़ी है. बहुत खुशी मिलती है. किताब लिखने के बाद मैं अपनी मां से लिपटकर रोई. मुझे लगा कि मेरा किताब लिखना सफल रहा.

दिव्या ने कहा जब मेरी मां हॉस्प‍िटल में थी तो मुझे लगता था कि ये एक फिल्म का सीन है, जिसे जल्दी से खत्म हो जाना चाहिए. मां के जाने के बाद मैं दो सालों तक इस सच को स्वीकार नहीं कर पाई. वे मेरे लिए बैक बोन थीं. बाहर मां को खोजने के बजाय मैंने उन्हें अपने अंदर बसा लिया है.

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