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साहित्य आज तक: ढोंगी बाबाओं का जेल जाना मुझे आध्यात्मिक सुख देता है- अशोक वाजपेयी

साहित्य आजतक के हिन्दी हैं हम - 21वीं सदी में क्या हिन्दी पिछड़ रही है? विषय पर बोले अशोक वाजपेयी- ढोंगी बाबाओं के जेल जाने पर मिलता है आध्यात्मिक सुख. वहीं मृदुला बोलीं कि धर्म उनके लिए निजी मामला...

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Sahitya Aajtak- Ashok Vajpayee
Sahitya Aajtak- Ashok Vajpayee

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साहित्य आजतक के 'हिंदी हैं हम' सत्र में बोलते हुए कवि अशोक वाजपेयी ने कहा कि यह धारणा गलत है कि भाषा पिछड़ रही है. भाषा निरंतर बनती और बढ़ती रहती है. गतिशील रहती है. गतिशीलता ही भाषा को आगे लेकर जाती है.

देश का नंबर एक न्यूज़ चैनल आज तक द्वारा आयोजित साहित्य महाकुंभ के तीसरे सेशन में हिंदी हैं हम- 21वीं सदी में क्या हिन्दी पिछड़ रही है? विषय पर हिन्दी के साहित्यकार और लेखक अशोक वाजपेयी के साथ मृदुला गर्ग मौजूद रहीं.

इस मौके पर बोलते हुए प्रसिद्ध महिला लेखक मृदुला गर्ग ने कहा कि किताबों को फिल्मों से तुलना करके देखना ग़लत है क्योंकि किताबों का संसार व्यापक है और वो पाठक को जिज्ञासा और कल्पना देती है. किताबें फिल्मों से बड़ी होती हैं और बेहतर भी. इसे आगे बढ़ाते हुए अशोक वाजपेयी ने कहा कि साहित्य के सच अधूरे सच होते हैं. पाठक इसे पूरा करता है. वहां पुण्य प्रसून वाजपेयी के मार्फत वह श्रोताओं से रू-ब-रू हुई.

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सवाल- जब भाषा की बात हो तो सामाजिक सरोकार की बात हो? जैसे गांव में बात धर्म पर होती है, शहर में धर्मांधता होती है.
हमारे समाज या फिर भाषा की विडम्बना देखें तो पाते हैं कि लेखक से बड़े सभी हैं. पाठक या रसिक जब पढ़ता है तो वह अपने सच में लेखक के सच को मिला कर लेखता है. फिल्में आपको अकेला नहीं छोड़ती. किताबें आपको कल्पनाओं के अथाह सागर में छोड़ देती हैं.

हिन्दी के अंचल में विडम्बना है. दूसरी भाषाओं का मध्यवर्ग जैसे असमिया और बंगाली वह अपने साहित्यकारों को पूरा सम्मान देता है. हिन्दी में 46 बोलियां हैं. हिन्दी तो बस उन्हें बांधने का काम करती है, और यह गणित मेरा नहीं है. हिन्दी यहां के अंचल की संपर्क भाषा है. हिन्दी का मध्यवर्ग अपनी भाषा से दूर भागने वाला मध्यवर्ग है. इसके अलावा हिन्दी यहां के अंचल में सांप्रदायिकता, जातीयता और क्षेत्रीयता में भी फंसी है.

मृदुला गर्ग कहती हैं कि चीन में भी हजारों बोलियां हैं, लेकिन उन्होंने मंदारीन को सबसे ऊपर मान लिया है. आसपास बैठे 25 चीनी अलग-अलग बोलियों बोल रहे होंगे
मृदुला कहती हैं कि सेक्युलर शब्द सबसे डरावना और भयंकर है. हमने धर्म को डरावना और उलझाऊ बना दिया है. धर्म मेरे लिए निजी मामला है. मैं उस पर कोई सफाई नहीं देना चाहती.

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अशोक वाजपेयी- हिंदी के अंचल में पलने वाले ढोंगी बाबा के बलात्कार और हत्या के मामले में जब पकड़े जाते हैं तो मुझे आध्यात्मिक सुख मिलता है. एक शंकराचार्य पकड़ा गया मगर वह सबूतों के अभाव में छूट गया. मेरी मां महज 5वीं पास थी लेकिन वह रामचरितमानस के दो पन्ने पढ़ कर उसकी पूजा किया करती थी.लोगों को यह सबक सिखाया जाना चाहिए कि धर्म निजी मामला है. लोकतंत्र में लोक को इस बात से वाकिफ कराने की जरूरत है.

सवाल- साहित्य का धर्म से न टकराना?
साहित्य हमेशा से ही धर्म के खिलाफ रहा है. साहित्य हमेशा से ही टकराता रहा है. पिछले 50 वर्षों के साहित्य को आप धार्मिक, नैतिक और राजनीतिक सत्ता के विरोध के तौर पर देख सकते हैं.
वो बात अलग है कि हमारी इन चीजों को देखने की नजर बड़ी भोथरी हो गई है. हमारा काम लिखना है. कई बार इसमें नाटकीयता आ जाती है.

सवाल- क्या लिखते समय किसी किस्म का दबाव होता है कि फिल्म बन जाए, किताब कॉमर्शियल हो जाए.
मृदुला- मेरे साथ ऐसा नहीं होता. मेरी समझ है कि लेखक हमेशा उन्हीं शब्दों का इस्तेमाल करता है जो समाज में व्याप्त है. जैसे कि बूचड़खाने या रसोईखाने में जाएंगे तो वहां के शब्द इस्तेमाल होंगे. लेखक कई बार शब्द गढ़ता भी है. पाठक से अपेक्षा रखती है कि वह सौ तरह के सच पढ़े और अपना सच चुने.

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अशोक वाजपेयी- लेखक के पास भाषा और सच्चाई ही है. लेखक भी हमेशा खुद पर शक करते हैं. सच्चे लेखक तो वहीं हैं जो खुद पर शक करें.

मृदुला- भाषा नहीं पिछड़ रही है. भाषा में तो हमेशा शब्द जुड़ रहे हैं. हिन्दी पिछड़ रही है. कई बार हम अश्लीलता को लेकर फंस जाते हैं. जैसे लोग तय करते हैं कि कौन से शब्द अश्लील हैं. उन्हें महिलाएं तो न ही बोलें.

 

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