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साहित्य आजतक: 'दलितों को नाम बदलकर लिखना पड़ा, तब छपी किताबें'

'साहित्य आजतक' का आयोजन दिल्ली के इंडिया गेट स्थित इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र में 16, 17 और 18 नवंबर को हो रहा है.यह महाकुंभ इस बार सौ के करीब सत्रों में बंटा है, जिसमें 200 से भी अधिक विद्वान, कवि, लेखक, संगीतकार, अभिनेता, प्रकाशक, कलाकार, व्यंग्यकार और समीक्षक हिस्सा ले रहे हैं.

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साहित्य आजतक के मंच पर 'दलित लेखन का दम' पर चर्चा
साहित्य आजतक के मंच पर 'दलित लेखन का दम' पर चर्चा

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दलित लेखन आज किसी परिचय का मोहताज नहीं है. ‘साहित्य आज तक’ के ‘दलित लेखन का दम’ सत्र में दलित साहित्य से जुड़े तीन बड़े लेखक शरणकुमार लिंबाले, श्योराज सिंह बेचैन और राजीव रंजन प्रसाद शामिल हुए. इस सत्र का संचालन संजय सिन्हा ने किया.

चर्चा के दौरान वरिष्ठ लेखक शरण कुमार लिंबाले ने कहा कि जो समाज में दिखता है वही साहित्य में भी होता है. अगर समाज में छुआछूत रहेगा तो साहित्य में भी उसका असर जरूर दिखेगा.

उन्होंने कहा कि पहले हमारी कविताएं नहीं छापी जाती थी, हमें कहा जाता था कि तुम भाषा लिखो, सही तरह से लिखो. उसके बाद हमें नाम बदलकर लिखना पड़ा, तब जाकर हमें स्वीकार किया गया.

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लिंबाले बोले कि मेनस्ट्रीम के साहित्य में विचार नहीं है, हमारे साहित्य में बाबा साहेब अंबेडकर का विचार है. हमारी भाषा लोगों को गंदगी लगती है, लेकिन उस भाषा से हमें प्यार है. उन्होंने कहा कि जब हम दलित पात्र की बात करते हैं, तो उसका पूरा समाज उसके साथ आता है. दलित साहित्य हमेशा कहता है कि मैं दया से घृणा करता हूं. प्रगतिशील लेखकों ने लिखा इसी कारण दलित समाज आज का साहित्य यहां तक पहुंचा है.

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'बाबा साहेब ही हैं दलितों के सबसे बड़े लेखक'

पत्रकार और लेखक श्योराज सिंह बेचैन ने कहा कि समाज में अलग-अलग जातियां हैं इसीलिए दलित साहित्य भी है. आजकल दलित शब्द को हटाने की बातें हो रही हैं, लेकिन दलित की स्थिति बदलने पर ज्यादा ध्यान दिया जाना चाहिए. समाज की विविधता ही साहित्य में दिखती है.

उन्होंने कहा कि दलित साहित्य के सबसे बड़े लेखक बाबा साहेब अंबेडकर ही हैं. साहित्य समाज का दर्पण भी चिन्हित है, जो समाज का व्यक्ति लिख रहा है उसी का मुद्दा साहित्य में भी दिखता है. उन्होंने कहा कि प्रेमचंद ने भले ही दलितों के लिए कहानी लिखी, लेकिन उस कहानी में उन्हें लालची दिखाया गया है.

बेचैन ने कहा कि भारतीय समाज बहुमंजलीय समाज की तरह है जहां किसी को एक मंजिल से दूसरी मंजिल पर जाने की इजाजत नहीं है. जब तक झाड़ू लगाने वाला कविता लिखकर कहानी नहीं बयां करेगा, तब तक समाज नहीं समझेगा.

छत्तीसगढ़ के बस्तर से आए राजीव रंजन प्रसाद ने इस चर्चा के दौरान कहा कि साहित्य एक बहुत बड़ा छाता है, इसमें दलित साहित्य एक आंदोलन की तरह उभरा है. इससे कोई वर्ग विभेद नहीं होता है, बल्कि साहित्य का हर क्षेत्र में विस्तार होता है. उन्होंने कहा कि दलित साहित्यकार अपने लेखन का ज्यादा सही तरीके से इस्तेमाल कर रहा है.

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