scorecardresearch
 

Sahitya AajTak 2024: 'एक मुस्कान आपकी और एक मेरी, दोनों मिला दो तो...', अनिला जैन की कविता ने जीता श्रोताओं का दिल

पश्चिम बंगाल के कोलकाता में हुए 'साहित्य आजतक' के कार्यक्रम में 'आओ कविता सुनें' सेशन हुआ, जिसमें हिंदी के कई जाने-माने कवि और गीतकार शामिल हुए. कवियों ने अपनी रचनाओं के जरिए कार्यक्रम में शामिल हुए श्रोताओं का मन मोह लिया.

Advertisement
X
कोलकाता में साहित्य आजतक कार्यक्रम का दूसरा दिन
कोलकाता में साहित्य आजतक कार्यक्रम का दूसरा दिन

Sahitya AajTak Kolkata 2024: पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता में शब्द-सुरों के महाकुंभ 'साहित्य आजतक 2024' के दूसरे दिन का आगाज हो गया है. इस दौरान हुए 'आओ कविता सुनें' सेशन में कवयित्री अनिला जैन राखेचा, कवि शैलेश गुप्ता और तुषार धवल सिंह और कवि, गीतकार मृत्युंजय कुमार सिंह शामिल हुए. कवयित्री अनिला जैन राखेचा ने सेशन की शुरुआत में अपनी कविता सुनाई, जो इस तरह से है...
एक मुस्कान आपकी और एक मेरी 
दोनों मिला दो तो खिलते हैं फूल 
वर्ना ये जिंदगी तो है ही धूल

Advertisement

अनिला जैन राखेचा ने अपनी दूसरी कविता प्रेम पर सुनाई, जो इस तरह है...

प्रेम में पानी कभी न होना
पानी तो बहा ले जाता है अपने साथ सब कुछ 
बेहतर है इससे तो, पत्थर हो जाना
पाषाणों पर उकेरे रहते हैं, युगों-युगों तक श्लोक प्रेम के
जिसे नहीं मिटा सकता कोई भी, कभी भी, किसी भी सदी में

शब्द रचते हैं कथाएं
वहीं हर दृश्य की एक कहानी होती है 
शब्दों को पढ़ा जा सकता है, सुन सकते हैं, दृश्यों की कहानी तो बेजुबानी होती है
शब्द चलते हैं, चलती है साथ-साथ उनकी कहानियां
दृश्य ठहरे रहते हैं किंतु समेटे रहते हैं अपनी निशानियां
एक शब्द के भीतर अनेक शब्दों का प्रवेश वर्जित है
किंतु एक दृश्य के भीतर अनेक दृश्यों की मौजूदगी रहती है

कवि तुषार धवल सिंह ने अपने बात की शुरुआत एक ऐसी कविता से की, जिसको उन्होंने अपने बेटे के जन्म की रात को लिखी थी. वो इस कविता में कहते हैं...

Advertisement

तुम्हारे पालने बाहर 
एक रतजगा ऐसा भी है, जिसमें रात नहीं होती
जिसमें देह की परतें खुल जाती हैं
भाषा से शब्द झर जाते हैं
आंखें, आंख नहीं रहतीं वे स्वप्न हो जाती हैं
बोध के संदर्भ जिसमें उलट जाते हैं
काल का संदर्भ जिसमें जल जाता है 
तुम्हारे पालने के बाहर एक थकान ऐसी भी है, जो अपनी ही ताजगी है 
आशंकाएं जिसमें खूब गर्दन उठाती हैं
एक आक्रांत स्नेह अपने भविष्यत संदिग्धों की तलाश में होता है 
और यहीं से उन सबका शिकार करता है आने वाले दुर्गम पथों पर 
माटी की नरम ओयम रखता हुआ

इसके बाद तुषार धवल सिंह ने अपनी कविता सीरीज 'सिटी स्केप' की पहली कविता सुनाई, जो इस तरह है...

हवा में छूटे हुए कदमों की गतिमान आतुरता में 
इन फुटपाथों की भीड़ित नीरवता में 
थके लैंपों से रौशनी, केस सुखाने उतरती है 
दिन का पसीना है या श्रम की उमस, वह समझ नहीं पाती
कई कथाएं जीवन घर्षण की 
इन आवाजित सन्नाटों में, बेनाम कई नाम अपनी पहचान गंवाकर यहां-वहां भटकते हैं

इसके बाद तुषार धवल सिंह ने अपनी एक और कविता सुनाई, जो सच पर आधारित है.

मेरी जेब में बामियान है, आंखों में सच, 
हृदय में तूफान है, सिर में धंसा हुआ ध्वज
मेरे हाथों में दिए गए हैं कई रंग और जुबां 
पर भाषाएं उन रंगों की अलग हैं 
रंग चालाक हैं, सच नहीं कहते, पक्षता रह गई है अधकथन
इस युद्ध में बचेगा वही, जो रंग चुनेगा
जो सच कहेगा, मारा जाएगा...!

Advertisement

कवि शैलेश गुप्ता ने भी अपने बात की शुरुआत अपनी कुछ कविताओं से की. उन्होंने सबसे पहली कविता 'कुछ भी नहीं रहा निरपेक्ष' शीर्षक से सुनाई, जो इस तरह है...

कुछ भी नहीं रहा निरपेक्ष
न धर्म, न जाति, न संस्कृति, न सभ्यता
सब कुछ हो गया है सापेक्ष 
एक सत्य के सापेक्ष, दूसरा सत्य
दूसरा झूठ के सापेक्ष, दूसरा झूठ
एक हत्या के सापेक्ष, दूसरी हत्या ट
एक बलात्कार के सापेक्ष, दूसरा बलात्कार 
एक हिंसा के सापेक्ष, दूसरी हिंसा 
इस त्रिदेह बन रही है जंग का मैदान
लड़ी जा रही है लड़ाई नफरतों की, उसकी देह पर 
कौन गलत, कौन सही...उसे नहीं पता 
बस उसे पता है, उसकी आत्मा हर बार छलनी हो रही है 
नफरत की लड़ाई में मिली हृदयविदारक अपमानजनक पीड़ा से 
और हम, आप खामोश हैं
क्योंकि हम सब सापेक्षतावादी हो गए हैं
हमारी सोच, हमारे विचार, हमारी भावना, हमारी संवेदना 
सब किसी ना किसी के सापेक्ष ही निर्धारित हो रही है

शैलेश गुप्ता ने दूसरी कविता मां और पिता के संबंधों पर पेश की, जो इस तरह है...

जब भी मैं मां को याद करता हूं
याद आ जाते हैं पिता भी उनका हांथ बंटाते हुए
कभी मटर की फलियां छीलते हुए
कभी तावे पर रोटी सेंकते हुए 
कभी कढ़ाई में सब्जी चलाते हुए 
अक्सर पिता को देखा है मैंने
मां का हांथ थामकर सीढ़ियों से उतरते वक्त सहारा देते हुए
पिता की ही रही जिम्मेदारी 
साइकिल से जाकर सब्जी लाने की 
घर में पानी भरने के लिए हैंडपंप चलाने की 
मां के धुले कपड़े अलगनी पर डालने की 
और शाम को उतार लाने की
पिता को मैंने देखा करवा चौथ के चांद को 
छत पर तलाश करते हुए
मां की पूजा की तैयारी के पहले 
पिता को मैंने साइकिल के डंडे पर बिठाकर मेरे बचपन को बाजार ले जाते देखा है 
नई किताबों पर कवर चढ़ाते देखा है 
कॉलेज के गेट पर मेरी मायूसी को ढांंढस देकर जाते देखा है 
पिता तो अब मैं भी हूं
सोचता हूं...कितनी स्मृतियां दे पाऊंगा 
अपने पिता जैसा कितना बन पाऊंगा

Advertisement

कवि, गीतकार मृत्युंजय कुमार सिंह ने पहली कविता गणतंत्र पर सुनाई, जिसका शीर्षक है 'गणतंत्र की कुर्सी'. कविता कुछ इस तरह है...

मन मसोस कर रहना पड़े कुछ दिन, तो रह लो
कुछ और दर्द सह लो
तुम्हें मालूम नहीं, कई सदियों से इस आस में बैठें हैं कुछ लोग कि जुल्म और जुल्मत के अंधेरे अब मिटने वाले हैं
इसी उम्मीद में बढ़ता गया है रोग
दवाएं सारी हुई बे-असर 
दुआएं सारी हुई खाक-सर
हर दिन जल्लाद सा खड़ा, कभी शाम से लड़ता है
कभी सुबह को घुड़कता है
आंख मिचकती है, तो बाजू फड़कता है 
न जाने कौन किसकी हौसला-अफजाई में लगा है

Live TV

Advertisement
Advertisement