‘साहित्य आज तक’ के ‘कलम आजाद है तेरी’ सत्र में चर्चित उपन्यासकार और लेखिका शर्मिला बोहरा जालान ने हिस्सा लिया. इस दौरान उन्होंने कलम की आजादी और लेखनी पर खुलकर अपनी राय रखी. 'शादी से पेशतर', 'बूढ़ा चांद', 'राग-विराग और अन्य कहानियां' जैसी चर्चित किताबें लिखने वाली जालान नए दौर की ऐसी लेखिका हैं, जो किस्सागोई की शक्ल में अपनी बात कहती हैं.
'कलम आजाद है तेरी' सत्र के दौरान जब उनसे पूछा गया कि क्या एक लेखिका किताब बेंचने और शोहरत हासिल करने के लिए ही स्त्री की बात लिखती है, तो उन्होंने कहा, ‘ऐसा नहीं है. स्त्री मन की स्थिति है. एक आदमी भी स्त्री की भावना को बेहतर ढंग से लिख सकता है. मैं एक लेखक हूं और एक लेखक, लेखक होता है. एक लेखक को स्त्री या पुरुष की सीमाओं में बांधने की कोशिश नहीं करनी चाहिए.'
विरोध में उठाई जाती है कलम
जालान ने कहा कि कलम किसी के विरोध और प्रतिरोध में ही उठाई जाती है. लेखन के दौरान लेखक को तमाम द्वंद्वों से गुजरना पड़ता है. इस दौरान महिला अधिकारों की वकालत करते हुए उन्होंने सवाल किया कि अगर एक लेखिका बोल्ड होकर लिखती है, तो समाज बेचैन क्यों हो जाता है? ऐसी लेखिकाओं के चरित्र पर ही उंगली उठने लगती है.
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साथ ही यह कहा जाने लगता है कि इसमें वो महिलाएं नहीं हैं, जो ग्रामीण क्षेत्र से आती हैं. वो महिलाएं नहीं हैं, जो वास्तव में पीड़ित हैं. इसमें शराब पीने वाली महिलाओं की बात लिखी गई है. आखिर समाज ऐसी महिलाओं के लेखन को स्वीकार क्यों नहीं कर पाता है? कुछ भी हो, लेकिन समाज को इसे स्वीकार करना होगा.
'इस हिंदुस्तान में कई हिंदुस्तान'
लेखिका जालान ने कहा कि इस एक हिंदुस्तान में कई हिंदुस्तान हैं. यहां एक ऐसा भी हिंदुस्तान है, जहां ग्रामीण महिलाएं हैं. यहां एक ऐसा भी हिंदुस्तान हैं, जहां महिलाएं जींस पहनती हैं. खाना बनाने वाली पुरानी सोच की महिला और आज की आधुनिक लड़की में काफी अंतर दिखता है. हम लेखन में सच लिखते हैं. हमारा लेखन मानवीय है. हम काफी द्वंद्व और संघर्ष के बाद लिखते हैं. इसका समाज में असर भी हो रहा है और बदलाव हो रहा है.
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