बॉलीवुड को लीक से हटकर फिल्में देने वाले जाने-माने फिल्म डायरेक्टर अनुराग कश्यप साहित्य और सिनेमा पर अपनी बात रखने के लिए आजतक के लिटरेचर फेस्टिवल 'साहित्य आज तक' का हिस्सा बने. अनुराग कश्यप ने इस फेस्टिवल के सत्र 'नया सिनेमा नई ज़ुबान' में सिनेमा और साहित्य पर अपने तजुर्बे से जुड़े कई दिलचस्प विचार रखे.
हम हमेशा भांड नहीं हो सकते, साहित्य और सिनेमा वही जो सोने ना दे
अपने फिल्ममेकिंग करियर की शुरुआत के दिनों को याद करते हुए अनुराग कश्यप ने कहा कि शुरुआती दौर में फिल्म बनाने को लेकर उनमें काफी
बचपना था. उन्होंने कहा, 'मुझे नहीं पता था कि 'दाऊद इब्राहिम' को फिल्म में दाऊद इब्राहिम नहीं बोल सकते, 'शिवसेना' को शिवसेना नहीं बोल सकते थे.
मुझे तो बस इतना पता कि जो बात मेरे जहन है मुझे वैसी ही बयां करना है. बाद में पता चला कि सिनेमा में ये भी एक लड़ाई है.'
फिल्मों को लेकर अनुराग के अलग टेस्ट के बारे में पूछे गए सवाल पर वह बोले, 'हमारे समाज में यह धारणा दिलो दिमाग में बसा दी गई है कि जो चीज
आपको विचलित करती है वो गलत है. फिल्मों को लेकर भी यही रोना है. मेरा मानना है जो आपको सोचने पर मजबूर करे, सोन ना दे वही साहित्य है
और वही सिनेमा है. हम हमेशा भांड नहीं हो सकते कि हर वक्त बस एंटरटेन ही करते रहें.
बचपन में जब जब सवाल पूछा तो डांट दिया गया, इसलिए अब फिल्मों में सवाल पूछता हूं
बचपन से ही अनुराग को लिखने का शौक रहा है लेकिन अनुराग ने बताया कि जब वह लिखते हैं तो ऐसे लिखते हैं जैसे उलटी करते है कहने का
मतलब कि जो दिमाग में आए वह लिखते ही चले जाते हैं. अनुराग ने कहा कि जब उन्होंने पहली बार कविता लिखी थी तब वह स्कूल में थे और स्कूल
ने उनकी कविता को मैगजीन में छापने से मना कर दिया था. इसकी वजह बताई गई कि उनकी राइटिंग डार्क है. इस कविता को पढ़ने के बाद अनुराग के
घरवालों को बुलाकर कहा गया कि ये क्या लिखता है बहुत डार्क लिखता है.
इस तरह बचपन से ही अनुराग को ऐसी ही चीजों और विचारों को बयां करने का शौक रहा जिसके ऊपर कोई बात नहीं करना चाहता. अनुराग ने
बताया कि हम लोग ऐसे माहौल में पले-बढ़े हैं जहां अगर सेक्स या धर्म पर कोई सवाल पूछ लिया जाए तो डांट पड़ जाती थी कि कहां सुना कहां से ये सब
सीख रहे हो. मुझे भी ऐसा ही माहौल मिला. लेकिन अब मैं अपनी फिल्मों के जरिए लोगों से
सवाल करता हूं. क्योंकि मेरे लिए वो फिल्म नहीं जो लोगों के जहन में कोई सवाल या कोई सोच ना छोड़े.
सिनेमा में 10% साहित्य है बाकी मस्तराम ही है
अनुराग कश्यप ने इस बात पर जोर देते हुए कहा किे मौजूदा दौर में सिनेमा ने साहित्य की जगह ले ली है लेकिन फिल्मों में साहित्य तो सिर्फ 10
परसेंट ही नजर आता है बाकी तो मस्तराम है. अनुराग बोले, 'आजकल साहित्य पढ़ना कम हो गया है. विजुअल मीडिया चलन में है और सिनेमा साहित्य
की जगह ले रहा है. तो सिनेमा को साहित्य की जिम्मेवारी लेनी होगी.'अनुराग ने यह भी कहा कि जो सीमित है वो साहित्य नहीं उसे वह साहित्य के रूप
में पढ़ ही नहीं सकते क्योंकि जिसे शब्दों के दायरे में बांध दिया जाए वो कैसा साहित्य? अनुराग बोले, 'मैं काशीनाथ को बहुत बड़ा साहित्यकार मानता हूं
और ऐसे भी बहुत बड़े साहित्यकार हैं जो छपते ही नहीं हैं. हर इंसान का खुद की बात को बयां करने अपना एक तरीका होता है एक स्टैंडअप कॉमेडियन
भी जो बोलता है उसका भी एक साहित्य है, मैं उसे भी साहित्यकार मानता हूं'