शायर राहत इंदौरी इस बार साहित्य आजतक का एक खास चेहरा हैं जिनसे इस किताब के बहाने गुफ्तगू करेंगे उनके जीवनी लेखक दीपक रूहानी. वे पहले भी साहित्य आजतक में आ चुके हैं और इस बार उनकी पहली बार छप रही आधिकारिक जीवनी का लोकार्पण भी साहित्य आजतक 2019 के मंच पर होगा. इस संग्रह पर चर्चित आलोचक डॉ ओम निश्चल ने यह समीक्षा खासतौर से साहित्य आजतक के लिए लिखी है.
एक वक्त मंचों महफिलों कवि सम्मेलनों में नीरज जैसे कवि अपरिहार्य हुआ करते थे. मानों वे नहीं है तो फिर क्या कवि सम्मेलन क्या मुशायरा. आज यही बात राहत इंदौरी को लेकर की जाती है. देश दुनिया के मुशायरों कवि सम्मेलनों में जान भर देने वाले राहत की शायरी और उनका अंदाजेबयां आज भी ऐसा है जो उनके अन्य समकालीनों में नहीं हैं. उनके तमाम शेर इन्किलाबी नजरिये से इतने पापुलर हो चुके हैं कि राहत का नाम आते हैं वे शेर जुबान पर नुमायां हो उठते हैं. आज आत्मकथाओं, जीवनियों का दौर हैं पर इसमें भी सेलीब्रिटीज के नाम सबसे ऊपर होते हैं.
फिल्मी दुनिया के किरदार इस मायने में बाजी मार ले जाते हैं. पर शायर जो समय, समाज, जीवन को लेकर अपने अनुभव और संवेदना की स्याही से अशआर उकेरता है, उस पर रिव्यूज तो होते हैं पर उसकी जीवनियां बहुत कम लिखी जाती हैं. हिंदी के लेखकों में जिन लोगों पर ऐसा काम हुआ उनकी संख्या बहुत कम है. निराला पर निराला की साहित्य साधना तीन खंडों में लिखकर जो लकीर रामविलास शर्मा ने खींची वैसी मिसाल दूसरी कोई नहीं. बड़े बड़े लेखक हुए यशपाल, श्रीलाल शुक्ल, प्रसाद, पंत, महादेवी, अज्ञेय...पर जीवनी किसी की नहीं. ज्यादा से ज्यादा उन पर मोनोग्राफ आए होंगे. नीरज पर कोई ढंग की जीवनी नहीं आ सकी है. उन पर संपादित एक काफी टेबल बुक जरूर है जबकि गए सात दशकों तक मंच पर नीरज ने बादशाहत की है.
इस मायने में आधुनिक उर्दू शायरों में राहत इंदौरी खुशकिस्मत हैं कि हिंदी के संजीदा लेखक उर्दू शायरी के अध्येता डॉ दीपक रूहानी ने उनकी जीवनी लिखी है जिसका एक एक हर्फ राहत का पढ़ा हुआ है. इस जीवनी पर राहत का कहना है कि '' एक ऐसे गत्ते से काटे हुए बे-तरतीब टुकड़े, जो आधी सदी से गर्मी, सर्दी, बारिश, धूप-छांव जैसे अनाम और अनजान मौसमों से आंखें मिलाते-मिलाते बूढ़ा हो गया, या यूं कहिये कि इस किताब के ज़ियादातर काग़ज़ इतने भीग चुके हैं कि इस पर मौजूद तहरीर पर लगाने को तैयार है, लेकिन इस किताब के लेखक की ज़िद ने इसे तरतीबवार बनाने की मुकम्मल कोशिश की है. दिलचस्पी का हल्का सा दरीचा खोलने पर राहत इंदौरी की तस्वीर को पहचानना आसान हो जाता है.''
प्रतापगढ़ से इंदौर कोई सीधी ट्रेन नहीं जाती. जाना है तो इलाहाबाद से या लखनऊ से जाइये. उस पर भी टिकट की हर वक्त मारामारी. पर बिना इंदौर गए यह सब नामुमकिन था. दूसरे राहत किस वक्त कहां होंगे. यह पता नहीं. क्योंकि राहत की मांग देश विदेश हर जगह है. इधर दीपक के पास कोई ढंग की नौकरी भी नहीं सो पैसे की तंगी अलग पर इस सबके बावजूद दीपक रूहानी ने हौसला नहीं खोया. रेडग्रैब बुक्स के प्रकाशक दोस्त वीनस केसरी ने जब उनसे यह जीवनी लिखने की पेशकश की, तो दीपक के लिए यह बहुत ही अहम क्षण था.
वीनस खुद उर्दू गजलों में महारत रखते हैं तथा एक बेहतरीन किताब उर्दू की गजल के व्याकरण पर लिख कर अपनी सलाहियत का लोहा मनवा चुके हैं. इसमें मदद की वीनस के साझीदार शायर प्रकाशक पराग अग्रवाल ने, जो खुद इंदौर के ही रहने वाले हैं. पराग ने इंदौर में रूहानी की राहें आसान कीं. उनकी और रूहानी की जुगलबंदी ने इंदौर में राहत की सोहबत का जम कर लाभ उठाया तथा राहत के बेटों सतलज व फैजल इंदौरी ने भी इस अनुष्ठान में पूरी मदद की. लिख जाने पर राहत जी ने जगह- ब-जगह तथ्यों को दुरुस्त किया तथा इस तरह यह एक आधिकारिक जीवनी बन सकी, जैसी जीवनी और किसी समकालीन शायर की अभी तक नहीं आ सकी है. साहित्य आजतक 2019 के मंच पर इस जीवनी के लोकार्पण के लिए भी प्रकाशकों ने गंभीर प्रयास किया. किसी भी मंच पर राहत साहब की जीवनी का यह पहला लोकार्पण है.
जीवनीकार दीपक रूहानी
दीपक की पैदाइश अवध भदारीकलां,लालगंज की है जहां खांटी अवधी बोली जाती है. पर शुरु से ही दीपक को शायरी से लगाव था, लिहाजा उर्दू की तालीम भी हासिल की. शुरुआती दौर में कस्बे में उनका प्रज्ञादोहन बहुत हुआ, बहुतों के बौद्धिक किरदार को संवारने में यहां तक कि बहुतों की पीएचडी लिखवाने में उनका बहुत योगदान रहा पर ''पीछे चल कर आगे निकले जाने कितने लोग, हमें हुजूरी रास न आई लगा कलम का रोग''...की तर्ज पर वे रोजगार की तलाश में भटकते रहे. पर गरबीली गरीबी के इन दिनों में भी उन्हें अदब की दुनिया के बड़े ख्वाब आते.
लिहाजा उन्हें सूझी कि कोई पत्रिका शुरु की जाए तो 'ग़ज़लकार' के कुछ अंक निकाले. ग़ज़ल पर न केवल एक संजीदा मैगजीन बल्कि उर्दू शायरी की सलाहियत से भरी ऐसी पत्रिका शायद ही कोई और हो. उनकी दिलचस्पी उर्दू लिटरेचर के अनुवाद में भी रही. जब उन्होंने शमशुर्रहमान फारूकी की एक पुस्तक 'मीर की कविता और भारतीय सौंदर्यबोध' का बहुत चुनौतीपूर्ण अनुवाद भारतीय ज्ञानपीठ के लिए किया और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के पर्सियन विभाग के पूर्व विभागाध्यक्ष वारिस किरमानी की 'घूमती नदी' शीर्षक आत्मकथा का अनुवाद भी तो दीपक के कद का अहसास हुआ. अब जब दो साल पहले उठाया राहत साब की जीवनी काम पूरा होने को आया तो जैसे राहत साब की दुआएं भी फलीभूत हुईं और दीपक मधुबनी में असिस्टेंट प्रोफेसर बन चुके हैं और राहत साहब पर अपनी जीवनी से वे भी एक लेखक के बतौर खासा मकबूल हो रहे हैं.
राहत साहब की जीवनी लिखने का खयाल मन में कैसे आया, पूछने पर दीपक रूहानी ने कहा कि राहत साहब की शायरी से तो बहुत पहले से ताल्लुक था पर राहत साहब की जीवनी लिखने का ख़याल भाई पराग अग्रवाल ने सुझाया. उनका राहत साहब से पुराना सम्पर्क था. पराग इंदौर के पड़ोसी ज़िले धार के रहनेवाले हैं और राहत साहब के बहुत प्रसंशक हैं. मैं ख़्वाब में भी नहीं सोच सकता था कि राहत साहब मेरे जैसे आदमी को मिल सकते हैं और वो भी अपनी ज़िन्दगी की दास्तान बताने के लिए.
दो साल की अथक मेहनत के बाद पूरी राहत साहब की इस जीवनी के लिए उनके साथ दीपक की इंदौर में लगभग आठ या दस बार बैठक हुई और दो बार लखनऊ में. रिश्तेदारों से भी दो-तीन बार, कुछ दोस्तों से भी एकाधिक बार. रिश्तेदारों से मिलने देवास कई बार जाना पड़ा तो इनके एक बचपन के एक दोस्त से मिलने पुणे भी जाना पड़ा. अक्सर लोग किसी सिने सेलिब्रिटी पर लिखते हैं उसकी मकबूलियत के कारण इस लिहाज से एक शायर के रूप में ऐसी क्या खासियत उनमें लगीं कि वे इस जीवनी के केंद्रबिन्दु बने. दीपक कहते हैं, एक शायर के रूप में राहत साहब में एक-दो ख़ासियतें नहीं बल्कि बहुत सारी ख़ासियतें हैं, जिनका क्रमवार उल्लेख इस किताब में आया है. मुख्य ख़ासियतों में राहत साहब का व्यक्तिगत स्वभाव सर्वोपरि है. इसके अलावा उनकी लोकतांत्रिक प्रतिबद्धता, राजनीतिक जागरूकता, भाषाई चेतना, परम्परागत विषयों का रख-रखाव, शेर पेश करने का अंदाज़ और अपनी विचारधारा के प्रति ताउम्र निष्ठावान बने रहना भी उनकी कुछ अहम ख़ासियतें हैं.
मैं उनसे पूछता हूं लोग इंटरव्यूज में अपनी निजी जिन्दगी के पन्ने बहुत कम ही खोलते हैं, कैसे लगे राहत साब ऐसे निजी सवाल पर बोलते हुए. ''निजी जीवन के बहुत सारे सवालों का उन्होंने खुलकर जवाब दिया. कुछ भी छुपाने जैसा उनके स्वभाव में नहीं दिखा, बल्कि कई बातें मैंने उनसे जानने के बाद भी खुलकर नहीं लिख पाया, सच तो यह कि उन्होंने अपने किसी ऐब के बारे में कहीं कुछ नहीं छुपाया,'' दीपक ने मेरे सवाल का उत्तर देते हुए कहा. बायोग्राफी लिखते हुए ऐसी कोई बात जो मन को छू गयी हो, ऐसी कोई घटना जो यादगार बन गयी हो, दीपक बोले, '' बायोग्राफी लिखते समय कई बातें ऐसी सामने आयीं जो दिल को छू गयीं. कुछ बातें तो उनके रिश्तेदारों और दोस्तों की बतायी हुई थीं तो कुछ उनकी ख़ुद की बतायी हुई थीं. ख़ासकर वे बातें दिल को अधिक छू गयीं जो बचपन और जवानी में संघर्ष के दिनों की थीं. बचपन से ही वे कमाई में मुब्तिला हो गये और किस-किस तरह से संघर्ष करते हुए यहां तक पहुंचे, यह कहते हुए वे भावुक हो उठते थे.
इस जीवनी से पूरी तरह खुश हैं राहत
अक्सर लेखक अपने मूल्यांकन को लेकर आलोचकों से आश्वस्त नहीं रहते. लेखक को सबसे राहत की बात यही लगती है कि कोई उन्हें ठीक से समझे. आज जब पुस्तक सामने है, राहत साब के जीवन के आख्यान के सारे पन्ने खुले हैं तो जानने की जिज्ञासा होती है कि इसे पढ़ कर इस पर राहत साब की क्या राय होगी. राहत साब एक वीडियो में कहते हैं, '' मेरी शनाख्त और मेरी पहचान का जो मरहला है उसमें इस कदर बिखराव हैं कि मुझ तक पहुचंने में खुद मुझे भी कोई आधी सदी से ज्यादा गुजर गए पर बड़ी दुश्वारी आई. काफी दिनों से ख्वाहिश थी कि कोई ऐसा शख्स मिले कोई ऐसा तरीका हो जो मेरी पहचान लोगो तक पहुचानेमें और खुद मुझ तक पहुंचाने में मेरी मदद करे.
यह कार्य दुश्वार था मगर मेरी मुलाकात खुशनसीबी से एक ऐसे शख्स से हुई दीपक रूहानी कि जिसने मेरी रूह तक को छू कर मुझे पहचानने की कोशिश की और एक ऐसी किताब तरतीब दे दी जिसे हर वरक पर मुझे पढ़ कर ऐसा महसूस हुआ कि मैं तो अपनी शख्सयित या बनावट के इस पहलू से वाकिफ ही नहीं था. ये एक बड़ा कारनामा था. मैं इसके लिए उन्हें मुबारकवाद पेश करता हूं. मेरे खानदान के दर्जनों लोग ऐसे थे कि जिनसे मेरी मुलाकात तक नहीं हुई. उनसे मेरा तआरुफ दीपक ने इस किताब में करवाया और यह एक मेरी जिन्दगी का लगभग एक मुकम्मल दस्तावेज है और चाहता हूं कि इस किताब को लोग पढ कर मुझे पहचानें और मेरे बाद भी, मीर की तरह लखनऊ के सिटी स्टेशन की किसी पटरी के बीच में दबा हुआ न होऊं बल्कि लोग मुझे इस हवाले से भी जान सकें कि यहां वह जगह है जहां राहत साब दफ्न हैं.
''राहत साब ने इस किताब को पढ़ते हुए इसे पचास के दशक की एक ब्लैक व्हाइट फिल्म कहा है. बकौल राहत, ''मुझे इस बात का एतराफ़ है कि मैं उस तमाशे को भी दिखाने में कहीं-कहीं तक़ल्लुफ़ बरत गया हूं जो तमाशा मेरे आगे होता रहा है. ये किताब पचास-साठ के दशक की ब्लैक एंड व्हाइट फ़िल्म की तरह है जिसमें कोई पहचानी हुई सी तस्वीर कभी आवाज़ खो बैठती है और कभी चीख़ पड़ती है, मेरी ख़्वाहिश है कि लोग इस तस्वीर को पहचानें जिसे बनाने में उसकी कोई कोशिश नहीं जिसकी तस्वीर है...''
इस पुस्तक के बारे में राहत साहब फरमाते हैं कि ''इस पुस्तक में मेरी जिन्दगी, में मुशायरों का जो सफर है वह आधी सदी से कुछ ज्यादा है. और इन मुशायरों में जो वाकयात हुए, जो हादसात हुए जो बातें हुईं लोगों से हुई मुलाकातें हुईं इन्हें लिखा जाय या इन्हें किताबी शक्ल दी जाए तो मैं समझता हूं एक बड़ी दास्तान तेयार होगी. लेकिन दीपक ने इन बातों से गुरेज तो नहीं किया उन तमाम निजल बातों को लिया हे जिनके बगैर मेरा पोर्टेट तेयार नहीं हो सकता था. खुशी की बात यह है बहुत सी ऐसी चीजें जो मुझ तक ही नहीं पहुंचीं थी या पहुंची भी थीं तो मैं कई दफे भूल चुका था, वो इसमें शामिल हैं.
"मेरी बहुत पुरानी ख्वाहिश थी कि ऐसी कोई किताब आए और ये कितबा आज हमारे हाथो में है. ये एक तरीके का ऐसा तमाशा है जिसे मैं खुद देख भी नहीं पा रहा हूं और बयां भी नहीं कर पा रहा हूं लेकिन मेरे हवाले के साथ मेरे नाम के साथ, मेरे कुनबे के लोगों के साथ मेरे बच्चों के साथ, मेरे परिवार के साथ, मेरी शायरी के साथ, मेरे मिजाज के साथ मेरी लुगत के साथ, मेरी तस्वीर दुनिया तक पहुंच रही है, यह मेरे लिए फख्र और आदर की बात है. '' राहत साहब का अपनी ही जीवनी को पढ़ कर ये बातें कहना न केवल उनके जीवनीकार दीपक रूहानी के लिए एक ईनाम की तरह है बल्कि उनके करोड़ों चाहने वालों के लिए यह एक ऐसी जिन्दगी का सफरनामा है जो उनकी जाती जिन्दगी के ऐसे अनेक लमहों से रूबरू हो सकेंगे जिनसे होकर शायरी फूली फली और परवान चढ़ी है.
अब तक राहत साब में कितने मुशायरे पढ़े होंगे इसकी गिनती कर पाना भी मुश्किल है. जब मुशायरों में उनकी चरम लोकप्रियता को छूते हुए उनकी शायरी की खुशबू बालीवुड तक पहुंची तो फिल्मों में भी गीत लिखने की शुरुआत की. वहां उन्होंने नए तजुर्बात हासिल किए.
उनके जीवन की अनेक छोटी छोटी कहानियां यहां दीपक ने बयान की हैं. कोई मिलने आ जाए, इसके लिए उनका दरबार हमेशा खुला रहता है. एक बार की बात है वे मोरारी बापू के साथ लंदन में थे. बापू ने उनके कमरे में अलग से खाने पीने की चीजें भिजवा रखीं थीं. राहत साब आलस्य की वजह से अपने कमरे में ही मंगा कर कुछ खा लेते थे. वे रेस्टारेंट में जाकर कुछ खा सकें कि इससे पहले लंदन में रह रहे एक भोपाल के सज्जन उनसे मिलने आ गए. काफी समय उनसे गुफ्तगू में गुजर गया बिना खाए पिये. अंत में जब वे सज्जन चले गए और देर तक उनकी कोई खबर न हुई तो दरवाजा खुलवा कर देखा गया तो वे बेहोश मिले. राहत साहब को सुगर थी, जिसमें थोड़ेथोड़े समय पर खाते रहना जरूरी होता है. उस वक्त उनकी बीपी काफी लो थी. डाक्टरों की टीम ने किसी तरह उन्हें ठीक किया.
जब जौनपुर के एक छोटे से स्टेशन पर राहत ने अपने कपड़े धोए
आज मुशायरों में उनकी बादशाहत भले हो और साहित्य आजतक जैसे देश के सबसे शानदार साहित्यिक मंच पर हर साल उनकी उपस्थिति हो, पर शुरुआती दौर का एक किस्सा उन्होंने बयान किया है कि एक बार बनारस मुशायरेमें जाना था और लखनऊ से जौनपुर होते हुए बनारस जा रहे थे. कपड़ा वही था जिसे पहना था और वह गंदा हो चुका था. दूसरा था नहीं सो जौनपुर से पहले जाफराबाद स्टेशन पर उतर कर एक हैंडपाइप पर उन्होंने कपड़े धोए सुखाये और उन्हें ही दुबारा पहन कर कोई दूसरी गाड़ी पकड़ कर बनारस पहुंचे. उस वक्त मुशायरों में पेमेंट इतना कम था कि उससे एक ढंग का कपड़ा खरीद पाना भी मुश्किल हो जाए. यह थी दुश्वारियां उठा कर अदब के हक में एक शायर का संघर्ष. आज भी वे शायरी में सत्ता की कसीदेकारी नहीं करते बल्कि आम आदमी की बात करते हैं. उनकी तल्ख शायरी सबको हजम नहीं हो सकती पर तरक्कीपसंद हर शख्स राहत की शायरी का शौकीन है.अक्सर वे मुशायरों में पढ़ते वक्त पहले दर्शकों व सामयीन की मानसिकता व उनके स्तर को पहचानने की कोशिश करते हैं. यदि तालीबाज जनता हुई तो हल्के ढंग की शायरी से काम चला लेते हैं. पर यदि संजीदा श्रोता हुए तो वे क्लासिक स्तर की शायरी के खजाने को एक-एक कर खोलते हैं. एक बार तुफैल चतुर्वेदी ने उनसे कहा कि आप अपनी अदबी गजलें मंच पर क्यों नहीं पढ़ते तो राहत साब ने कहा कि सामयीन ही ऐसा नहीं चाहती. उसी रात ऑडिटोरियम में हुए मुशायरे में राहत संजीदा शायरी से शुरुआत की. हाल खामोश. प्रतिक्रियाविहीन कि राहत साब ने कोने में बैठे तुफैल को देख लिया और कहा कि तुफैल तुम पूछ रहे थे न कि मुशायरों में मैं अदब क्यों नहीं पढ़ता. देख लो अदब पढ़ने पर क्या हाल होता. अब देखो यहां से मुशायरा शुरु कर रहा हूं. फिर राहत साब अपने आजमाए खेल पर आ गए और श्रोताओं के शोर से सभागार भर उठा. जो लोग राहत साहब को पसंद करते रहे हैं, वे इस बार भी साहित्य आजतक के मंच पर उनका जलवा देखेंगे.
गए चार दशकों से शायरी की महफिलों में लोगों के दिलों पर राज करने वाले राहत क्लासिकी शायरी और लोकप्रिय शायरी के बीच पुल बनाने वाले शायर हैं जिन्होंने उर्दू शायरी को पूरी दुनिया में फैलाया है. अनंत की ओर चेहरा कर के अजान की तरह शायरी में प्राण फूंकने वाले राहत भीड़ में न केवल अलग पहचान रखते हैं बल्कि अपनी अलग आवाज के कारण भी वे सुने और सराहे जाते हैं. एक शायर का जीवन उसकी शायरी के नेपथ्य में दबा रहता है वह कितना उजला है कितना मटमैला यह कोई उस पर लिखने वाला ही बता सकता है. दीपक ने राहत की जिन्दगी में एक जोरदार दस्तक दी है उनकी इस जीवनी के बहाने जो इन दिनों चर्चा में है. इसके दूसरे खंड पर भी उनका काम चल रहा है जहां राहत अपनी जिन्दगी से बाहर निकल कर देश दुनिया के हालात और अपने समकालीनों के बारे में भी खुल कर बोलेंगे, ऐसी हम उम्मीद करते हैं.
तो इस बार राहत इंदौरी से मिलने का मौका. सीधे उन्हें सुनने और उनसे किताब हस्ताक्षरित कराने का मौका न चूकें. इससे पहले की देर हो जाए, साहित्य के सबसे बड़े महाकुंभ 'साहित्य आजतक 2019 ' के लिए अभी भी रजिस्ट्रेशन करा सकते हैं आप. साहित्य का यह जलसा हर साल की तरह इस साल भी इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र में 1 नवंबर से 3 नवंबर को लग रहा है. साहित्य आजतक के लिए फ्री रजिस्ट्रेशन की शुरुआत हो चुकी है. जल्दी ही यहां दिए लिंक साहित्य आजतक 2019 पर क्लिक करें, और रजिस्ट्रेशन करा लें या फिर हमें 8512007007 नंबर पर मिस्ड काल करें.