विकी डोनर, पीकू और अक्टूबर जैसी अलग तरह की फ़िल्में लिखकर चर्चा में आई लेखिका जूही चतुर्वेदी ने साहित्य आज तक के मंच पर पहली बार बताया कि एक लेखक न होते हुए भी उन्होंने कैसे कई चर्चित फिल्मों की कहानियां लिखीं. 'आओ फिल्म लिखे' सेशन में सईद अंसारी के साथ बातचीत के दौरान जूही ने कहा, "मैंने कभी लेखिका बनने के बारे में नहीं सोचा था. मैं नौकरी करते लखनऊ से दिल्ली पहुंची और फिर मुंबई आई. मुझे यूं ही फिल्मों के लेखन का काम मिल गया."
जूही ने कहा, "लखनऊ में थी तो मैं आर्ट्स कॉलेज में जाती थी. तब इतना था कि टाइम्स ऑफ़ इंडिया के लिए इलेस्ट्रेशन किया करती थी. कुछ ख्याल आते थे, लिख देती थी. कभी फिल्म लेखन के बारे में सोचा ही नहीं था."
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"लखनऊ में कभी-कभार साल में दो-चार बार जाकर फ़िल्में देख लीं. दोस्तों के साथ फिल्म देखने की कोई बात ही नहीं थी. फिल्मों से मेरा रिश्ता नहीं था. मेरे दादा अच्छी बातें करते थे घर में. वो कानों में पड़ती रहती थीं उस तरह की बातें. कहीं न कहीं वो कान में जा रहा था."
"बहुत सारे लोग यहां होंगे जो लखनऊ, रायबरेली जैसी जगहों से होंगे. हमारे आस-पास ऐसे लोग हैं जिनके साथ हमारा बहुत ख़ूबसूरत रिश्ता है. शायद शादी से बचने और नौकरी के बहाने दिल्ली आ गई. फिल्मों से कोई रिश्ता नहीं था. एड लिखते-लिखते बॉम्बे शिफ्ट हो गई. शुजीत सरकार ने जब मुझे अपनी फिल्मों के लिए संवाद लिखने को बोला. मैंने एड के लिए उनके साथ काफी काम किया था. उन्हें मुझ पर भरोसा था कि मैं लिख पाऊंगी."
"चाहे एड हो या फिल्म हो, ये सब निर्भर करता है कि आपके पास कहने के लिए लिए कुछ है. क्या आप वो भाव उतार सकते हैं. क्या आप भावनात्मक इंसान हैं या नहीं. क्या वो चीजें आपको अंदर तक छूती हैं या नहीं. लेखक बनने का सोचा नहीं था, पर मेरे पास शब्द थे, विचार था, कहानियां थीं. कभी नौकरी के दौरान प्रसून जोशी (गीतकार और सेंसर बोर्ड के चीफ) मेरे बॉस थे. वो मुझे कहते थे कि लिखो. दिल्ली ने मुझ पर असर किया तो विकी डोनर निकली. जब मैंने इस आइडिया को सोचा था, तब एक लेखक नहीं थी मैं. बस मैंने सोचा था, जिसे बाद में लिखा."
"आइडिया कोई बला या अजूबा नहीं है. ये रोजमर्रा की जिंदगी से जुड़ी है. कोई ऐसी चीज जिसमें इसमें गहरी बात है. वो बात जो शायद बहुत सारे लोगों पर लागू होती है, पर जिसे नजरअंदाज कर देते हैं."
"विकी डोनर की कहानी को लेकर मेरे दिमाग में बहुत ज्यादा थॉट थे. जब मैंने इसे सुनाया तो कहने को शब्द ज्यादा नहीं थे. मैंने सुनाया कि एक आदमी है जो दुनियाभर में स्पर्म डोनेट करता है, लेकिन उसके खुद के बच्चे नहीं हो पाते. मैंने इतना ही सुनाया, लेकिन दिमाग में बहुत कुछ था. जब मैंने उस आइडिया पर काम किया विकी डोनर की कहानी बनी."
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"मैंने पीकू और विकी डोनर से पहले ऐसा कोई बड़ा काम नहीं किया था. मेरा कोई पिछला काम नहीं था, इसलिए हिम्मत पूरी थी. मैंने किसी को बताया भी नहीं था कि मैं फिल्म लिख रही हूं. मैं यही सोचती हूं कि जब विमल रॉय ने दो बीघा जमीन बनाई या सत्यजीत रॉय और तमाम निर्देशकों ने ऐसी फ़िल्में बना दी, तो मैं सोचती हूं कि मुझसे पहले कई साहसी लोग हो चुके हैं."
"उनको गुरु मानकर कमरे में बैठकर अकेले डरते-डरते लिख लिया. इसमें लगे रहना हिम्मत का काम है. कई बार लगता है कि इसके अलावा मुझे कुछ भी नहीं आता." जूही चतुर्वेदी ने कहा, "मैं राइटर बनाने के लिए राइटर बनी ही नहीं थी. मेरे लिए एक्सटेंशन है मेरे अपने व्यक्तित्व का. जो सोच है कहानी है, उसे कितना आसान रखा जाए ये सबसे ज्यादा जरूरी है."
"राइटिंग और आइडिया फ़ोर्स नहीं की जा सकती. अगर किसी आइडिया में गहराई है तो वो आपको छोड़ेगी ही नहीं. वो आपको सोने नहीं देगी. लेखक और आइडिया के बीच जो रिलेशनशिप है वो बहुत गहरी है."