शब्द-सुरों के महाकुंभ, साहित्य आज का आज तीसरा और आखिरी दिन है. दिल्ली के मेजर ध्यानचऺद नेशनल स्टेडियम में हो रहे इस कार्यक्रम में कई मंच हैं, जहां साहित्य पर चर्चा भी हो रही है और संगीत के सुर भी महक रहे हैं. कार्यक्रम में 'सुनो कवि' सेशन में जाने-माने कवियों ने शिरकत की. इनमें लीलाधर जगूड़ी(Leeladhar Jagudi), नंद किशोर आचार्य (Nand Kishor Acharya) और नरेश सक्सेना (Naresh Saxena) शामिल थे.
'सच बोलने वाले का रहना मुश्किल हो रहा है'
क्या कविता को प्रचार की आवश्यकता है? इस सवाल का इस जवाब देते हुए नरेश सक्सेना ने कहा कि कविता का संबंध सत्य, मनुष्यता, सौंदर्य और संवेदना से है. लेकिन हमारी शीर्ष सत्ता के पास सारा एजेंडा घृणा और हिंसा का है. पर उनसे कहा गया कि सरकार तो साहित्य को प्रमोट करती है, वे हिंदी के साथ है. इसपर नरेश सक्सेना का कहना था कि 'जितना झूठ इस समय बोला जा रहा है, उतना इस देश में कभी बोला नहीं गया है. ऐसे समय में इंसान का बचना मुश्किल हो रहा है. सच बोलने वाले का रहना मुश्किल हो रहा है. ऐसे समय में हर चीज को मनुष्यता की ज़रूरत है. इतने लोग जो यहां बैठे हैं उन्हीं से मेरी उम्मीद है, और किसी से नहीं है.'
'हमारी डिक्शनरी इतनी कमजोर और लचर क्यों है?'
कवि लीलाधर जगूड़ी ने कहा कि कवि को सुनना भी सीखना चाहिए, और सुनाना भी सीखना चाहिए. उन्होंने कहा कि हिंदी में अनेक तरह के शब्द और भाषाएं आ जाती हैं. होना तो ये चाहिए कि हमें अंग्रेजी, उर्दू, संस्कृत से भी सीखना चाहिए. अंग्रेजी ने तो हिंदी से सीखा. अंग्रेजी में तो जंगल भी है. हमारी डिक्शनरी इतनी कमजोर क्यों है? लचर क्यों है? अगर किसी आदिवासी इलाके से शब्द आया है, तो वो हमारी डिक्शनरी में नहीं मिलता. हमारी डिक्शनरी में केवल शास्त्रीय शब्द ही क्यों मिलते हैं. जीवन के शब्द भी मिलने चाहिए. अंग्रेजी इसीलिए सबसे बड़ी भाषा बन पाई, क्योंकि अंग्रेज जितने देशों में गए वे उतने देशों के शब्द भी अपने साथ ले गए. हम इस रहस्य को नहीं समझ पाए, आज भी हम रूढ़ीवादी बने हुए हैं.
हिंदी युवाओं तक क्यों नहीं पहुंच रही है?
हिंदी युवाओं तक क्यों नहीं पहुंच रही है, इस सवाल पर नंद किशोर आचार्य ने कहा कि कविता मनुष्य की आत्म की संवेदनात्मक पहचान है, उसकी संवेदनात्मक तलाश है. अपनी आत्मा की तलाश करिए, आप कविता तक पहुंच जाएंगे.
कविता के लिए सबसे अच्छा और सबसे बुरा समय
नरेश सक्सेना ने कहा कि कविता के लिए सबसे अच्छा समय तब था, जब हम 18-19 साल के थे. तब दुनिया में जो हो रहा था हमें उससे कोई मतलब नहीं था. हम प्रेम कविताएं लिख रहे थे. हमारी दुनिया में प्रेम ही प्रेम था. मनुष्य की ताकत, संकल्प सबसे ज्यादा तब निकलता है जब सबसे कड़ी चुनौती होती है, तो सबसे अच्छी कविता के लिए यही सबसे अच्छा वक्त है.
उन्होंने इसपर एक कविता भी सुनाई, जसके बोल कुछ यूं थे-
मरना तो है ही एक दिन, अब मरने से क्या डरना
पर मरना है तो लड़कर मरना, सही बात पर अड़कर मरना
दुश्मन के निर्मम चेहरे पर, एक तमाचा जड़ कर मरना
'जो कविता भाषा को समझती है वो जीती है'
लीलाधर जगूड़ी ने कहा कि कविता की उम्र कभी खत्म नहीं होती. अनेकों कवि ऐसे हैं जो कम उम्र में चले गए, लेकिन वे एक लकीर खींच गए. वो मरना क्षणिक मरना भी मरना है और दीर्घकालीन मरना भी मरना है. कविता मरने के साथ नहीं जीने के साथ है. जीने के साथ वो कविता है जो भाषा को समझती है. जो कविता भाषा को समझती है वो जीती है, जो भाषा को नहीं समझती वो लिखे जाते हुए ही मर जाती है.
नंद किशोर आचार्य ने एक प्रेम कविता सुनाई-
बुरा तो नहीं मानोगे यदि मुझे अब तुम्हारी बांसुरी बने रहना स्वीकार नहीं,
यह नहीं कि मैं उपेक्षित हुआ, बल्कि अधरों पर सदा तुम्हारे सज्जित रहा
किंतु मेरा कब रहा संगीत वह, जो मेरे ही रद्र-रंद्र से बहा
मुझसे तो अच्छी रही वह मोरपांख जो तुम्हारे मुकुट पे चढ़ी
और न भी चढ़ती तो उसका सौंदर्य उसका अपना था
ये अंतर क्या कम है कि तुम्हारा संगीत मेरी व्यवस्था है और तुम्हारा मोरपांख का सौंदर्य तुम्हारी
बुरा न मानना कि मैं अब तुम्हारी बांसुरी नहीं रहा...