दिल्ली के मेजर ध्यानचंद नेशनल स्टेडियम में चल रहे शब्द और सुरों का महाकुंभ 'साहित्य आजतक' आज अपने आखिरी पड़ाव पर है. साहित्य के इस तीन दिवसीय मेले के ‘कविता की पुकार' कार्यक्रम में कवि अशोक वाजपेयी, अनामिका और अरुण कमल ने शिरकत की.
आज तक की वरिष्ठ पत्रकार श्वेता सिंह ने सबसे पहले कवि अशोक वाजपेयी से सवाल किया कि ये साहित्य को सत्ता विरोधी क्यों होना पड़ता है? इस सवाल का जवाब देते हुए अशोक वाजपेयी ने कहा कि असल में सत्ता का साहित्य से संबंध बड़ा तनाव भरा होता है. वह कभी-कभी घोर विरोध में बदलता है. जब सत्ता बहुत क्रूर, अहंकारी और विनाशकारी हो जाए, तो साहित्य सत्ता विरोधी हो जाता है. लेकिन आप पिछले 100 बरस के हिन्दी साहित्य को देखें, जो लोकतंत्र की विक्रतियां थीं, साहित्य उनको लेकर हमेशा मुखर रहा है.
उन्होंने आगे कहा कि साहित्य एक अभिशाप नहीं है कि वह सत्ता का विरोध करता है. ये उसकी नियति है, उसके स्वाभव में है कि वह प्रश्न पूछे. साहित्य उन विधाओं में से है जो खुद अपने ऊपर भी सवाल उठाता है, तो वह दूसरों से भी प्रश्न पूछ सकता है.
सोशल मिडिया पर कविताएं पढ़ना आपको कैसा लगता है, इसपर अशोक वाजपेयी ने कहा कि मैं इतना पारंपरिक हूं कि मैं सोशल मीडिया पर पढ़ता ही नहीं हूं, मेरा मन नहीं लगता, मैं किताब पढ़ने वाला आदमी हूं. दूसरी बात ये है कि कविता के प्रचार प्रसार के माध्यम और अवसर सोशल मीडिया पर बढ़े हैं. पर ध्यान रखिए कि सोशल मीडिया झूठ भी फैलाता है, नफरत भी फैलाता है, हिंसा भी फैलाता है, प्रतिशोध की भावना भी फैलात है, तो उसका एक लोकतांत्रिक पक्ष भी है और लोकतंत्र विरोधी पक्ष भी है.
दिल्ली यूनिवर्सिटी में अंग्रेजी की शिक्षिका रहीं अनामिका से प्रश्न किया गया कि सहित्यकार के लिए बाध्यता है कि वह सत्ता के विरुद्ध बोले. अगर सत्ता के लिए बोले तो क्या साहित्य बिकाऊ हो जाएगा? अनामिका ने इस सवाल का जवाब एक पद सुनाकर दिया. उन्होंने कहा- 'प्रभुता पद पाई काहे मद नाहीं'. जब आदमी सत्ता के बीच में सभी तरह के संचालन और सभी तरह के पावर पॉलिटिक्स के अधिनायक के रुप में बैठ जाता है और लगातार वह वैसे लोगों से घिरा रहता है जो उसका मनोबल बढ़ाते रहते हैं. अगर वह कुछ सही करना भी चाहते हैं, तो उनको वह सही सलाह नहीं देते. जो दूर खड़ा है वह उसपर क्रिटिकल एंगल से दखता है और उसको शायद सही विमर्श देने में सुविधा होती है.
उनका कहना था कि कविता चाहे किसी की समझ में न आती हो, लेकिन हर गरीब आदमी, हर स्त्री, हर पेरशान जनजाति ये सोचता है कि वह उसका अपना है. कवि हमारा आदमी है, यह विश्वास जो कवियों ने अर्जित किया है उसको एक क्रिटिकल एस्टांस में रखता है. वह एक तरह से समीक्षा दृष्टि देता है. लेकिन पॉलिटिक्स ऑफ ह्यूमिलिएशन का जवाब पॉलिटिक्स ऑफ ह्यूमिलिएशन से देना ही जरुरी नहीं है, वह एक तरह से ताकीद करता है.
साहित्या अकादमी पुरस्कार विजेता अरुण कमल ने जयशंकर प्रसाद की कविता की एक पंक्ति सुनाई-
हिमाद्रि तुंग श्रृंग से, प्रबुद्ध शुद्ध भारती,
स्वयंप्रभा समुज्ज्वला, स्वतंत्रता पुकारती