देश में दो बड़ी समस्याएं हैं, पहली आबादी और दूसरी है चरित्र. अगर इन दोनों को संभाल लिया जाए तो देश की तरक्की को कोई रोक नहीं सकता और इसे सिर्फ देश का नौजवान ही कर सकता है. ये बातें कहीं प्रख्यात शायर वसीम बरेलवी ने. उन्होंने कहा कि देश इस समय बड़ी क्राइसिस से गुजर रहा है और नौजवानों को अपने घर से क्रांति करनी होगी, जिस दिन आपने अपने पिता से पूछ लिया कि 50000 की आमदनी में डेढ़ लाख का टीवी कहां से आया तो इसकी शुरूआत हो जाएगी. उन्होंने साहित्य आजतक में एक से एक शेर पढ़े. मेरे गम को जो अपना बताते रहे, वक्त पड़ने पर हाथों से जाते रहे. इस पर खूब तालियां बजीं. शम्सताहिर खान ने इस सत्र का संचालन किया.
बरेलवी ने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा कि नौजवान खाली स्लेट की तरह हैं और उन्हें उम्मीद है कि उन तक अपनी बात पहुंचा पाएंगे. बरेलवी ने कहा कि औरतों की जिंदगी में 3 मर्द आते हैं पहला पिता, दूसरा पति और तीसरा बेटा, जिस दिन एक पत्नी ने फैसला कर लिया कि अगर घर में सब्जी बनेगी तो ईमानदारी के पैसे की तो उस दिन से हालात बदल जाएंगे. उन्होंने कहा कि घरों में बगावत करो. विश्वास ही जीवन को जिंदगी बनाता है, घर, परिवार समाज से अगर विश्वास उठ जाए तो फिर जीवन मुश्किल हो जाएगा. उन्होंने कहा कि हालात ऐसे हो गए हैं कि लोगों का विश्वास उठ गया है. इस सामाजिक दर्द को साझा करने की जरूरत है. जिस दिन हम अपने आप से सच बोलना शुरू कर देंगे परिवर्तन की शुरूआत हो जाएगी.
इसके बाद उन्होंने एक के बाद एक कई नज्में सुनाईं
उसुलों पर जहां आंच आए, टकराना जरूरी है
जो जिंदा हो तो फिर, जिंदा नजर आना जरूरी है
नई उम्रों की खुद मुख्तारियों को कौन समझाए
कहां से बच के चलना है, कहां जाना जरूरी है
थके हारे परिंदे जब बसेरे के लिए लौटें
सलीका मंद साखों का लचक जाना जरूरी है
बहुत बेबाक आंखों में ताल्लुक टिक नहीं पाता
सलीका ही नहीं शायद उसे महसूस करने का
जो कहता है कि खुदा है तो दिखना जरूरी है
सत्र का संचालन कर रहे शम्सताहिर खान की इस बात से बरेलवी सहमत दिखे कि वह सोशल मीडिया पर एक्टिव नहीं हैं लेकिन लोग उनके शेर ट्विट और रिट्वीट करते रहते हैं. बरेलवी ने कुछ और शेर पेश किए
तुझे जो देखा तो आंखों में आ गए आंसू
तेरी नजर से तेरी आरजू छुपा न सका
लगा रहा हूं तेरे नाम का एक गुलाब
मलाल यह है कि यह पौधा भी सूख जाएगा
मेरे गम को जो अपना बताते रहे
वक्त पड़ने पर हाथों से जाते रहे
नन्हें ने बच्चों ने छू भी लिया चांद को
बूढ़े बाबा कहानियां सुनाते रहे
दूर तक हाथ में कोई पत्थर न था
फिर भी हम न जाने क्यों सर बचाते रहे
वसीम रूठ गए वो तो रूठ जाने दो
जरा सी बात है बढ़ जाएगी मनाने से
चला है सिलसिला कैसा यह रातों को मनाने का
तुम्हें हक दे दिया किसने दियों के दिल दुखाने का
इरादा छोड़िए अपनी हदों से दूर जाने का
अरे जमाना है जमाने की निगाहों में न आने का
कहां की दोस्ती किन दोस्तों की बात करते हो
मियां कोई दुश्मन नहीं मिलता अब तो ठिकाने का
निगाहों में कोई भी दूसरा चेहरा नहीं आया
अरे भरोसा ही कुछ ऐसा था तुम्हारे लौट आने का
ये मैं ही था बचाकर खुद को ले आया किनारे तक
समंदर ने बहुत मौका दिया था डूब जाने का
अपनी मिट्टी को जरा पीठ जो दिखलाई है
दरबदर कैसी भटकने की सजा पाई है
बात सुन ली है मगर सुनकर हंसी आई है
कतरा कहता है समंदर से सनाशाई है
तेरी आंखों में जो सोई हुई गहराई है
बस किसी डूबने वाले की तमन्नाई है
ये न हो फिर किसी पानी के ही बस की न रहे
तुमने जो आग लगाने की कसम खाई है
तेरे कुर्बान मगर ये तो बता दे मालिक
मैंने किस जुर्म में जीने की सजा पाई है
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