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साहित्य आज तक: मैत्रेयी पुष्पा बोलीं- रॉयल्टी इतनी आती है कि हिंदी के पाठक कम नहीं लगते

मैत्रेयी पुष्पा. हिन्दी साहित्यिक जगत का एक ऐसा नाम जिसने अपनी लेखनी के माध्यम से खेतों-खलिहानों में काम करने वाली ग्रामीण महिलाओं को नायिका के रूप में स्थापित करने का काम किया. उनसे साहित्य आज तक के मंच पर मिलें...

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Maitreyi Pushpa
Maitreyi Pushpa

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मैत्रेयी पुष्पा. एक ऐसा नाम जो हिंदी साहित्य में अपनी ही धुन में बहता चला जाता है. हिंदी की एकमात्र लेखिका जिन्होंने गांव के ही परिवेश को अपनी कल्पना में शामिल किया. पर ये कल्पना नहीं, हकीकत थी. और ये गांव का परिवेश किसी रोमैन्टिसाइज़्ड गांव का नहीं था. ये क्रूर सामंतवादी व्यवस्था का गांव था जिसमें औरत सबसे नीचे के पायदान पर आती है. मैत्रेयी 72 साल की हैं. इनका जन्मदिन भी आने वाला है. हिंदी अकादमी दिल्ली की उपाध्यक्ष हैं. 12 उपन्यास लिख चुकी हैं. सैंकड़ों कहानियां. साहित्य आज तक में आ रही हैं 13 नवंबर को. पर उससे पहले हमनें बात की उनसे:

1. मैत्रेयी जी, आप को कब ऐसा लगा कि आप कहानियां लिख सकती हैं? कोई विशेष चीज जो आपको खींच लाई इस तरफ?
मैं बचपन से ही काफी पढ़ती थी. कवितायें लिखती थी. पर मैं किसी को भेजती नहीं थी. मुझे अपनी कविताओं को किसी को भेजना नहीं था. क्योंकि मुझे संतुष्टि नहीं होती थी. वो गहराई नहीं आ पाती थी. मुझे लगता था कि मैं जो कह सकती हूं, वो कह नहीं पा रही. तो मैं कहानी उपन्यास लिखना शुरू कर दिया.
मुझे उस वक्त नहीं पता था कि मेरी लिखी हुई चीजें लोग इतना पसंद करेंगे. मैंने कभी सोचा भी नहीं था. सोचती भी नहीं थी. पर सब होते गया. मैं अपने लिखे हुए से संतुष्ट हूं.

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2. आपने अपनी थीम ग्रामीण परिवेश कैसे चुनी? आप तो दिल्ली में रही हैं?
मैं गांव से ही आती हूं. मेरी कस्बाई पढ़ाई हुई है. बुंदेलखंड से एमए किया है. मैंने गांव को ज्यादा महसूस किया है. जब मैं दिल्ली आई तो मैंने पाया कि गांवों की औरतें ज्यादा मजबूत होती हैं. क्योंकि उनके पास सुविधाएं कम होती हैं. पर वो जीने का तरीका निकाल लेती हैं दिक्कतों के बीच. शहरों में को किसी को किसी से मतलब नहीं होता. पर गांवों में तो आप कोई भी बात छुपा नहीं सकते. ऐसे में सारी दिक्कतों के बीच वो औरतें कैसे रहती हैं, ये तारीफ के काबिल है. मैं दिल्ली में रहने लगी, पर मैं गांव को कभी भुला नहीं पाई. वही खेत-खलिहानों में औरतों की मेहनत मेरा स्त्री-विमर्श बन गया. पुरूषों की कलम से तो बहुत आया था औरतों के नाम पर. पर किसी औरत ने नहीं लिखा था. राजेंद्र यादव ने भी कहा था कि मैत्रेयी ने नायिकाओं को खेत-खलिहानों में पहुंचा दिया है. मैंने औरतों के बारे में अपने विषय बदल-बदल कर लिखा. हर पहलू को खोजने की कोशिश की.

3. 2016 में आप साहित्य को कहां देखती हैं इतने अनुभव के बाद?
मैं पढ़ती हूं नये लोगों को. पर मैं साफ-साफ कह रही हूं. मुझे वो गहराई नहीं मिलती है आज के लेखन में. क्योंकि साहित्य सूचना नहीं है. फिर आज के लोगों को आलोचना बर्दाश्त नहीं होती. बस छप जाना चाहिेए किसी तरह. नये राइटर लोग पढ़ते भी नहीं, ऐसा लगता है. क्योंकि जब तक पढ़ेंगे नहीं, लिखेंगे कैसे. मैं हर उपन्यास लिखने से पहले 10-12 उपन्यास पढ़ती थी. कलम चलाना सबके वश की बात नहीं होती. आजकल ममता कालिया की तरह की रचनाएं नहीं आतीं. मैं अपना नाम नहीं ले सकती. पर कुछ साल पहले तक बहुत अच्छी रचनाएं आती थीं.

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4. मैत्रेयी जी, आप को क्या लगता है कि अब हिंदी के पाठकों की संख्या कम हो गई है?
अगर मैं अपने अनुभव से कहूं तो मेरी रॉयल्टी इतनी आ जाती है कि लगता नहीं कि पाठक कम हुये हैं हिंदी के. हां, ये है कि पाठकों की संख्या लेखकों के हिसाब से बदलती है. अगर लेखक बहुत ऊपर की चीज लिखता है तो उसे उसकी तरह के पाठक मिलेंगे. अगर लेखक जनता के लिए लिखता है तो उसकी तरह के पाठक मिलेंगे. प्रेमचंद जनता वाले लेखक थे. लोग मुझे भी इसी श्रेणी का लेखक मानते हैं. जैसा लेखक होता है, वैसे ही उसके पाठक होते हैं. मैंने तो दूधनाथ सिंह और सुरेंद्र वर्मा वाली लेखनी को भी देखा है. मुझे चांद चाहिए की समीक्षा भी की थी. तो मुझे यही लगता है कि लेखक को पाठक चुन लेता है.

टीवी-इंटरनेट के जमाने में लोगों के पास सूचनाएं तो बहुत आ जाती हैं. पर अगर आप रीडरशिप देखें तो ये पता चलता है कि लोग अच्छा साहित्य पसंद करते ही हैं.

आप उन्हें 13 नवंबर (रविवार) को मुख्य लॉन (स्टेज 1) में सुन सकते हैं. विषय होगा साहित्य, संस्कृति और समाज. वेन्यू- दिल्ली में स्थित इंदिरा गांधी नेशनल सेंटर फॉर द आर्ट्स.

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इंटरव्यू साभार: www.thelallantop.com

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