साहित्य आज तक में प्रसिद्ध गीतकार, कवि और ऐड गुरु प्रसून जोशी ने 'मस्ती की पाठशाला' सत्र में लोक गीतों का जिक्र करते हुए कई खूबसूरत कविताएं सुनाई.
प्रसून जोशी ने बताया कि बाबुल गीत मैंने एक लड़की के मन की व्यथा पर लिखा था कि एक लड़की क्या सोचती होगी जब उसे अपने पिता का घर छोड़ना पड़ता है. इसलिए मैंने ये गाना लिखा. जब प्रसून से ये पूछा गया कि लड़कियों के मन और उनके सपनों से कुछ तो लगाव है तभी उन्होंने बहुत कुछ लिखा है, इसका जवाब प्रसून ने ये पक्तियां सुनाकर दिया . 'सूरज को तो धूप खिलाना था और बेटी को तो सवेरा लाना था और सुबह होकर रही...'
प्रसून जोशी ने कविता और गानों का जीवन में महत्व बताया और कहा कि कवि का काम है कि मन के विचारों को अभिव्यक्ति दें और उसे सबके सामने लाएं. अब इसे समझना आपका काम है.
इस पर प्रसून ने कुछ लिखा है. उसी की कुछ पंक्तियां...
लक्ष्य ढूंढते हैं वे जिनको वर्तमान से प्यार नहीं है.
इस पल की गरिमा पर जिनका थोड़ा सा अधिकार नहीं है.
इस क्षण की गोलाई देखो, नारंगी तरूणाई देखो, दूर क्षितिज पर बिखर रही है.
पक्ष ढूंढते हैं वो जिनको ये जीवन स्वाकीर नहीं है.
जब प्रसून से पूछा गया कि आप हमेशा कुछ ऐसा ढूंढते हैं जो आपके और सामने वाले के विचारों में सामंज्यस बिठा दे? इसके जवाब में उन्होंने कहा कि ऐसा ही होता है जब मैं लिखता हूं और वहीं मेरी फिल्मों में भी दिखता है. कविता भी वही है. सब कुछ रचा जा चुका है और कवि का काम है उस रचना को अपनी लेखनी से शब्दों में उतारना.
क्या सोच कर आपने तारे जमीन पर फिल्म का मां सॉन्ग लिखा? इसके जवाब में प्रसून ने कहा बचपन में जब मैं एक बार अपनी मां से जुदा हुआ तो मुझे कई तरह से अपनी मां की याद आई और उसी को सोचकर मैंने ये गाना लिखा.
मां से दूर एक बच्चा किस तरह अपनी मां को याद करेगा और बस इस गाने हर माता-पिता और बच्चे के दिल में जगह बना ली.. मां पर लिखने के बाद मैंने पिता के लिए भी लिखा क्योंकि इस गाने को लिखने के बाद मुझे कई पिताओं के खत आए कि हम इतने भी बुरे नहीं हैं. बस इसलिए मैंने पिता के लिए भी कुछ लिखा है.
प्रसून जोशी ने ओलंपिक में लड़कियों के मेडल लाने पर अपनी रचना सुनाई.
शर्म आ रही है ना, उस समाज को जिसने उसके जन्म पर खुल के जश्न नहीं मनाया
शर्म आ रही है ना, उस पिता को उसके होने पर जिसने एक दीया कम जलाया
शर्म आ रही है ना, उन रस्मों को उन रिवाजों को उन बेड़ियों को उन दरवाज़ों को
शर्म आ रही है ना, उन बुज़ुर्गों को जिन्होंने उसके अस्तित्व को सिर्फ़ अंधेरों से जोड़ा
शर्म आ रही है ना, उन दुपट्टों को उन लिबासों को जिन्होंने उसे अंदर से तोड़ा
शर्म आ रही है ना, स्कूलों को दफ़्तरों को रास्तों को मंज़िलों को
शर्म आ रही है ना, उन शब्दों को उन गीतों को जिन्होंने उसे कभी शरीर से ज़्यादा नहीं समझा
शर्म आ रही ना, राजनीति को धर्म को जहां बार-बार अपमानित हुए उसके स्वप्न
शर्म आ रही है ना, ख़बरों को मिसालों को दीवारों को भालों को
शर्म आनी चाहिए, हर ऐसे विचार को जिसने पंख काटे थे उसके
शर्म आनी चाहिए, ऐसे हर ख्याल को जिसने उसे रोका था, आसमान की तरफ देखने से
शर्म आनी चाहिए, शायद हम सबको.
क्योंकि जब मुट्ठी में सूरज लिए नन्ही सी बिटिया सामने खड़ी थी, तब हम उसकी उंगलियों से छलकती रोशनी नहीं, उसका लड़की होना देख रहे थे
उसकी मुट्ठी में था आने वाला कल. और सब देख रहे थे मटमैला आज.
पर सूरज को तो धूप खिलाना थाटी को तो सवेरा लाना था.
...और सुबह हो कर रही.