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Sahitya Aajtak: आसमां तेरी बुलंदी मेरे किस काम की है... वसीम बरेलवी की गजल पर गूंजती रहीं तालियां

Sahitya AajTak Lucknow: उत्तर प्रदेश के लखनऊ में 'साहित्य आजतक' कार्यक्रम के दूसरे दिन देश के बड़े शायर शामिल हुए. इस दौरान उनकी शायरी सुनकर लोगों ने जमकर तालियां बजाईं. कार्यक्रम का आगाज होने से अंजाम तक शायरी पसंद करने वाले लोग बड़ी संख्या में मौजूद रहे.

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साहित्य आजतक लखनऊ में शामिल हुए नामी शायर.
साहित्य आजतक लखनऊ में शामिल हुए नामी शायर.

Sahitya AajTak 2023: उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में 'साहित्य आजतक' का आयोजन किया गया. कार्यक्रम के दूसरे दिन 'शायरी की शाम... शाम-ए-अवध' सेशन में देश के जाने-माने शायर शामिल हुए.  तमाम बातें करते हुए कविताएं सुनाईं. इस सेशन में शायर वसीम बरेलवी, शीन काफ निजाम, डॉ. नवाज देवबंदी, ताहिर फराज, अकील नोमानी, फरहत एहसास, शारिक कैफी, डॉ. हरिओम, आलोक श्रीवास्तव, अभिषेक शुक्ला, सैयर फरोग एहसान शामिल हुए.

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कार्यक्रम की शुरुआत अमरोहा से आए शायर सैयद फरोग एहसान ने की. उन्होंने शेर पढ़ा- नाम तेरा न हम कभी लेंगे, होंठ अपने फरोग सी लेंगे. होगा मुश्किल है ये यकीन मुझे. फिर भी तेरे बगैर जी लेंगे. चेहरा तेरा ही सामने होगा, सांस हम जब भी आखिरी लेंगे. है अना का मेरी सवाल अभी, मशवरा तुमसे फिर कभी लेंगे. अपना रिश्ता है चांद सूरज से, इन चरागों से रोशनी लेंगे.

इसी के साथ उन्होंने गजल पढ़ी-

जो कहानी तुम सुनाते हो कहानी और है
है मेरा राजा अलग और मेरी रानी और है

ये कलम उठाके अभी जावियों की कैद में हूं
गजल तो लिख दूं मगर काफियों के कैद में हूं

मुझको उनके ये इशारे नहीं अच्छे लगते
दिल पे चलते हुए आरे नहीं अच्छे लगते

ढूंढ के लाओ ऐसे कुछ किरदारों को 
तोड़ दें जो नफरत की इन दीवारों को.

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फरोग एहसान की शायरी सुनने के साथ ही श्रोता गजलें सुनने के मूड में आ चुके थे. इनके बाद शायर अभिषेक मिश्रा को आवाज दी गई. अभिषेक अपनी शायरी सुनाकर दाद बटोरी. उन्होंने पढ़ा-

कुछ एक रोज मेरे जानो दिल पे छाया रहे
बला से फिर कोई अपना रहे पराया रहे

वो एक सफर जो लाजिम है जो मैं करता नहीं
बस उस सफर के लिए जेब में किराया रहे.

उसको पाया भी बहुत उसको गंवाया भी बहुत
यानी इक शख्स को नायाब भी देखा मैंने

पैकरे नूर में ढलता ही चला जाता हूं
लौ पकड़ लूं तो जलता ही चला जाता हूं

बर्फ पर रखी हुई आग हैं तेरी यादें
इन दिनों मैं तो पिघलता ही चला जाता हूं.

साहित्य आजतक लखनऊ में शामिल हुए नामी शायर.

शायरी का माहौल बनने के साथ ही शायर डॉ. हरिओम को आवाज दी गई. डॉ. हरिओम ने इन पंक्तियों ने शुरुआत की- ये शहरे इल्मो अदब लखनऊ तुम्हारा है, हमारे तुम हो तो ये शहर भी तुम्हारा है. उन्होंने आगे गजल पढ़ी.

कहां ये उम्र शराफत से कटा करती है
कहां ये तुमने अच्छा बना दिया मुझको...

चलो ये दौर भी देखें तुम्हारे रूठ जाने का
है अपना ही मजा नाराज होने का मनाने का

हमें आदत है अपनों के सितम बर्दाश्त करने की
तुम्हें भी सीखना होगा हुनर हमको सताने का

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हटा दीं तुमने दीवारों से सब तस्वीर पुरखों की
कहां सीखा है ये नायाब नुस्खा घर सजाने का..

इसके बाद उन्होंने तरन्नुम से शेर पढ़ा- मैं तेरे प्यार का मारा हुआ हूं, सिकंदर हूं मगर हारा हुआ हूं. पता मेरा हवा से पूछ लेना, मैं खुशबू बनके आवारा हुआ हूं.मुरादें मांग ले ऐ दोस्त तू भी, मैं इक टूटा हुआ तारा हुआ हूंं.

इनके बाद शायर आलोक श्रीवास्तव ने माइक संभाला. उन्होंने शेर पढ़ा- ये सोचना गलत है कि तुम पर नजर नहीं, मसरूफ हम बहुंत हैं मगर बेखबर नहीं. हम आपके इशारे पे घर-बार छोड़ दें, दीवानें हैं जरूर मगर इस कदर नहीं. इक नींद के जवाब में रखे हुए हैं हम, यानी किसी के ख्वाब में रखे हुए हैं हम, सीने पे रखके सोती है जिसको वो रातभर, अपनी उसी किताब में रखे हुए हैं हम.

मुद्दतों खुद की कुछ खबर न लगे, कोई अच्छा भी इस कदर न लगे. बस तुझे उस नजर से देखा है, जिस नजर से तुझे नजर न लगे. मैं जिसे दिल से प्यार करता हूं, चाहता हूं उसे खबर न लगे.

पहले उसने धूप वाली राह दी
कर दिए फिर सब शजर मेरे खिलाफ

हर खबर से बेखबर हूं आजकल
उड़ रही है ये खबर मेरे खिलाफ

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जो दिख रहा है सामने वो दृश्य मात्र है
लिखी रखी है पटकथा मनुष्य पात्र है

विचारशील मुग्ध हैं कथित प्रसिद्धि पर
विचित्र है समय विवेक शून्यमात्र है

घिरा हुआ है पार्थ पुत्र चक्रव्यूह में
असत्य साथ और सत्य एकमात्र है... सुनाई तो लोगों ने खूब दाद दी.

साहित्य आजतक लखनऊ में शामिल हुए नामी शायर.

आलोक श्रीवास्तव के बाद शारिक कैफी ने शेर पढ़ना शुरू किया तो लोग झूम उठे. उन्होंने पढ़ा- सफर हालांकि तेरे साथ अच्छा चल रहा है. बराबर से मगर इक और रस्ता चल रहा है. जबानी खेल बनकर रह गया है इश्क अपना, जहां वादे के बदले सिर्फ वादा चल रहा है. जबां लोगों की महफिल में कहां ले आए मुझको, जिधर देखो उधर कोई इशारा चल रहा है. हमें बीच झगड़े में अचानक याद आया, कि इसके साथ तो झगड़ा हमारा चल रहा है. गलत क्या है जो मेरे हाल पर हंसती है दुनिया, बुढ़ापा आ गया और इश्क पहला चल रहा है. ये गजल सुनकर लोगों ने जमकर दाद दी.

एक और गजल में उन्होंने सुनाई- हमें पता है कि पर्चा बुरा नहीं आया, मगर तुम्हारा पढ़ाया हुआ नहीं आया. किसी के हाल पे हंसने गया था महफिल में, मगर मैं लौटकर हंसता हुआ नहीं आया. मैं शर्मसार कि फिर देर हो गई मुझको, वो सोचता है कि अच्छा हुआ नहीं आया.

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चुनी वो बस कि जियादा थीं लड़कियां जिसमें
बिछड़ के तुझसे मैं रोता हुआ नहीं आया

तेरी तरह नहीं आसान वापसी मेरी
मैं रास्तों को समझता हुआ नहीं आया.

किसी भी शर्त पे मंजूर उसकी कुरबत थी
जो दोस्ती है अभी कल वही मुहब्बत थी

वो बात सोचके मैं जिसको मुद्दतों जीता
बिछड़ते वक्त बताने की क्या जरूरत थी

पता नहीं ये तमन्नाए कुर्ब कब जागी
मुझे तो सिर्फ उसे सोचने की आदत थी

कमाल ये है कि जब भी किसी से बिछड़े हम
लगा मुझे कि यही आखिरी मुहब्बत थी.

शायर अकील नोमानी ने शेर पढ़ा कि - लबों पे आह फलक पर नमी नहीं आए, तो जिंदगी में कोई लुत्फ ही नहीं आए. वो रास्तों में कशिश है कि काफिले वाले दुआएं करते हैं मंजिल अभी नहीं आए. खामोशियों में नशा था, सदाओं में जादू, फिर उसके बाद वो लम्हे कभी नहीं आए.

प्यास के जिक्र को रखता हूं जुदा पानी से
देखते रहते हैं दरिया मुझे हैरानी से

उनकी खातिर मैं परेशान रहा करता हूं
जिनको मतलब ही नहीं मेरी परेशानी से

ये अलग बात कि नुकसान उसी का हो मगर
आदमी बाज कहां आता है मनमानी से.

गम झेले हैं दर्द सहा है टूटूा हूं बिखरा हूं
तब जाकर एक लफ्ज तमन्ना का मतलब समझा हूं.

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इसके बाद उन्होंने तरन्नुम से शेर पढ़े- ये चमत्कार तो होने से रहा. वो वफादार तो होने से रहा. यूं ही समझो तो समझ लो हमको, हमसे इजहार तो होने से रहा. इक खरीदार के मर जाने से, बंद बाजार तो होने से रहा. उसके गम पर ही गुजारा कीजे, उसका दीदार तो होने से रहा.

इनके बाद डॉ.नवाज देवबंदी को बुलाया गया. उन्होंने शेर पढ़ा- हाले दिल सबसे छुपाने में मजा आता है, आप पूछें तो बताने में मजा आता है. उन्होंने कहा कि मुहब्बत की आज बेहद जरूरत है. इसके बाद 'मुहब्बत' शीर्षक से एक रचना पढ़ी, जिसे खूब सराहा गया.

मुहब्बत का आसां नहीं दुश्वार होता है
जिसे रस्ता समझते हैं वहीं दीवार होता है

जब मैंने उसे खास निगाहे नाज से देखा
फिर आईना उसने नए अंदाज से देखा

महफिल में जिसे गौर से सब देख रहे थे
देखा न उसे मैंने तो उसने मुझे देखा.

कहानी भी हकीकत हो गई क्या
मेरे ऊपर इनायत हो गई क्या

शिकायत पर शिकायत कर रहे हो
तुम्हें मुझसे मुहब्बत हो गई क्या

पसंद आए अगर दिल खरीदने वाला
तो दिल के सौदे को महंगा नहीं किया जाता

ये अस्पताल नहीं कूचा-ए-मोहब्बत है
यहां मरीज को अच्छा नहीं किया जाता.

बेखयाली में भी खयाल उसका
मेरा क्या है ये है कमाल उसका

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ये जो सब मेरा हाल पूछते हैं
पूछना चाहते हैं हाल उसका,

मुहब्बत के चरागों को जो आंधी से डराते हैं
उन्हें जाकर बता देना कि हम जुगनूं बनाते हैं

ये दुनिया दो किनारों को कभी मिलने नहीं देती
चलो दोनों किसी दरिया पे मिलके पुल बनाते हैं.

जिसके दिल में तू है मौला उसके लिए
मंदिर मस्जिद और गुरुद्वारे एक से हैं.

उसकी रहमत के आगे हर गिनती कम पड़ जाती है
इतनी कलियां खिल जाती हैं टहनी कम पड़ जाती है... नवाज देवबंदी के इन सभी शेरों पर लोगों ने जमकर तालियां बजाईं.

साहित्य आजतक के मंच पर मौजूद शायर

ताहिर फराज ने पढ़ा- तुम्हें भुलाने का भूले से जो खयाल आए, नजर में अपनी गुनहगार लगने लगते हैं. तुम्हारी याद की आदत सी हो गई है, न याद आओ तो बीमार लगने लगते हैं. पढ़कर श्रोताओं को बेदार किया. इसके बाद उन्होंने तरन्नुम से पढ़ना शुरू किया तो लोग झूमने लगे. शामे गम तुझसे जो डर जाते हैं... गजल पढ़ी.

नजर न आऊं तो ढूंढ़ें उचक-उचक के मुझे
सामने आऊं तो देखे झिझक-झिझक के मुझे 

खुशी-खुशी उसे दिल से निकाल दूं मैं मगर
दुआ में मांगा है उसने सिसक-सिसक के मुझे...

इसके बाद लोगों की फरमाइश पर ताहिर फराज का मशहूर गीत 'बहुत खूबसूरत हो तुम' पढ़ा. जिस पर लोगों ने खुलकर दाद दी. ताहिर फराज के बाद शायर फरहत अहसास ने शेर पढ़े. उन्होंने पढ़ा- मेहरबां मौत ने मरतों को जिला रखा है, वर्ना जीने में यहां खाक मजा रखा है. उससे मिलने के लिए जाए तो क्या जाए कोई, उसने दरवाजे पे आईना लगा रखा है. इक परिंदा है कहीं कैद मेरे सीने में, इस परिंदे ने बहुत शोर मचा रखा है.

हर गली कूचे में रोने की सदा मेरी है
शहर में जो भी हुआ है वो खता मेरी है 

मैं बिछड़ों को मिलाने जा रहा हूं
चलो दीवार ढाने जा रहा हूं

करोड़ों खुश्क लब हैं साथ मेरे
समंदर को सुखाने जा रहा हूं

मुसलसल आंसुओं की फौज लेकर
मैं सूरज को बुझाने जा रहा हूं

उधर मरहम लगाकर आ रहा हूं
इधर मरहम लगाने जा रहा हूं

जिन्हें चेहरा बदलना हो बदल लें
मैं अब चेहरा उठाने जा रहा हूं.

इलाज अपना कराते फिर रहे हो जाने किस किस से
मोहब्बत करके देखो न मुहब्बत क्यों नहीं करते

तुम्हारे दिल पे मैंने अपना नाम लिखा देखा है
हमारी चीज फिर हमको इनायत क्यों नहीं करते.

अगली फेहरिस्त में शायर शीन काफ निजाम ने माइक संभाला. उन्होंने कहा- हर्फ एक तुम भी हो, एक हर्फ एक मैं भी हूं, लफ्ज क्यों न हो जाएं. आगे पढ़ा- दुश्मन तक के हक में दुआ करते थे, कैसे-कैसे लोग हुआ करते थे. खुद से खुद को रोज खफा करते थे, जाने क्या-क्या सोच लिया करते थे. समझाए कैसे दादी-पोते को, इस बस्ती में पेड़ हुआ करते थे. करते थे बातें आंखों--आंखों में, दीवारों के कान हुआ करते थे. बस्ती में थी खामोशी-खामोशी, सन्नाटे भी शोर हुआ करते थे. सबकी शाखों पर नींदें उगती थीं, और फिर उनमें ख्वाब खिला करते थे.

वो कहां चश्मे तर में रहते हैं
ख्वाब खुशबू के घर में रहते हैं 

मुल्क का हाल आके हमसे पूछ
वो तो अक्सर सफर में रहते हैं. 

अक्स हैं उनके आसमानों पर
चांद-तारे तो घर में रहते हैं.

इनके बाद शायर वसीम बरेलवी का नाम पुकारा गया तो लोगों ने जोरदार तालियां बजाईं. वसीम बरेलवी अस्वस्थ थे. इसके बाद भी उन्होंने पूरे जोश के साथ शेर पढ़े. क्या खूब था एक डूबती कश्ती का मुसाफिर, कहता था यहीं ला दो मुझे मेरे किनारे. रात को वक्त दिया जाए गुजरने के लिए, आपकी मर्जी से सूरज तो नहीं निकलेगा. सरपरस्ती भी कही जाए तो बस नाम की है, आसमां तेरी बुलंदी मेरे किस काम की है. इन सभी शेरों पर जमकर दाद मिली.

ध्यान रहे ये लोग तुम्हारी सफ में डरकर आए हैं
तुमको जिंदा क्या रखेंगे जो खुद मरकर आए हैं

कोई शिकवा न करे बहते हुए पानी से
कश्तियां डूबी हैं कुछ अपनी ही मनमानी से 

हाथ फैलाया कहीं तो हाथ ही क्या आएगा
उससे तो कम ही मिलेगा जितना घर से जाएगा.

इशारों में जिए जाने का अंदाजे वफा बदले
मोहब्बत से कहो अब अपने मुंह का जायका बदले

बातों-बातों में जहां बात बिगड़ जाती है
फिर बनाओ भी तो वो बात कहां आती है

खामोशी को चीख बनने का हुनर मालूम है
कैसे इक दीवार में होती है डर मालूम है

अपनी साजिश से वो खुद ही मुतमईन होता नहीं
उसको मेरे बच निकलने का हुनर मालूम है

चाहे जितनी बदचलन हो जाए जिस्मों की उड़ान
लौट के आना है कैसे घर मालूम है

उन बुजुर्गों से मिलो सीखो जरा जिनको वसीम
कैसे मुट्ठी में रखा जाता है घर मालूम है.

किस कदर अपने थे जो अपने न कहलाए बहुत
चाहकर भी उनके बारे में न लिख पाए बहुत

गुल समझ लीजिए मोहल्ले में कोई खिलने को है
घर की छत पर जब कोई लड़की नजर आए बहुत.

अंत में लोगों की मांग पर वसीम बरेलवी ने एक गजल पढ़ी. उन्होंने पढ़ा- दरिया का सारा नशा उतरता चला गया, मुझको डुबोया और मैं उबरता चला गया. वो पैरवी तो झूठ की करता चला गया, लेकिन उसका चेहरा उतरता चला गया. हर सांस उम्रभर किसी मरहम से कम न थी, मैं जैसे कोई जख्म था भरता चला गया. दुनिया समझ में आई मगर आई देर से, कच्चा बहुत था रंग उतरता चला गया. इसी के साथ कार्यक्रम का समापन हुआ.

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